गाछ-पात

कहानीकार - शिवशंकर श्रीनिवास “जमुनिया धार'

बूढ़ी माँ का बेटा सपरिवार आया है।

बहू आई है। पोते-पोती आए हैं।

इस बार वे कुछ तय करके आए हैं।

उनकी योजना है कि वे इस बार किसी भी हालत में माँ को अपने साथ बोकारो लेकर ही जाएँगे।

यह बेटा बूढ़ी माँ की इकलौती संतान है।

बोकारो में इंजीनियर है। बहू वहीं किसी हाईस्कूल में अध्यापिका है। उनके दो पोते और एक पोती हैं। दोनों किसी पब्लिक स्कूल में पढ़ते हैं और पोती छठी कक्षा में पढ़ती है।

बूढ़े बाबा पाँच साल पहले तक जीवित थे। जब तक वे जीवित रहे, तब तक बूढ़ी माँ को लगा ही नहीं कि वे बूढ़ी होती जा रही हैं। उन्हें किसी भी काम में थकावट का अनुभव नहीं होता था। वे हर घड़ी पति की देखभाल, सेवा-सुश्रूषा में व्यस्त एवं सचेत रहती थी। अगर कभी पति के मुँह से कोई तीखी, चुभने वाली बात निकलती, तो उनकी आँखों से गंगा-जमुना की धारा बह निकलती थी। फिर तो बूढ़े बाबा को अपनी पत्नी को नई-नवेली दुल्हन की तरह मनाना पड़ता था। जब बूढ़ी माँ का लाड़-प्यार, रूठना-मनाना पूरा हो जाता तो बूढ़े बाबा हँसी-हँसी में बोल पड़ते-

“एक बात बताऊँ! तुम्हारी बच्चों वाली हरकत कभी नहीं जाएगी। अब अगर बोकारों से पोते-पोती आएँगे और तुम्हे रोते हुए देखेंगे तो क्या कहेंगे ?”

बूढ़ी माँ प्रेम में भींगी-सी मुस्कराते हुए बोली-“भगवान आपकों स्वस्थ और कुशल से रखे। मुझ सुहागिन की अर्थी इसी घर की देहरी से उठे। मैं आपके लिए हमेशा ऐसी ही रहूँगी ।”

“महारानी, ऐसा नहीं होने वाला है।” बाबा बोलते ।

“मैं कहे देती हूँ। ऐसी अशुभ बात हरगिज मत बोलिए ।”

“और जब तुम बोलती हो तब कुछ नहीं, और मैंने बोल दिया तो अशुभ! ऐसा नहीं होगा ।”

“आपके कहने से क्‍या होगा। मेरे तो भगवान हैं।”

“भगवान तो मेरे भी हैं।” बाबा बोलते।

“चुप रहिए । इनके भी भगवान हैं ! जो व्यक्ति आपको पंडित कहता है, उस पर मुझे गुस्सा आता है। जनेऊ तो पहनते नहीं और पंडित हैं ? भगवान हैं इनके ?” यह कहकर वह भुनभुनाने लगती और पत्नी की भुनभुनाहट पर बाबा हँसते-हँसते लोट-पोट होने लगते ।

हुआ उल्टा। बूढ़ी माँ तरह-तरह की पूजा, व्रत मनौती माँगती रही और भगवान ने सुनी बाबा की । जब बाबा की मृत्यु हुई तो बूढ़ी माँ के आर्तनाद ने किसके हृदय को द्रवित नहीं किया ?

पहले बाबा सुबह उठते तो उन्हें पानी देना, चाय देना, पान देना, यह देना-वह देना, और इन्हीं इंतजामों में वे व्यस्त रहती थीं । मगन रहती थीं । बाबा भी कहाँ बैठे रहते थे । उनके हाथ में प्रायः खुरपी होती थी । वे बगीचे में रंग-बिरंग के पौधे लगाते थे । उन्हीं पेड़-पौधों की सेवा में उनका समय अच्छी तरह से बीत रहा था । तरह-तरह की सब्जियाँ, नींबू, अमरूद, केला आदि से उनका बगीचा भरा रहता था ।

बगीचे से बाबा सब्जियाँ नहीं तोड़ते थे। यह काम बूढ़ी माँ ही करती थीं । बाबा का काम सिर्फ पेड़-पौधे रोपना, लगाना, पानी देना, गुड़ाई-निराई, खाद देनां और अन्य देखभाल करना था । प्रतिदिन सबेरे बूढ़ी माँ चाय-वाय बनाने के बाद एक टोकरी सब्जी तोड़ लाती थी । थोड़ी-सी सब्जी अपने लिए रख लेतीं । आखिर दो व्यक्ति कितना खाते ? वे लोग सब्जी बेचते नहीं थे । लोगों में बाँटने में उन्हें बहुत आनंद आता था ।

ऐसा करने से उन्हें एक तरह का संतोष मिलता था। ऐसे अवसरों पर पास में बेटे के न होने से उनके मन में कचोट-सी उठती थी । उनका मन दुःखी हो जाता । जब बूढ़ी माँ अपने मन की बात पति से कहतीं तो वे बोलते, “तुम क्या कर सकती हो ?

उसके भाग्य में अपने बगीचे की ताजी सब्जी खाना लिखा ही नहीं ।” फिर वे एक लंबी साँस लेकर बोलते-“कैसे भेजोगी ? असंभव है । जो संभव हो, वही करो । दूसरों के बाल-बच्चों को तृप्त करो । उन्हें ही खुश करो। उनकी खुशी पाओ ।” वे कहते और बूढ़ी माँ वैसा ही करतीं ।

दूसरों के बच्चों को खुश रखने का प्रयास करतीं । बाद में तो यह उनकी पक्की धारणा बन गई कि दूसरों के बच्चों को खुश रखेंगी तो अपना बेटा भी खुश रहेगा । यही धारणा उनके मन को खुशी से भर देती । वह इसी सेवा-भाव में तल्लीन रहतीं ।

उस दिन भी बेटे ने उनसे कहा था-“मम्मी-पापा, आप दोनों हमारे साथ चलिए । गाँव में अकेले क्‍यों रहेंगे ?”

बाबा हँसकर बात टाल देते । बेटा पिता से बहुत संकोच करता था। वह साथ चलने के लिए उन पर जोर नहीं दे पाया। सच तो यह था कि बाबा को गाँव की आबो-हवा ही अच्छी लगती थी ।

गाँव में दूर-दूर तक फैली आम-अमरूद की गाछी, अलग-अलग दूर तक फैले मकान, फलदार केले के पेड़, छोटे, हरे केलों वाले हत्थे, बाग-बगीचे में लाल हरे पोए (साग) की बेलें, मिट्टी पर फैला गेन्हारी का साग। कलशनुमा पेड़, तिलकोर के पत्तों के बीच से झाँकते लाल-लाल फूल।

लंबे, चौड़े, हरे पत्तों वाले अरिकंचन । खिलखिलाती हुई चाँदनी की आभा में नहाए दूर-दूर तक फैले खेत-जंगल । पानी से भरे खेतों में झूमते धान के पौधे शहर में देखने को कहाँ मिलते ?

बाबा को इन नयनाभिराम दृश्यों से अपार सुख मिलता । उन्हें शहर की रात सचमुच कठिन लगती थी । सारे शहर में बिजली की चमकती रोशनी उन्हें सहय नहीं होती थी । शहर उन्हें कभी रास नहीं आया । वे गाँव में बैठक या बरामदे में सोते थे । खाट पर लेटे रहते, नीले आकाश की ओर ताकते रहते...आकाश में चमकते, टिमटिमाते तारों को देखते ।

कभी-कभी चुनमुन करते पक्षियों की

आवाजें सुनाई देतीं । बैलों और भैंसों को देखते । उनके गले में लटकती घंटियों से निकलती टिन-टिन की मधुर ध्वनि सुनते । उन्हें ऐसा ही वातावरण बहुत सहज लगता और ऐसी सहजता में वे गहन निद्रा में चले जाते ।

इसके विपरीत, शहर में एक-दूसरे से सटे हुए बड़े-बड़े फ्लैट, आँखों को चुँधियाती बिजली की रोशनी वे सह नहीं पाते थे । असहजता के माहौल में उनका मन अकुलाने लगता था। इसीलिए यदि किसी काम से शहर जाना जरूरी होता तो वे जल्दी से जल्दी वापस गाँव लौटने की कोशिश करते ।

ऐसी मानसिकता वाले बाबा बेटे के साथ हमेशा के लिए शहर में कैसे रह पाते ? बेटे का अनुरोध व्यर्थ जाता ।

बाबा की मृत्यु के बाद बेटे ने माँ से कहा-“माँ, अब हमलोग तुम्हें यहाँ अकेली नहीं रहने देंगे ।” बहू ने भी अपनी प्रबल इच्छा प्रकट की थी-

“हाँ, माँ। चलिए। इस बार हमलोग नहीं मानेंगे । इस बार आपको चलना ही पड़ेगा । बोकारो में सबके घर उनके सास-ससुर आते-जाते रहते हैं । वहाँ भी चारों तरफ पेड़-पौधे लहलहाते हैं । आप दोनों तो हैं। लोग इस बात को लेकर हमारे बारे में न जाने क्या-क्या बोलते रहते हैं । अब भी तो चलिए । वहीं रहिएगा। अब यहाँ अकेली रहने का क्‍या तुक है ? अब यहाँ आपका है ही क्या ?”

बूढ़ी माँ ने बहू की बात का कोई जवाब नहीं दिया। उनके मन में यह बात जरूर आई-“बहू ठीक ही तो कहती है। अब उनके बाद यहाँ बचा ही क्‍या है ?

वे चारों तरफ देखने लगीं। चारों तरफ पेड़ लहलहा रहे थे। उन्हें ऐसा अनुभव हुआ जैसे पति द्वारा रोपे गए पेड़-पौधे उनसे कह रहे हों--“बाबा मरे ही कहाँ हैं? हम सब में वही तो हैं। देखिए न! वे जीवित हैं।' बूढ़ी माँ भावुक हो उठी थीं ।

बाबा कभी कोई नया पौधा रोपते तो पत्नी को बुलाकर दिखाते थे- “देखिए, बौआ की माँ ।” और न जाने क्या-क्या बोलते । बूढ़ी माँ को एक बार की बात याद आई...

एक बार नींबू का एक पौधा रोपकर उन्हें दिखाते हुए बोले थे-

“यह अपनी जमीन छोड़कर और कहीं नहीं पनपता । इस नींबू का स्वाद अद्भुत होता है । जब पेड़ बनकर फलने लगेगा, तब देखना । इतना बड़ा होता है। जिसे देगी, वह खुश हो जाएगा । मैं तो चाहता हूँ कि गाँव में हर व्यक्ति के बगीचे में यह पौधा लग जाए। देखूँ, मेरी मेहनत कब रंग लाती है ।”

एक बार नवादा से आँवले का पेड़ लाए थे । उसमें उन्हें कितना परिश्रम करना पड़ा था, कहना मुश्किल है पर उनके मुखमंडल पर जो उल्लास छाया था, वह देखने लायक था । परम संतोष का भाव । पौधा रोपकर, उसमें पानी डालकर पेड़ को निहारते हुए उन्होंने कहा था-

“बोआ की माँ, केवल पौधा रोप देने से ही कुछ नहीं होता । उसकी सेवा चाहिए । तुम तो माँ हो। तुमसे ज्यादा अच्छी तरह कौन समझ सकता है कि सद्यःजात शिशु का पालन-पोषण कैसे होता है । वैसा ही पालन-पोषण इन पौधों का भी होना चाहिए । अगर इन पेड़-पौधों का वैसा ही पालन-पोषण नहीं किया गया तो ये पौधे भी अनाथ हो जाते हैँ, लावारिस |

“नहीं...नहीं...मैं नहीं जाऊँगी। इन पेड़-पौधों को अनाथ नहीं होने दूँगी। अँय...मैं कैसे जाऊँगी?” बड़बड़ाती हुई चारों तरफ देखने लगी थीं। उन्हें ऐसा आभास हुआ जैसे पति कह रहे हों-'बौआ की माँ, इसकी जड़ की मिट्टी की गुड़ाई कर देना, और सुनो, उसमें पानी दे दो।...” और बूढ़ी माँ पहले की तरह पति के आदेश के पालन में जुट गई थीं ।

उन्हें ऐसा आभास हुआ जैसे इन्हीं पेड़-पौधों की देखभाल के लिए बाबा उन्हें इस धरती पर छोड़ गए हैं। इस तरह तब भी बूढ़ी माँ ने बेटे-बहू के जबर्दस्त आग्रह को टाल दिया था। लेकिन इस बार उन्होंने जो रुख धारण किया था, जिस दृढ़ता से वे अपनी माँ को चलने के लिए आग्रह कर रहे थे, उससे वे उनके साथ जाने के लिए खुद को विवश पा रही थीं। वे अपने मन को तैयार कर रही थीं।

जबसे बच्चे आए हैं, तभी से उन्होंने दादी को घेर रखा है।

वह इन बच्चों में ही रमी रहती हैं।

एक दिन पोते-पोती उन्हें घेरे बैठी थीं। दादी उनके साथ हँसी - मजाक

में व्यस्त थीं। उसी रौ में पोती कमला ने पूछा-“दादी-माँ, आपको कितने गीत आते हैं ?"

“धत्‌! मैं क्या बताऊँ ? गिनना मुश्किल है ।”

“तब भी एक सौ ?”

“बस, एक सौ ? इससे भी ज्यादा ।”

“दो सौ ?"

“इससे भी ज्यादा ।”

“किताब से सीखा होगा ?”

“नहीं रे, किताब से मैं कैसे सीखती? अपनी माँ, चाची, सखियों, बहनों से सीखा और सबसे ज्यादा नैहर में रहने वाली एक वृद्धा से सीखा। वह गाँव की बेटी थीं । बाल-विधवा थीं । हम उन्हें बुआ कहते थे । उन्हें तरह-तरह के गीत आते थे। वे त्योहारों, पर्वों के गीत गाती थीं । टोले-मोहल्ले की बहू-बेटियाँ उनसे ही गीत सीखती थीं । बुआ सबको अपने पास बिठाकर गीत सिखाती थीं । अब ऐसे लोग कहाँ मिलते हैं ? उन्हें हम बच्चों से हमारी माँ से कम प्यार नहीं था ।”

“आपलोग बहुत गीत गाती थीं ?”

“हाँ रे, उन दिनों लोग बहुत गीत गाते थे । छोटे-से-छोटे मांगलिक कार्य भी गीत से ही शुरू होते थे । हमारी माँ-दादी हमलोगों को गीत सीखने के लिए कहती थी । उन दिनों गीत गाना बेटी का गुण माना जाता था। उन्हें कहा जाता था-गीत गाना सीखो, अरिपन" बनाना सीखो ।”

सबसे छोटा पोता जो पाँच वर्ष का था, बीच में ही बोल पड़ा- “दादी-माँ, आपको राइम्स आता है ?”

“हा...हा...हा...ही...ही...!” पप्पू से दो साल बड़ा पोता मुन्नू पप्पू की बात पर हँसते-हँसते दोहरा हो रहा था । उसी स्वर में बोला-“दादी-माँ को राइम्स आएगा ?”

मुन्नू को अपना पब्लिक स्कूल याद आया...प्रिपरेटरी क्लास याद आया, वहाँ की मैडम याद आई ।

सलवार-कमीज पहनी देह-हाथ नचा-नचाकर राइम सिखाती मैडम याद आई-

“बा...बा...ब्लैंक शीप, हैव यू एनी ऊल...?”

“यस सर...यस सर...श्री बैग्स फुल ।” सलवार-समीज पहने और मैडम की वेश-भूषा में दादी-माँ की कल्पना कर रहे मुन्नू से नहीं रहा गया ।

वह हँसते-हँसते उनकी गोद में लुढ़क गया। कमला ने उसे डॉटा- “मुन्नू, तुम दादी माँ को परेशान कर रहे हो। ठहरो, मैं माँ से कहती हू ।

क्यों कहेगी माँ से ? वह क्‍या परेशान कर रहा है ? मेरा बच्चा अपनी दादी के साथ खेल रहा है ।” कहते हुए बूढ़ी माँ उसके सिर पर हाथ रख उसकी बालों में उँगलियाँ फेरने लगीं ।

“दादी-माँ, इतना दुलार करेंगी तो यह बिगड़ जाएगा ।” उसे भाई से ईर्ष्या हो रही थी ।

“क्यों बिगड़ जाएगा ? नहीं बिगड़ेगा ।”

“हाँ, बिगड़ जाएगा । बोकारो में मुजफ्फरपुर वाली आंटी के घर पर दादी-माँ आई थी । वह भी बच्चों को बिगाड़कर चली गई । एक दिन वह आंटी मेरी माँ से कह रही थी ।” कमला बोली ।

कमला की बात सुन बूढ़ी माँ का कलेजा धक्‌ कर उठा । वह कमला के मुँह की ओर ताकने लगी । कमला की आँखों की चमक मानो उसके बात की सच्चाई पर मुहर लगा रही थी ।

आज बूढ़ी माँ को अपनी माँ याद आई । वह भी जब पोते-पोतियों को दुलार करने लगती तो बहुएँ बोल उठतीं--“माँ, बच्चों को इतना दुलार मत कीजिए । आपने दुलार करते-करते इन्हें बिगाड़ दिया ।”

ऐसा कहकर वे भुनभुनाने लगतीं। वह बेचारी सकपका जाती। आँखों के आगे सन्नाटा-सा पसर जाता। आज भी जब उन्हें अपनी माँ की वह हालत याद आती है तो उनके मन में एक हूक-सी उठती है ।

आज भी इन्हें कमला की बात से अपने माँ की याद आई। वह अपने बारे में ऐसी ही कल्पना कर सिहर उठीं । उन्हें ऐसा अनुभव हुआ जैसे रोएँ खड़े हो गए हों । वह उदास हो गई ।

“नहीं बौआ, कुछ नहीं।, वह खुद को सँभालने लगीं । वह पोता-पोती को दुलारने, पुचकारने, उनके साथ खेलने, बात करने में खुद को रमाने लगीं । वह बच्चों में खुद को रमाने तो लगीं, पर बेटे के साथ बोकारों जाने, न जाने पर फैसला लेने के बारे में और भी सचेत और केंद्रित हुईं । उन्हें साथ ले जाने की जिद ठाने बेटा-बहू के साथ जाने के लिए वह खुद को मानसिक रूप से तैयार करने लगीं । पर फिर सोचने लग जाती ।

शाम को खाना खाकर वे जमीन पर चटाई बिछाकर लेट गईं । अकेली नहीं, पोतों-पोती के साथ। तीनों आपस में झगड़ रहे थे । लड़ने का मुद्दा भी क्‍या धा-उनमें से कौन दादी के साथ चिपककर सोता है। बीच-बीच में पप्पू, मुन्नू दादी की देह पर लुढ़क जाते । सभी उन पर अपना अपना हक जताने के लिए उन्हें तंग कर रहे थे। इस तरह तंग होने में उन्हें अपार सुख मिल रहा था। वे बोकारो जाने की इच्छा को और मजबूती दे रही थीं ।

वह मन-ही-मन सोच रही थीं-'एक ही बेटा है । हमेशा उस पर ही मन टँगा रहता है। वहाँ सभी रहते हैं। बेटा, बहू, पोते-पोती । अब मुझे उस फुलवारी में जाना चाहिए ।' वह अपने मन को उत्साहित कर रही हैं । वे खुद में जोश भरना चाहती, पर ऐसा हो नहीं पा रहा है । उन्हें बार-बार कमला की बात याद आती है । सोचती है-“मुजफ्फरपुर वाली की तरह अगर उनकी बहू ने कुछ कह दिया तो ? वह तो नहीं सह पाएँगी ।'

बूढ़ी माँ का जीवन हमेशा स्वतंत्र रहा है । उन्हें कभी अकारण किसी की डॉट-फटकार का सामना नहीं करना पड़ा। उन्हें एक कहावत याद आई-बाप का राज राज, पति का राज महाराज और बेटों का राज मुँहतकी ।

बोकारो में बेटे की कमाई खाते हुए बहू की तीखी बात सुन पाएँगी ? क्‍या बेटे के घर में रहते हुए कुछ बोल पाएँगी ? अगर वहाँ रहते हुए किसी को कुछ देना चाहें तो ? कुछ खास खाने की इच्छा हुई तो ? वहाँ उनके पास पति की कमाई का क्‍या रहेगा ?

वह बहुत कुछ सोचने लगीं, पर फिर उन्होंने मन को मनाया-'मेरी बहू ऐसी नहीं है ।'

सबेरा हुआ । सभी लोग दोकारो जाने की तैयारी में जुट गए । बेटा-वह उनसे जल्दी करने का आग्रह कर रहे थे, पर वह तो बगीचे में टहल रही थीं, जैसे कोई माँ कहीं बाहर जाते समय अपने छोटे-छोटे बच्चों को ममता से दुलारती-पुचकारती है ।

वैसे ही पेड़-पौधों के बीच वह घूम-घूमकर उन सबको ममता से निहार रही थीं, सहला रही थीं। एक जगह उन्हें किसी पेड़ की जड़ की मिट्टी को गोड़ना, किसी में पानी देना, कुछ पौधों के पत्तों पर राख छिड़कना जरूरी लगा । कुछ पर दवा छिड़कने की भी जरूरत महसूस हुई ।

मंद-मंद हवा बह रही थी । पेड़ों के पत्ते हिल रहे थे । बूढ़ी माँ को लगा जैसे वे पेड़-पौधे उदास हो रहे हों । पत्ते मुरझाए-से लग रहे थे ।

“अब तो मैं जा रही हूँ । तुम सबको कौन देखेगा ?” वे एक उच्छुवास के साथ बोलीं । पति की याद आई । उनकी बातें याद आईं । पेड़-पत्तों से पति के गहरे लगाव की बात याद आई।

फिर उनके मन में उधेड़-बुन शुरू हो गई-'जाऊँ, न जाऊँ। कई सवाल मन में उठने लगे । मुजफ्फरपुर वाली की वह बात जो कमला ने बताई थी, वह उनके जेहन में घूमने लगी। बेटे-बहू का ममत्व और पुनः अपनी स्थिति का अनुभव हुआ । उनकी आँखों से पानी बह चला ।

बेटा पास आकर बोला-“माँ, किस माया के फेर में पड़ गईं । चलो, जल्दी तैयार हो ।”

बूढ़ी माँ विचलित हो गईं ।

मन में आया कि दौड़कर बेटे को कलेजे से लगा लें। उनके मुँह से बस यही निकला-“बेटा, अब मुझे यहीं रहने दो । इन्हीं पेड़-पौधों, पत्तियों-फूलों के बीच । इन सबकी सेवा में । मैं कहीं भी रहूँगी, मेरा मन इन्हीं पर टँगा रहेगा । तब फिर जाकर करूँगी भी क्या ?”

बेटा अवाक्‌ हो माँ का मुँह ताकने लगा ।