सिनुरहार

कहानीकार - शिवशंकर श्रीनिवास “जमुनिया धार'

रामभद्र झा के बेटे का यज्ञोपवीत (जनेऊ संस्कार) था ।

झा जी सपरिवार हैदराबाद से गाँव आए थे ।

कल्याणी भी आई थी । वह उनकी एकमात्र बेटी थी । उससे छोटा एक बेटा था, जो कल्याणी से दस साल छोटा था ।

पूरे टोल में बस एक ही चर्चा थी-“कल्याणी आई है ।”

चर्चा की वजह थी । वजह यह थी कि ब्राहमण की इस बेटी ने विधवा होने के बाद दूसरी शादी की थी । अब वह गाँव आई है और वह भी यज्ञोपवीत के अवसर पर । इसी बात ने लोगों को हैरान कर दिया था । टोले के गैर-ब्राहमण वर्ग के वे लोग भी चकित थे, जिनकी बिरादरी में विधवा-विवाह का चलन था । जितने मुँह, उतनी बातें । इस विधवा-विवाह की चर्चा जोरों पर थी । लोगों के बीच तरह-तरह की बातें चलती, कल्याणी के पति के बारे में तरह-तरह के सवाल पूछे जाते थे ।

कोई बोलता-“दूल्हा बहुत अच्छा है । काफी हँसमुख है ।”

दूसरा पूछता -“किस जाति का है ?”

“नौकरी कहाँ करता है ?”

बैंक में है ।”

“तब तो अच्छा है ।”

“तब तो कल्याणी जरूर सुखी रहेगी । ”

समाज में इस तरह की चर्चाएँ चलने लगीं ।

कल्याणी का विधवा - विवाह होना कोई नई बात नहीं थी पर आस-पास के उस इलाके के लिए नई जरूर थी । वह विवाह भी गाँव में नहीं, हैदराबाद में हुआ धा । रामभद्र वहीं सपरिवार रहते हैं और वहीं नौकरी करते हैं ।

कल्याणी की पहली शादी पाँच साल पहले हुई थी और वह शादी गाँव में ही हुई थी । शादी धूम-धाम से हुई थी । घर संपन्न था, वह भी सुंदर और सुशील थी पर कल्याणी के भाग्य में यह वैवाहिक-सुख अधिक दिन तक के लिए नहीं लिखा था। चार महीने बाद ही रेल दुर्घटना में पति की मृत्यु हो गई । उस समय रामभद्र सपरिवार गाँव में थे । दुर्घरना की खबर घर आई तो कोहराम मच गया था । पूरा परिवार गहरे शोक में डूब गया था। परिवार ही नहीं, सारा गाँव रो पड़ा था । विचित्र करुणाजनक स्थिति थी ।

रामभद्र झा को अब किसी अन्य कारण से कल्याणी को गाँव में रोकने या खुद रुकने का कोई औचित्य नजर नहीं आ रहा था । सभी परिजन तीन दिनों में ही हैदराबाद वापस आ गए । गाँव में समाज ने इस पर खूब टीका-टिप्पणी की ।

कुछ दिन बाद हैदराबाद में कल्याणी की माँ ने ऐसा वातावरण बनाना शुरू किया जिससे कल्याणी यह समझे कि उसका विवाह हुआ ही नहीं । जो बीत गई, सो बात गई। वह एक बुरा सपना था ।

पर कल्याणी के लिए ऐसा मानना संभव नहीं था । वह उस त्रासदी रो उबर नहीं पा रही थी । वह बहुत दिनों तक अवसाद में रही । फिर भी वह हैदराबाद शहर था । वहाँ की अपनी संस्कृति थी, अपनी गतिविधियाँ थीं । गाँव से भिन्‍न वातावरण था ।

कल्याणी की सोच में बदलाव आ रहा था । उसके मन में एक नई स्फूर्ति, नई ऊर्जा आ रही थी। धीरे-धीरे वह शोक-कंदरा से बाहर आ गई । अब वह सामान्य हो रही थी । अपने सहज स्वरूप में ।

उन दिनों वह बी.ए. में पढ़ रही थी। कॉलेज जाती थी । एक दिन उसकी सहपाठिनी प्रीता ने अपने बड़े भाई के प्रति संकेत किया। पहले तो कल्याणी चौंकी, पर प्रीता ने उसे धीरे-धीरे समझाना शुरू किया। उसे पुरानी जकड़नों से मुक्त होने और उन संस्कारों को तोड़कर बाहर आने के लिए प्रोत्साहित किया।

प्रीता का परिवार उत्तर प्रदेश का था । पहले वे लोग ब्राहमण जाति के थे पर अब वे जाति-बैँंधन की सोच के सीमित दायरे से बाहर आ गए थे । यह सबंध दोनों पक्षों को पसंद था, इसलिए बात आगे बढ़ी । कल्याणी की माँ ने इस संबँध को खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया । वह तो खुद कल्याणी का पुनर्विवाह चाहती थी । उसने इस बारे में उत्साह दिखाया । कल्याणी का विवाह हो गया ।

इस विवाह की सूचना तुरंत गाँव में पहुँच गई । इस गाँव के काफी लोग उधर रहते हैं । उन दिनों कई लोग गाँव आते-जाते थे । वही लोग यह खबर गाँव लाए । यह प्रसंग पूरे गाँव में जंगल में आग की तरह फैल गया । कुछ दिनों तक तो गाँव के लोगों की जुबान पर यही बात रही । गाँव ही क्‍यों, आस-पास के इलाकों में इस शादी की खबर फैल गई । फिर धीरे-धीरे सब शांत हो गया । इस घटना को गाँव में सकारात्मक रूप से लेने वालों की संख्या ज्यादा थी, नकारात्मक लेने वालों की संख्या बहुत कम थी ।

अब रामभद्र झा सपरिवार बेटे का उपनयन संस्कार कराने गाँव आए तो विधवा-विवाह की वह चर्चा फिर से जी उठी ।

जब हैदराबाद में रामभद्र झा ने बेटे के उपनयन संस्कार के लिए दिन तय किया तो शुरू में ही यह सवाल उठा कि कल्याणी को चलने के लिए कहा जाए या नहीं ।

आश्चर्य तो तब हुआ, जब उसकी माँ ने ही उसे बुलाने के फैसले का विरोध किया । वह मन-ही-मन गाँववालों से डरती थी । उसके मन में डर था कि गाँववाले उसका बहिष्कार न कर दें ।

रीति-रिवाजों को निभाते समय लोगों की आवश्यकता पड़ती है। फिर भोजन-भात के लिए आठ ब्राहमणों को भोजन के लिए भी तो लोगों की आवश्यकता पड़ती है । उन्होंने अपनी शंका पति के सामने रखी थी । पति उनकी बात से सहमत नहीं हुए । उनका तर्क था कि यदि गाँववालों को उनका बहिष्कार ही करना होगा तो कल्याणी को नहीं ले जाएँगे, तब भी करेंगे-“उन लोगों से जितना डरूँगा, उतना ही वे सिर पर चढ़ेंगे ।”

फिर भी पत्नी का मन कल्याणी को ले जाने के लिए तैयार नहीं हुआ । रामभद्र भी चुप हो गए ।

जनेऊ का समय निकट आ गया । एक दिन सबेरे रामभद्र झा बैठे हुए अखबार पढ़ रहे थे । पत्नी पास आकर बैठ गई । झा जी समझ गए कि पत्नी क्या कहना चाहती है और सचमुच उन्होंने कहा भी-

आज जब आप दफ्तर जाइएगा तो लौटते समय कल्याणी के घर होते हुए आइएगा । उन्हें बौआ के उपनयन के बारे में बताइएगा और गाँव चलने के लिए भी आमंत्रित कीजिएगा ।

कैसे छोड़ दें उसे ?

वह भी तो संतान है । मेरे ही कोख से वह भी जन्मी है । उसके ही सगे, वह भी छोटे भाई का जनेऊ है । उससे बोलिएगा कि उसे भी गाँव चलना है । जो होगा, देखा जाएगा ।” बोलते-बोलते उसकी आँखें भर आईं । गला भी भर आया । वह इससे आगे नहीं बोल पाईं ।

शाम को रामभद्र झा ऑफिस से लौटे तो पत्नी ने पूछा-“कल्याणी के घर गए थे? क्‍या जवाब दिया उसने ?”

रामभद्र झा बोले-“क्या बताऊँ ? यज्ञोपवीत संस्कार, वह भी गाँव में समारोह और उसे भी चलने का आमंत्रण । वह तो खुशी से नाच उठी । वह तो कई कार्यक्रमों की योजना बनाने लगी ।”

“और वे ?” पत्नी ने डरते-डरते पूछा ।

“कौन ?” रामभद्र झा ने पूछा

“दामाद जी !”

“मत पूछो । उनके चेहरे पर खास तरह की खुशी दौड़ गई । दामाद जी तो हीरा हैं, हीरा ।” बोलते हुए उन्होंने पत्ती की ओर देखा । उन्होंने गौर किया कि पत्नी की मुखमुद्रा अचानक बदल गई थी । उन्होंने भाँप लिया कि वह दामाद जी के जाने की बात से खुश नहीं थी । वह सिर्फ बेटी को ही ले जाना चाहती थी । रामभद्र झा कुछ नहीं बोले ।

जब वही रामभद्र झा सपरिवार गाँव आए तो लोगों ने देखा कि कल्याणी और उसके पति भी आए हैं । जब लोगों ने उन्हें देखा तो चुप कैसे रहते ? चर्चा शुरू हो गई । लोग आपस में गुपचुप तरह-तरह की

बातें करने लगे। गाँव में किसी ने रामभद्र झा से असहयोग की बात या बर्ताव नहीं किया । बहिष्कार की तो बात ही नहीं । गाँववालों के सहयोग से समारोह के सभी काम होने लगे। सामाजिक सहयोग एवं सद्भाव मिलने के बाद भी कल्याणी की माँ यह अनुभव कर रही थी कि जब भी कोई स्त्री या पुरुष वहाँ से गुजरता तो उसकी आँखें कल्याणी को ही ढूँढ़ती । उसके पति को ही ताकती रहती ।

इससे वह मन-ही-मन लोगों से डरने लगती। कसमसाती वह खुद को असहज महसूस करती । अगर उसके वश में होता या जादू-टोना जानती होती तो कल्याणी व दामाद को अदृश्य बनाकर रखती, ताकि ये दोनों सबको देखें और इन्हें कोई न देखे । मगर यह नामुमकिन था। वह सामर्थ्यहीन की तरह छटपटाती हुई व्यर्थ की बातें सोचने लगती । उसे एक अदृश्य भय सता रहा था ।

कल्याणी के लिए यह सब बेकार था। वह बिलकुल सहज थी । उसका पति भी समारोह के रीति-रिवाज वाले अवसरों का तल्लीनता से आनंद ले रहा था। लोग, खासकर स्त्रियाँ और लड़कियाँ तरह-तरह के हास-परिहास से वातावरण को रसमय बना रही थीं ।

कई बार कल्याणी खिलखिला उठती । बेटी के ऊँचे स्वर से माँ चौक उठती । उन्हें ऐसा आभास होता जैसे वह हँसी उनके माथे पर हंटर की तरह पड़ रही हो । वह मन-ही-मन सोचती-'ऐसा न हो कि यहाँ किसी को उसका हँसना अनुचित लगे और वह कोई बाधा खड़ी कर दे । क्‍या वह शांत और सहज नहीं रह सकती ? जब हैदराबाद जाएगी तो वहाँ जैसे मर्जी रहे उसके बाद उसके मन में एक तरह की झुँझलाहट रहने लगी ।

एक दिन कल्याणी की माँ ने उससे कह ही दिया-“ठीक से नहीं रह सकती ? जहर पीकर पुरबा हवा की तरफ सोती है । तुम समझती नहीं कि यह गाँव है । यहाँ यह कहना मुश्किल है कि कब कौन किस बात का बतंगड़ बना दे । यह बात ध्यान में रखो ।”

माँ की यह बात सुन कल्याणी दंग रह गई । माँ का नया रूप देख वह परेशान हो उठी । उत्साह भात के माँड़ की तरह ठंडा होने लगा । वह एकदम सुस्त पड़ गई ।

समय अपनी गति से चलता रहा । यज्ञोपवीत समारोह शुरू हो गया ।

उद्योग” हुआ। मंडप तैयार किया गया । मंडप की लिपाई-पुताई हुई । उसे भित्तिचित्र शैली में सजाया गयां ।

उपनयन संस्कार से पूर्व संध्या पर कुमरम' रीति हुई ।

ढोल बाजा बज रहा था। कुल देवता के पूजन की तैयारी चल रही थी । स्त्रियाँ मंगल-गीत गा रही थीं । उत्सव अपने रंग में था। पूरा माहौल गीत-संगीत, हास-परिहास, भाग-दौड़, लोगों के आने-जाने से गतिमान था ।

अब सिनुरहार' के रस्म की तैयारी चल रही थी । इस रस्म में सुहागिनों को तेल-सिंदूर लगाया जाना था, उनके आँचल में दूब-धान डाला जाना था और हाथ में खीर-पूड़ी दी जानी थी । सुहागिन स्त्रियाँ इसमें शामिल होना अपने सुहाग के लिए मंगलदायक मानती हैं । यही कारण है कि वे सब अपने निकट-संबंधियों को आमंत्रित करती हैं ।

अतः बरूआ” की माँ ने अपने सभी संबंधियों, पट्टीदारों को निमंत्रित किया था । इस बात का पूरा-पूरा खयाल रखा गया था कि गाँव की कोई बहू, विवाहिता बेटी, माँ, सास या कोई अन्य निमंत्रित होने से छूट न जाए । अन्यथा लोग बुरा मानते हैं ।

पाँच सुहागिनें तो जरूरी होती हैं । मगर आश्चर्य था कि उन आमंत्रितों की सूची में कल्याणी का नाम नहीं था । उसे निमंत्रित नहीं किया गया था । सिनुरहार की तैयारी कुलदेवता के कक्ष के सामने हो रही थी । बरूआ की माँ विधि-व्यवहार के लिए सामान जुटा रही थी । वह उसी काम में तलल्‍लीन थी ।

कल्याणी पूरब वाले कमरे के दक्षिणी भाग में थी । कुलदेव का कक्ष कमरे के पश्चिमी कमरे के ठीक दक्षिण भाग से सटा था । वह कमरे के सामने बैठी थी । वहाँ से सब कुछ साफ-साफ दिखाई देता था । वहाँ की बातें भी साफ-साफ सुनाई पड़ रही थीं ।

सिनुरहार की रस्म के लिए सुहागिनें कतार बनाकर खड़ी थीं । हँसी-ठटूठा का दौर चल रहा था । उस माहौल में प्रेम में घुले हँसी के फव्वारे फूट रहे थे, जो किसी के मन में रस घोलने के लिए काफी था ।

यह सब देखते-सुनते हुए कल्याणी बार-बार सिहर उठती थी ।

उसने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि अपने सगे छोटे भाई के यज्ञोपवीत समारोह के सिनुरहार की रस्म में वह शामिल नहीं हो पाएगी । वह उठकर बड़े आईने के सामने खड़ी हो गई । अन्य दिनों तो वह अपना रूप देख स्वयं लजा जाती थी । आज उसे खुद अपना वही रूप अपरिचित-सा लग रहा था। वह सोच रही थी, वह यहाँ आई ही क्‍यों ?

कौन-सा आनंद लेने ?

उसका ध्यान अपनी माँ पर केंद्रित हुआ । एकाएक दादी की याद आई । उसे उनके दुलार से ज्यादा उनके आचार-विचार, नियम-निष्ठा की याद आई । वे सब उनसे डरी-सहमी रहती थीं । उसकी माँ-चाची भी डरती थी । क्‍या छू जाएगा ?

किस बात पर वह बिगड़ जाएँगी, कहना कठिन था । वे कुँआरी कन्याओं और सुहागिनों का स्पर्श बरजती थीं । विधवा व पुरुष के हाथ का छुआ खाना खाती थीं । पुरुषों में विधुर वर्जित नहीं थे ।

उसे याद आ रहा है-जब वह बच्ची थी, हैदराबाद से गाँव आती-जाती थी और दूसरों के घर घूमने जाती थी तो कोई किसी बात पर कानाफूसी करता । छोटी होने के बावजूद वह समझ जाती कि उस कानाफूसी का लक्ष्य कहीं-न-कहीं वह भी है । बाद में उसकी समझ में आया कि ये सारी कानाफूसियाँ उसकी दादी को लेकर होती थीं । इन सब कानाफूसियों में विवाहिताएँ, सुहागिनें ज्यादा भाग लेती थीं । तब वह छोटी होने के कारण ये बातें नहीं समझती थी, पर जब वह बड़ी हुई तो उसकी समझ में आया कि विधवा को लोग अशुभ मानते हैं ।

यही कारण था कि सुहागिनें विधवाओं की बुराई करती थीं । विधवाओं की नजर खराब मानती थी । कोई पुरुष दूसरे पुरुष को ऐसा नहीं समझता था और न ही कोई स्त्री किसी विधुर को अशुभ मानती थी ।

आज कल्याणी के मन में एक शिकारी और बाज की कहानी याद आई । वह स्त्रियों की तुलना बाज पक्षी से करने लगी । किस्सा यह था कि एक शिकारी ने एक बाज पक्षी पाल रखा था । वह बाज शिकारी के खाने के लिए कोई पक्षी मारकर ले आता ।

शिकारी अपने घर में निश्चिंत होकर सोया रहता था । फिर भी बाज पक्षी बिना किसी उकसावे के ही पक्षी मार लाता । कल्याणी ने माना कि उस कथा का शिकारी पुरुष है और बाज पक्षी स्त्रियाँ हैं । स्त्रियाँ ही स्त्रियों का शिकार करती हैं । उसका मन छटपटा उठा । उसके तन-बदन में आग लग गई ।

वह सोचने लगी-क्या विडंबना है कि उसकी माँ ने ही उसे इस उपनयन समारोह में बुलाया और इसी उपनयन संस्कार की एक लोकरीति सिनुरहार में सुहागिनों के रस्म में उसे शामिल करना उचित नहीं समझा- 'मत बुलाओ। क्या फर्क पड़ता है ?

मन में बस एक लालसा थी कि बहन-बेटियों, भाभियों के साथ मिल-बैठकर जो दुर्लभ आनंद मिलता है, तृष्ति मिलती है, वह मुझे रोमांचित करता है । रोमांचित ही नहीं, अजीब-सा लगता है ।

इतने में उसकी निगाह पति पर पड़ी। वे भी सिनुरहार की रस्म देख रहे थे । कल्याणी सोच रही थी कि उसके पति यह सब देखकर क्‍या सोच रहे होंगे! उसने माँ को अपनी तरफ आते देखा । उसका कलेजा धक्‌-से रह गया । पूरी देह हलकी लगने लगी। उसे लगा, जैसे वह एकदम से छोटी बच्ची हो गई हो । लेकिन यह क्या, माँ तो उसकी तरफ आई ही नहीं । वह दीवाल के एक कोने में रुक गई ।

कल्याणी उठकर दरवाजे के पास आई । देखा, पिता वहाँ खड़े थे । वह वहीं ओट में खड़ी हो गई ।

“क्या कह रहे हैं ?” उसने माँ को पिता से पूछते सुना ।

“सिनुरहार में कल्याणी नहीं दिखाई पड़ रही है ।” पिता ने पूछा था ।

“हे भगवान, आपको कब सदूबुद्धि आएगी ?” माँ थोड़ा गुस्से में बोली थी ।

क्यों ?” पिता ने भी ऊँचे स्वर में पूछा था ।

“वह मेरी बेटी है । उसकी किस्मत फूटी तो हमने जोड़ दिया । तब मैंने धर्म-अधर्म नहीं देखा । कोई विचार नहीं किया ।” यह बोलते हुए वह क्रोध में ही बोली-

“यह सुहागिनों की पूजा है । भगवती की पूजा ।”

“तो क्या कल्याणी सुहागिन नहीं है ?” रामभद्र झा के स्वर में डॉट थी ।

कल्याणी की माँ उबल पड़ी-“ज्यादा झंझट मत खड़ा कीजिए । उसके कारण मैं बेटे का अमंगल नहीं होने दूँगी ।” यह बोलते हुए वह वहाँ से चली गई ।

रामभद्र झा पत्नी के मुँह से यह सुन अवाक्‌ रह गए । इस बात से पूरा घर स्तब्ध रह गया । कई लोगों को कल्याणी की माँ की वह बात अच्छी नहीं लगी, पर किसी ने अपनी नाराजगी भुनभुनाने से आगे नहीं बढ़ाई । पर कल्याणी, वह तो बेचैन हो गई-“उसकी जननी ही उसे अशुभ मानती है ।

उसे लगा जैसे उसका सिर दर्द से फट जाएगा । वह समझ नहीं पा रही थी कि वह क्‍या करे । नहीं, अब वह यहाँ नहीं रहेगी । उसने मन-ही-मन कुछ निश्चय किया ।

पर वह निश्चय, निश्चय नहीं रहा। इससे पहले कि वह कोई कदम उठाती, उसकी नजर कुलदेवता के कमरे के बरामदे पर बैठे भाई पर पड़ी । उसने वहीं से भाई पर एक भरपूर नजर डाली । नजर क्‍या डाली-बचपन से लेकर अभी तक की सारी बातें बाईस्कोप की तरह घूमने लगीं । सगे छोटे भाई का प्रेम उसके हृदय को द्रवित कर गया ।

उसके मन में आया कि पिता के सीने से लगकर खूब रोए। उसकी आँखों से आँसू छलक पड़े। पर रोए कैसे ? भाई के जीवन की शुभ घड़ी में आँसू ? यह तो अशुभ होगा । उसने तुरंत साड़ी के पल्लू से आँसू पोंछ लिये ।

उसकी नजर माँ पर गई। वह सिनुरहार की रस्म के संचालन में व्यस्त थी । एक बार वह कोई सामान लेने इधर घूमी तो कल्याणी ने देखा कि उसके चेहरे पर भी शांति नहीं थी । फिर उसने देखा कि माँ ने झुककर सिंदूर उठाया । सुहागिनों के सिर में तेल देने के बाद अब सिंदूर लगाने की बारी थी । कल्याणी लौटकर कमरे में आई और शीशे के सामने खड़ी हो गई । माँग में सिंदूर भरी हुई, सिंदूरी आभा मन में जैसे उमंग भर रही थी ।

उसने निश्चय किया कि वह नहीं जाएगी। भाई का उपनयन समारोह छोड़कर कैसे जाएगी ?

भाई का सरल, निश्छल, मासूम चेहरा उसके मन में उसके प्रति स्नेह भर गया । उसने सोचा-“माँ उसे अमंगल समझती है ।

पिता तो ऐसा नहीं मानते और भाई, वह अभी ये सब क्‍या समझेगा ? अभी तो बच्चा है ।

है तो उसका सहोदर । नहीं, वह कहीं नहीं जाएगी पर यहाँ कैसे रहेगी', सोचते हुए थोड़ी देर सिनुरहार की रस्म देखती रही । उसकी माँ सुहागिनों को सिंदूर लगा रही थी । उसने सोचा कि सिनुरहार की रस्म तो कोई सुहागिन ही करेगी । उसने एकाएक कुछ निश्चय किया ।

वह कमरे से आँगन में आई और सिनुरहार की तरफ बढ़ गई । वहाँ रखी खीर-पूड़ी की थाली उठा ली । आगे बढ़कर कतार में पहले ही खड़ी उस घर की बड़की भौजी के हाथ में खीर-पूड़ी दे दिया । भौजी ने बहुत उमंग से खीर-पूड़ी ले लिया । तभी कल्याणी की चचेरी बहन ललिता ने उसे पकड़कर कतार में खड़ी कर उसकी माँ के हाथ से सिंदूर लेकर कल्याणी के माथे पर लगा दिया और फिर लाइन में आकर खड़ी हो गई । उसकी माँ हक्की-बक्की रह गई । वहाँ मौजूद लोग भी अकचकाए, मगर कतार में खड़ी कल्याणी के आभामय मुखमंडल पर अपार खुशी प्रकट हुई । सबको अच्छा लगा ।

विस्मित कल्याणी की माँ पीछे पलटी तो देखा - उसके पति रामभद्र झा बेटी को देखकर मुस्करा रहे थे । कल्याणी की भी नजर उठी तो देखा कि उसके पति के मुखमंडल पर भी अनुराग उभर आया था । वे प्रमुदित मन से पत्नी को निहार रहे थे ।