बदलता रूप

कहानीकार - शिवशंकर श्रीनिवास “जमुनिया धार'

वह रनिया बुढ़िया की दुकान है ।

उसकी दुकान में मुंगौड़ियाँ, बड़ियाँ आदि बिकती हैं ।

उन वस्तुओं की गुणवत्ता बहुत अच्छी होती है । जितनी साफ-सुथरी, उतनी ही स्वादिष्ट भी । इन वस्तुओं के शौकीन लोग इन्हें खरीदने के लिए दूर-टर से आते हैं । ये सामान महँगे तो होते हैं, पर शौकीन लोग तो गुणवत्ता देखते हैं, दाम नहीं ।

“वही बुढ़िया न, जो गाली बकती रहती है ?”

“हाँ, वही। मगर अब वह गाली नहीं देती । अब तो उसके मुँह से शहद टपकता रहता है ।”

वह बुढ़िया माथुर ठाकुर की पत्नी है । माथुर बढ़ई जाति का है । पिता की एकमात्र संतान, प्यारा बेटा । उसने अपने पिता से इस पेशे की कला सीख ली है । उस इलाके के लोगों के कोच-पलंग वही बनाता है । उसकी अच्छी आमदनी थी ।

माथुर की शादी जितवारपुर गाँव में हुई। पत्नी आई । उसके नैहर में उसका नाम रानी था। सास-ससुर भी उसे प्यार से रानी कहने लगे पर माथुर उसे रनिया कहकर ही बुलाता था । जब परिवार बढ़ा, बेटे बड़े हुए, बहुएँ आईं तो उसे रनिया बुढ़िया कहा जाने लगा ।

शादी के बाद शुरुआती दौर में उसे जितना सुख मिला, बाद में उतना ही दुःख मिला । जब रानी के सास-ससुर की मृत्यु हुई तो वह सचमुच ही रानी बन गई । माथुर की आमदनी अच्छी-खासी थी । उसी कमाई पर रानी महारानी बनी राज कर रही थी । अपने शौक-मनोरथ तो पूरे करती ही थी,

मगर टोले-मोहल्ले का कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं था, जिसकी जरुरतें उसने पूरी न की हों, मगर बाद में... ।

रनिया की एकमात्र संतान उसका बेटा था। वह भी कारीगर था, मगर उसकी पत्नी बहुत दुष्ट थी । उसने घर में कदम रखने के कुछ दिनों के अंदर ही सास-ससुर को अलग कर दिया ।

पहले तो बेटा माथुर ठाकुर के साथ काम-धाम करता था, बाद में माथुर बेटे के अधीन काम करने लगा । उसके मन में वही इच्छा थी कि बेटा उससे अच्छा कारीगर माना जाए ।

ऐसा हुआ भी । माथुर ठाकुर के बेटे बेचन ठाकुर की अच्छे कारीगरों में गिनती होने लगी ।

अब इलाके के लोग काम करने के लिए उसे पूछते, बुलाते । अब माथुर अपने बेटा बेचन ठाकुर के अधीन काम करता । कुछ दिन तो ठीक-ठाक चला, पर बाद में वह बात नहीं रही । बात यह थी कि माथुर ठाकुर सभी कामों में बेटे को आगे करते-करते इस हालत में आ गया कि बेचन बहुत आगे हो गया और माथुर पीछे रह गया ।

अब काम कराने वाले बेचन को ही पूछते थे, उसी से बात करते । माथुर और बेचन साथ-साथ काम करते थे । मगर पैसे बेचन के पास ही आते थे । माथुर मुँह ताकता रह जाता और बेचन अकेले ही सारा पैसा रख लेता ।

जब कुछ दिन इस तरह बीते तो रनिया ने पति को टोका-“यह क्या बात हुई ? खटो तुम भी और पैसे अकेले वही रख ले !”

“तो क्‍या करूँ ?”

“क्यों ? माँगो ।”

“कैसे माँगू ? बेटा है न । अजीब-सा लगता है ।”

“तो क्‍या हम भूखे मरें और वे ऐश करें ?”

“तो तुम्हीं क्यों नहीं माँग लेती ?”

“काम करो तुम और माँगू मैं ?”

इस मुदूदे पर दोनों प्राणियों में रोज किच-किच होती रहती, मगर दोनों में से कोई भी बेटे से पैसा नहीं माँगता । पर अब अनाज-सब्जी की

किल्लत होने लगी । रनिया पति को समझाते-समझाते थक गई कि अकेले ही काम किया करे । माथुर कहता, कैसे छोड़ दँ । बेचन अभी भी काम के कई पहलू नहीं समझता है ।

रनिया उसे समझा-बुझाकर धक गई, पर सब बेकार। अब वह लोगों के खेत-पथार में काम करने लगी । रनिया काम करके आती तब दाना-पानी की व्यवस्था होती थी ।

रनिया की कमाई से दोनों प्राणियों की गुजर होती थी ।

ऐसी हालत में जब रनिया बहू को इतराते घूमते देखती तो पति पर उसका गुस्सा बढ़ जाता । आगे चलकर उसके गुस्से ने स्थायी रूप ले लिया और अब वह पति को गाली देने लगी । यह गाली-गलौच कई बार प्रचंड रूप धारण कर लेती । मधुर-भाषिणी रनिया गाली-गलौच करने वाली हो गई ।

लोगों को बुरा लगता, पर माथुर को कोई फर्क नहीं पड़ता । वह चुपचाप गाली सुनता रहता था । कभी-कभी गाली देती पत्नी की तरफ देखता हुआ सोचता-आखिर इसको खटना पड़ता है, हाड़ तोड़ती है ।

मुश्किल तो उसे भी होती है पर वह बेचन से अपने हिस्से की मजदूरी कैसे माँगे ? बेचन को खुद सोचना चाहिए था पर वह धूर्त था, शातिर । उसकी माँ लोगों के खेतों में काम करती थी, मगर उसे माँ पर दया नहीं आती थी, वह कैसे निस्पृह हो जाए । जब तक जान रहेगी, वह उसके नीचे ही खटता रहेगा ।

समय बीतता गया। रनिया दिन-पर-दिन विकराल रूप धरती गई, मगर स्थिति में कोई अंतर नहीं आया ।

एक दिन की घटना। शाम का समय था ।

माथुर बेटे के साथ काम करके लौटा । पैर-हाथ धोकर बरामदे पर जा रहा था कि अचानक गिर पड़ा । धड़ाम की आवाज सुनते ही वह दौड़ पड़ी । देखा, पति बेहोश पड़ा था और लोग भी दौड़े । सबने उठाकर उसे कमरे में लाकर बिस्तर पर लिटा दिया । डॉक्टर को बुलाया गया। डॉक्टर ने उसकी जाँच की और बताया “उसे लकवा मार गया है ।

इसे तुरंत लहेरियासराय अस्पताल ले जाएँ।

सभी लोग बेचन की ओर देखने लगे ।

वह बोला “जैसी माई की इच्छा ।" बेचन की बात सुनकर रनिया तो जल-भुन गई पर बोली कुछ नहीं ।

रनिया ने पंद्रह दिनों तक पति का लहेरियासराय के ज्योति अस्पताल में इलाज करवाया । उसके गहने तक बिक गए थे । बेचन कभी-कभी जाता, बस खानापूरी के लिए ।

माथुर का पूरा शरीर निश्चेष्ट हो चुका था, मगर वह थोड़ा-थोड़ा बोलता था । एक दिन उसने पत्नी से पूछा-“रनिया, तुमने पिछले जन्म में मेरा कोई कर्ज खाया था ?” इतनी-सी बात भी वह किसी तरह बोल पाया था ।

पति की यह बात सुन उसे लगा जैसे उसके मर्म पर गहरी चोट लगी हो । उसे अपने ससुर की याद आई । वे भी अपनी अंतिम घड़ी में इसी तरह के माया-अनुराग वाली बात बोलने लगे थे । वह विचलित हो गई ।

वह रोने लगी। उसे अपने पति से अदूभुत प्रेम था । पति को कभी खाने-पीने की दिक्कत न हो, इसलिए उसने अपनी देह की कोई परवाह नहीं की । इसलिए तो वह दूसरों के खेतों, घरों में काम करती रही ।

उसके दुःख का कारण था बेटे की उद्दंडता, उसका स्वार्थी व्यवहार । बेटे के प्रति क्रोध को वह पति पर उतारती थी । धीरे-धीरे उसके मीठे बोल विषैले हो गए । वह समझ रही थी कि वह पति को गाली दे रही है, पर उसके गुस्से ने जो विकराल स्वरूप धर लिया था, उसे वह सँभाल नहीं पाती थी ।

आज ये सारी बातें रनिया के कलेजे को चीर रही थी । आज वह अपनी इसी टीस भरी अंतर्वेदना को पति के समक्ष उड़ेलना चाहती थी, पर माथुर ने उसे इतना समय ही नहीं दिया ।

माथुर मर गया। बेटे ने श्रादध किया, पाँच गाँवों को भोज दिया । इस भोज से उसका नाम-ही-नाम हो गया । उससे पूछने वाला कौन था कि पिता के जीवित रहते उनके लिए क्‍या किया ?

मगर रनिया संज्ञाशून्य-सी सब कुछ देखती-सुनती रही । पति को याद कर अंदर-अंदर रोती रही । श्राद्धकर्म पूरा हुआ ।

रनिया तो पहले ही बेटा-बहू से अलग थी, अलग ही रही ।

जब बेटे-बहू को उसकी कोई फिक्र नहीं थी तो दूसरे को क्या कहा जाए ! अब रनिया कहीं काम नहीं करती थी । वह तन और मन दोनों से टूट गई थी ।

जब उसका पेट और मन व्याकुल होता तो वह भगवान को गाली देने लगती थी । गाली देते-देते थक जाती तो सो जाती । लोग कहने लगे- रनिया पगला गई है । क्‍या रनिया सचमुच पगला गई थी ? दरअसल, उनके मन में बेटा-बहू के प्रति जो आक्रोश था, उसने उसे पागल बना दिया था । चेतना वैसी ही थी, पर आक्रोश की बाह में खर-पतवार की तरह बह गई थी ।

उन्हीं दिनों एक बार उसके नैहर से भतीजा आया और जिद करके उसे अपने साथ ले गया ।

रनिया नैहर आ गई। वह यहीं रहने लगी । एक दिन उसने देखा कि भतीजे की पत्नी पुरानी सिंथेटिक साड़ियों से सूत उखाड़ रही थी ।

उसने बहू से पूछा-

“बहू, सूत निकालकर क्या करोगी ?”

यह सुनकर बहू बोली “चलिए, दिखाती हूँ ।” यह कहते हुए वह उसे अपने कमरे में ले गई । वहाँ रंग-बिरंगी चटाइयों और बिस्तर पर सोने वाले गलीचे की तरह बनाया हुआ बिछावन पड़ा था । उनमें आकर्षक फूलों की डिजाइनें बनी थीं ।

“वाह, अद्भुत, बहुत सुंदर! आकर्षक है । क्‍या ये सब इन्हीं सूतों से बनी हैं ?”

“हाँ दीदी, सभी पुराने कपड़े नए हो गए ।”

“मगर जो मुनष्य बूढ़े हो गए, वे कैसे नए होंगे ?"

होंगे दीदी, होंगे । वे अपने काम से नए होंगे ।”

रनिया बहू की बात पर हँस रही थी । आज बहुत दिनों के बाद हँसी थी । हँसते हुए भी वह यह सोच रही थी कि बहू कितनी होशियार है ।

वह अपने बारे में सोच भी रही थी ।

पुरानी, त्यागी हुई साड़ियों से बहू ने उपयोगी वस्तुएँ लीं और बह तो मनुष्य है। वह बिना कोई काम-धाम किए भाई के यहाँ पड़ी है। नहीं, वह ऐसा नहीं करेगी ।

उसे याद आया कि उसके हाथ की मुगौड़ियों, बड़ियों की प्रशंसा उनके नैहर-ससुराल दोनों जगह होती रही। अपनी उस कला को वह जीवंत करेगी । अपने मन की बात भाई और भतीजे के सामने रखी । पहले तो वे बोले, तुम्हें यह सब करने की कया जरूरत है ।

तुम यहीं रहो, खाओ-पीओ, आनंद से रहो। मगर रनिया बोली, “नहीं बौआ, अगर मैं केवल खाना ही खाती रही तो जी नहीं सकती । मुझे कुछ काम करने दो । तुमलोग मुझे इसी काम में सहयोग करो ।”

रनिया के तर्क सुनकर भाई-भतीजा दोनों सहमत हो गए । एक महीने के बाद रनिया भाई-भतीजे के साथ ससुराल आई । और गाँव के ही दोलामंद चौक पर एक दुकान के लिए एक लंबा-चौड़ा कमरा किराए पर लिया और यहीं मुगौड़ियों, बड़ियों की एक दुकान खोल ली ।

इस प्रकरण को बीते दो साल हो गए । आस-पास के पूरे इलाके में उसके दुकान की चर्चा होने लगी। उसके बनाए सामानों की अच्छी बिक्री होती थी । अब तो उसके साथ इस गाँव की चार स्त्रियाँ भी थीं । अब ये सारी स्त्रियाँ एक परिवार की तरह रहती थीं ।

मुझे ये सारी बातें उमानाथ सुना रहे थे । मैंने रनिया बुढ़िया को देखा था । उसे गाली बकते हुए भी सुना था । वह मुझे पहचानती भी थी । आज उमानाथ ने मुझे उसके बारे में जो कुछ बताया था, उसमें मैं रनिया से और भी प्रभावित हुआ । मैंने कहा-“उमानाथ, चलो, आज मैं भी उससे आधा किलो मुगौड़ियाँ लेता हूँ ।”

जब हम उसकी दुकान पर पहुँचे तो रनिया ने खुद अपने हाथ से मुगौड़ियाँ तौलकर कागज के ठोंगे में दीं और बोली-

“आप मनोज बौआ हैं न !”

“हाँ काकी, मैं ही मनोज हूँ ।”

“कब आए ?”

“परसों ! तुम्हारा बेटा बेचन कैसा है ? हम दोनों साथ पढ़ते थे न!” उसे याद दिलाना चाहा ।

“हाँ बौआ, याद है । लेकिन मैं घर की तरफ जाती ही कहाँ हूँ । अब तो मैं और ये चारों स्त्रियाँ, बस पाँच स्त्रियों का ही यह हमारा परिवार है ।”

“परिवार ही तो बनता है, चाहे संबँध की जो भी डोर हो ।”

“दुकान वो तुम्हारी है न ?”

“दुर बौआ, जब परिवार है तो कोई भी चीज क्या परिवार के किसी एक सदस्य की होती है ?”

मैं अवाक्‌ हो रनिया के मुँह की ओर देखने लगा । मन में विचार उठा कि ऐसे समय मनुष्य तो मनुष्य के साथ है, पर परिवार अपना नया स्वरूप ग्रहण कर रहा है ।

वह भी पूरी संवेदना के साथ, पूरी शिद्‌दत के साथ ।