अनुराग

कहानीकार - शिवशंकर श्रीनिवास “जमुनिया धार'

नरेन्द्र की बुआ की ससुराल पचाढ़ी थी ।

वह उनको बुच्ची दीदी कहकर बुलाता था और इसीलिए पचाढ़ी गाँव उसकी बुच्ची दीदी का गाँव था ।

उस दिन बुच्ची दीदी के गाव से एक संदेशवाहक आया । वह बुच्ची दीदी का भतीजा था और उन्‍हें लाल काकी कहता था । उसने संदेश दिया- “लाल काकी का अंत समय है । वह अब-तब में है । समझिए भतीजे को देखने के लिए ही उनके प्राण अटके हैं । वे बार-बार इन्हीं का नाम नरेन्द्र-नरेन्द्र बोलकर कुछ कहना चाहती हैं ।

हम उनकी बात समझ नहीं पा रहे हैं । इसलिए नरेन्द्र जी मेरे साथ चलें । सुना है कि वे गाँव में ही हैं ।” इस संदेश से बुच्ची दीदी के नैहर के इस परिवार में उदासी फैल गई । नरेन्द्र ने यह समाचार सुना ।

उसका मन अजीब-सा हो गया । ओह! वह बहुत दिनों से उनसे मिल नहीं पाया है । आज दीदी इस मरणासन्न अवस्था में उसे याद कर रही हैं । उसका मन उसे धिक्कार उठा ।

बुच्ची दीदी नरेन्द्र को बहुत मानती थीं । उससे बहुत स्नेह करती थीं । उनके पास रहते हुए उसे ऐसा अनुभव होता जैसे उनके प्राण इसी में बसते हैं । वे अनुराग की साक्षात्‌ मूर्ति लगती थीं । आज वह इस संसार से जा रही हैं । उनकी बहुत-सी बातें आज नरेन्द्र को याद आ रही थीं । दीदी का स्वभाव बहुत मधुर था । वे बच्चों के साथ बच्चा बन जाती थीं । कैसा भी बच्चा हो, वह दीदी के साथ घुल-मिल जाता था ।

जब भी नरेन्द्र उनके पास जाता तो उसे देखकर उनका मन-मयूर खिल उठता और यह देख उसका बाल-मन भी खुशी से चहक उठता था । दीदी स्नेह व्यक्त करने की कला में निपुण थीं । ऐसा लगता था जैसे वे उसकी प्रतीक्षा में खाना-पीना भी भूल गई हों । उनकी बहुत-सी बातों में एक बार की घटना बहुत याद आती है ।

पहले की तरह उस बार भी जब नरेन्द्र वहाँ पहुँचा तो बुच्ची दीदी ने उसे ममता से अंक में भर लिया । उसी समय दूसरे घर की एक नई नवेली दुल्हन, जो रिश्ते में दीदी की बहू लगती थी, आईं । उन्होंने दीदी का यह अनुराग देखकर

परिहास किया-

“जब लाल काकी का भतीजा आता है तो इनके पैर जमीन पर नहीं पड़ते ।”

“कैसे पड़ेंगे बहू ? भतीजा है। कहते है कि भाई से ज्यादा भतीजे से आशा । अगर मेरा मन नहीं खुश होगा तो किसका होगा ? वह भी भतीजा जैसा भतीजा है । देखो तो, कितना सुंदर लगता है ! तुम्हारा तो देवर होगा। बच्चे पर अपने मन को मत ललचाओ ।” कहते हुए बुच्ची दीदी हँस पड़ी थीं । दुल्हन शरमा गई । हँसते हुए उसका चेहरा लाल हो गया । नरेन्द्र को किशोरावस्था के बाल-बोध ने संकोच में डाल दिया था ।

उस हँसी-ठट्ठा के बाद बुच्ची दीदी भावुक हो गई थीं और उस दुल्हन से बोलने लगीं-“अँय, बहू, स्त्रियों का जीवन ही क्‍या है ? ससुराल आते ही जन्मस्थान छूट जाता है । एक बार में ही सब कुछ बदल जाता है । जब मैं बच्ची थी तो लगता था कि हमेशा नैहर में ही रहूँगी । वही लोग, वही समाज, वही गाछ-वृक्ष । कुलदेवता, तालाब के ऊपर चौहदूदी, जिसके चारों ओर कनेर के फूलों के वन ।

पूरे बैशाख हम लड़कियाँ टोकरी-टोकरी फूल तोड़तीं और विदेश्वर को चढ़ाती थीं । रास्ते में महेशवाणी, नचारी और बटगमनी गाती थीं । वे सब बातें तो बीती बातें हैं । तब बात यह है कि जब कोई नैहर से आता है तो लगता है कि वह आदमी पूरा नैहर लेकर ही आ गया हो । हम उसी में लीन होकर डूबती-इतराती हैं ।

“मेरी दादी कहती थी-नैहर में बेटी कमला-धार और ससुराल में कुइयाँ ।” बोलते-बोलते बुच्ची दीदी की आँखों में आँसू आ गए ।

ऐसी कई बातें नरेन्द्र को याद आने लगीं । पहले बुंच्ची दीदी हफ्ता-हफ्ता भर गाँव में रह जाती थीं । उन्हें एक बेटी और दो बेटे थे ।

बेटे बाहर नौकरी करते थे और बेटी ससुराल में रहती थीं । दीदी अकेली रहती थीं । बहुत छोटी उम्र में ही उनके जीवन में महा विपत्ति आई । उनके पति की मृत्यु हो गई । उन्होंने अपनी जीवटता से बेटों को पढ़ाया और बेटी की शादी की ।

पति की मृत्यु के बाद उन्होंने अपना जीवन बाल-बच्चों को पालने और उन्हें अर्जन-उपार्जन की कला सिखाने में लगा दिया । उनकी माँ अर्थात्‌ नरेन्द्र की दादी भी समाज में बहुत प्रतिष्ठित थीं, उनकी उसी प्रतिष्ठा और सामाजिक स्वीकार्यता के गुणों को माँ अपने जीवन में उतारने लगी ।

तरह-तरह के गीत गाना, कैसा भी कठिन अक्षर हो, उसे स्वर में पिरोने, रंगोली-अरिपन बनाने, कोबर-मंडप की चित्रमय सज्जा, शादी-ब्याह में परिछन के लिए वस्तुओं को जुटाना, शादी की लोक-रीतियों में ठक-बक बनाना', डाला सजाना' जैसे ये सारे काम बुच्ची दीदी के हवाले होता था । ऐसे उत्सवों पर जब तक लाल काकी नहीं जातीं तब तक सब कुछ ऐसे ही पड़ा रहता । बुच्ची दीदी सभी सामाजिक कार्यक्रमों का जरूरी हिस्सा बन गई थीं । समाज में वही उनकी लोकप्रियता का आधार था और लोक से यही जुड़ाव उनके जीवन को मधुर बनाये हुए था ।

नरेन्द्र ने कभी उन्हें बैठे नहीं देखा । हमेशा किसी-न-किसी काम में लगी रहती थीं । उसमें भी ज्यादातर समय मिट्टी से गुड़्डा-गुड़िया जैसे आकार के राधा-कृष्ण की मूर्ति बनाती थीं और बहुत मनोयोग से उसे रंगती थीं । उन मूर्तियों को रंग-बिरंग के कपड़े पहनाती थीं । अकसर कोई-न-कोई उनसे वह युगल मूर्ति माँगता तो वे बड़े उछाह से गीत गाते हुए देतीं । ऐसे व्यक्ति तब मूर्ति लेकर चले जाते तो उनके जाने के बाद छिप-छिपकर रोती थीं ।

एक बार की बात है। तब नरेन्द्र बहुत छोटा था ।

उस समय जितनी समझ थी, उसके अनुसार कृष्ण के भक्त मांस-मछली नहीं खाते थे । वह दीदी को अधिकतर राधा-कृष्ण की मूर्ति बनाते देखता था । वह उन्हें मांस-मछली खाते नहीं देखता तो पूछता था-

बुच्ची दीदी, आप वैष्णव हैं ?”

“क्यों बेटा ?”

“आप मांस-मछली नहीं खाती हैं ?”

“तुम्हारे फूफाजी अब जीवित नहीं हैं, इसलिए नहीं खाती । पर तुम यह बात क्‍यों पूछ रहे हो ?”

“आप अकसर राधा-कृष्ण की मूर्ति बनाती रहती हैं ।”

“यह तो प्रेम का रूप बनाती हूँ रे बेटा । अकेले इस संसार में बहुत करुणा है बौआ । राधा-कृष्ण की जोड़ी एक रूप है । सबकी यह जोड़ी कायम रहे । किसी की यह जोड़ी न टूटे...न टूटे बेटा!” बोलते-बोलते बुच्ची दीदी रोने लगी थी ।

आज भी नरेन्द्र को बुच्ची दीदी का वह रूप याद आ रहा था । उस समय तो वह उनकी बातों का अर्थ और रोने का मर्म नहीं समझ पाया था, पर आज... ।

दिन बीतते गए । नरेन्द्र समझदार होने लगा, या कहें जवान हो गया । आइ.एस-सी. पास किया तो गाँव से पेड़ा खरीदकर बुच्ची दीदी को भेंट करने गया । जब वह वहाँ पहुँचा तो उस समय वे कागज पर कई रंगों से कुछ चित्र बना रही थीं । वे इस काम में इतनी तल्लीन थीं कि नरेन्द्र के आने की उन्हें आहट भी सुनाई नहीं पड़ी । नरेन्द्र ने उन्हें टोका-“बुच्ची दीदी ।” उन्होंने अकचकाते हुए देखा-“माँ री माँ, यह तो बच्चा आया है । रे बाबू । हे बेटा, कितने दिनों के बाद आज तू अपनी शक्ल दिखा रहा है रे !” दीदी की यह बात सुन नरेन्द्र को लगा कि वे उसे देखकर एकाएक जी उठी हों । फिर तो उनमें जैसे नई ऊर्जा भर उठी हो । उन्होंने सारा काम समेटकर पैर धोने के लिए उसे पानी दिया, बैठने के लिए पीढ़ा दिया और कुशल-मंगल पूछने लगीं ।

नरेन्द्र ने हाथ - पैर धोकर साइकिल में टँगे झोले में से पेड़े का दोना निकाला और उनके हाथ में दिया । दीदी को बहुत आनंद आया ।

उन्होंने पूछा था-“अपने ही गाँव में लिया था न ?” उससे “हाँ” में उत्तर पाकर उन्होंने अपने गाँव के पेड़े और लड्डू की बहुत प्रशंसा की और एक तश्तरी में अपने हाथ से बनाया हुआ थोड़ा-सा मोरब्बा और उस दोना में से पेड़ा निकालकर दिया । नरेन्द्र ने पेड़ा लेने से मना कर दिया, मगर वह कहाँ मानीं ? उन्होंने कहा-“बेटा, जीभ पर आने पर तो मुझे भी इसका स्वाद अच्छा लगता है, पर जब तुमलोग खाते हो तो मन तृप्त होता है ।”

नरेन्द्र नाश्ता करते हुए कागज पर बने चित्रों को देखने लगा । उन पेटिंग्स को देखकर बोला-“दीदी, आप तो बहुत अच्छी मिथिला पेंटिंग बनाती हैं ।”

“हाँ, यह बात तो कितने ही लोग कहते हैं ।”

“आपने इन दिनों यह पेंटिंग सीखी क्या ?”

“हट! इन दिनों कहाँ सीखूँगी ? हमलोगों के इलाके में तो बहू-बेटियाँ जीवन के साथ ही इसे सीखती हैं । इस तरह के कामों का तो यहाँ बहुत महत्व है ।

हे देखो, यह है अष्टदटल कमल। इसके चारों तरफ घर-गृहस्थी की वस्तुएँ बनी हैं । यह अरिपन देवोत्थान एकादशी के दिन बनता है । मेरे पिताजी कहते थे कि यह पर्व गृहस्थ के उत्थान का पर्व है । इसके बाद कार्तिक अमावस्या और उसके बाद अन्न-धन का महीना अगहन अन्न-धन, लक्ष्मी आएगी और देवोत्थान के अरिपन पर खेती में काम आने वाली सभी वस्तुओं का अरिपन-चित्र उन वस्तुओं के प्रति अनुराग और सतकतापूर्वक सँभालकर रखने की बात करता है ।” ऐसी बहुत-सी बात कहती थीं ।

वही तो, अब भी देवोत्थान एकादशी के दिन अरिपन पड़ता है । नरेन्द्र बोला ।

“पड़ता तो है मगर बौआ, पहले वाली बात अब कहाँ रही ? पहले इसका बहुत बड़ा माहात्म्य था । कौन कैसा अरिपन बनाती है, उसकी चर्चा टोले-मोहल्ले, पास-पड़ोस में होती थी ।

गुणों की चर्चा होती तो उसमें लोगों की रुचि बढ़ती थी ।

गाँव की बुजुर्ग महिलाएँ उस दिन कम-से-कम पाँच घरों का अरिपन जरूर देखती थीं । यह धर्म से जुड़ा कृत्य था ।” यह बोलती हुई दीदी अपना लकड़ी का वक्सा उठा लाई ।

उस बक्से में उन्होंने बहुत-सी मिथिला-पेंटिंग वाले चित्र रखे थे । उन्होंने वे चित्र नरेन्द्र को देखने के लिए दिए। नरेन्द्र को वे पेंटिंग्स अद्भुत लगीं । वह बोला-“बुच्ची दीदी, आप इन पेंटिंग्स को प्रदर्शनी में क्‍यों नहीं लगाती हैं ?”

“हे बच्चा, मैं यह सब कुछ नहीं समझती हूँ ? बस, बनाती जाती हूँ । मन में बहुत-सी बातें उठती रहती हैं । बस, मैं उन्हें इन चित्रों में उकेरती जाती हूँ । जब बाद में लोग इन चित्रों को देखेंगे तो चर्चा करेंगे कि यहाँ के लोग कैसे थे ?”

“क्या ये पेंटिंग्स जीवन की कथा कहेंगे ?”

“हाँ बौआ, चित्र और मूर्तियाँ कथा तो जीवन की ही कहते हैं । तब, जिसको जितनी समझ है वह इन चित्रों को वैसे ही समझता है ।”

दीदी की बात सुन नरेन्द्र को लगा कि वह इंटर पास है और बुच्ची दीदी अपने बाबा से कुछ दिन लघुकौमुदी पढ़ी हैं, पर दीदी के ज्ञान के सामने उसका ज्ञान कुछ भी नहीं है ।

उसने उनसे कहा-“सच दीदी, आप यह बहुत बड़ा काम कर रही हैं । यह काम आपको अमर बना देगा । मैं बड़ा होऊँगा तो इन सब पेंटिंग्स की किताब बना दूँगा । जब दुनिया के लोग आपके इन चित्रों को देखेंगे तो आपका नाम लेंगे और कहेंगे कि आप कितनी महान हैं ।”

दीदी नरेन्द्र की बातों से प्रफुल्लित हो उठी । उनके मुखमंडल पर आनंद की आभा फैल गई । प्रसन्‍नमना दीदी बोलने लगी-“बेटा रे, अगर ये चित्र सुरक्षित रह जाते हैं तो एक कीर्ति रह जाएगी । मेरे बेटा-बेटी को तो इसमें

परेशानी दिखाई देती है । तब, यह मेरी खुशकिस्मती है कि तुम्हारे जैसा

मेरा भतीजा है जो मेरे इस काम के महत्व को समझता है । आज मेरी छाती गर्व से चौड़ी हो गई । ठीक है याद रखना। इसे पुस्तकाकार बनवा दूँगी तभी मैं मरूँगी ।”

उसके बाद उस दिन दीदी से बहुत देर तक बात होती रही । नरेन्द्र ने उस दिन उनके चेहरे पर जो खुशी और चमक देखी थी, ऐसा पहले कभी नहीं देखा था ।

इन बातों को बीते काफी दिन हो गए थे । बीच-बीच में दीदी की बात और मिथिला पेंटिंग्स नरेन्द्र के दिमाग में यदा-कदा घूमती, कुछ पढ़ाई-लिखाई, फिर नौकरी...इन कामों में वह इतना व्यस्त हो गया कि वह गाँव भी न आ सका तो दीदी के गाँव की तो बात ही क्‍या है ?

अभी बहुत दिनों के बाद गाँव आया है । कई दिनों से सोच रहा है कि बुच्ची दीदी के गाँव जाए और संयोग देखिए कि उनके मरणासन्न होने की खबर आ गई ।

नरेन्द्र तुरंत उनके गाँव के लिए चल पड़ा । उसे सारी बातें याद आ रही थीं । वहाँ पहुँचा तो देखा कि चारों तरफ बहुत-से लोग उन्हें घेरे खड़े हैं । उसका दिल धक्‌-धक्‌ करने लगा । धड़कन तेज हो गई । उसे डर लगा कि कहीं बुच्ची दीदी चल तो नहीं बसीं ? पर लोग वहाँ रो नहीं रहे थे ।

उनके तुलसी-चबूतरे के पास कुश बिखेर दिया गया था । उसी पर उन्हें उत्तर दिशा में सिर रखकर लिटा दिया गया था । किसी को भी उनकी देह में कहीं भी नाड़ी की गति नहीं मिली । लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि वह थोड़ी-थोड़ी देर पर आँख खोलती, बंद करती । जब नरेन्द्र घर पहुँचा तो लोग बोलने लगे-“देखिए, भतीजा अब पहुँच गया है ।

एक आदमी उनके कान के पास मुँह सटाकर जोर से बोलने लगा- “लाल काकी, भतीजा आ गया। भतीजा आ गया है!”

आश्चर्य की बात, एकाएक उनके शरीर में हरकत शुरू हुई । वह चारों तरफ नजर घुमाने लगी ।

नरेन्द्र उनके पास बैठ गया । उसकी आँखों से अश्रुधारा बह चली । बोलने लगा -“दीदी, मैं आ गया !”

लोगों ने देखा, दीदी का हाथ थोड़ा उठ-सा रहा था । वे बड़े बेटे को

इशारा कर रही थीं ।

बेटा झटककर तेजी से कमरे में गया और ठीक से समेटकर बंडल के रूप में बनी हुई चित्र-पुस्तिका ले आया, नरेन्द्र के हाथ में दिया ।

फिर बोला-

“यह चित्र-पुस्तिका है । तुमने अपनी दीदी से क्या कहा था । यह उन्होंने तुम्हें देने के लिए ही सँभालकर रखा था। तुम्हें देने के लिए ही उनके प्राण अटके थे । कुछ पैसे हैं, वह ले लेना। छपवाने में खर्च लगेगा ।”

नरेन्द्र ने वह पुस्तिका माथे से लगाया और सँभालकर रख लिया । फिर वहाँ जो दृश्य दिखाई दिया, उसे सिर्फ उसने ही नहीं वहाँ मौजूद सबने देखा कि बुच्ची दीदी जोर से हँसी ।

पहले भी काम पूरा होने पर वे इसी तरह हँसती थीं ।