गाँव का अंतिम आदमी

कहानीकार - शिवशंकर श्रीनिवास “जमुनिया धार'

कई सालों के बाद आद्रा नक्षत्र ऐसा झूमकर बरसा था कि ताल-तलैया, पोखर-डबरा सब भर गए थे ।

खेत पानी से लबालब भर गए थे, पर लखनदेइ नहर अभी खाली थी, इसलिए पानी नीचे उतरने में समय नहीं लगा। जब खेतों का पानी घटने लगा तो दो-तीन दिनों में ही घटकर नीचे चला आया ।

फिर भी खेतों की जरूरत लायक पर्याप्त पानी था ।

गाँव के किसानों के पौधे तैयार थे। इस बार लगभग सभी किसानों ने रोहिणी नक्षत्र में ही खेतों में बीज डाल दिए थे ।

मेहीं कामत अपने खेतों का हाल देखने के लिए मकराइन चला गया । वैसे तो वह हमेशा खेतों की ओर घूमने निकलता था, पर उस रात पानी ज्यादा घट गया था ।

दूर से चाँदी की तरह चमक रहे खेत अब हरे-भरे लग रहे थे ।

वास्तव में पानी घट गया था । ऐसी हालत में मेहीं के लिए खेतों की स्थिति जानना जरूरी था ।

मेहीं तकरीबन डेढ़ बीघा जमीन का मालिक है। कुछ खेत बटाई पर दे रखा है, पर वे सब एक जैसे ही हैं । मेहीं के शब्दों में, “फूलों का रस मकरंद और खेतों का सार मकराइन खेत ।”

वह सबसे पहले बिड़ार पहुँचा ।

उसने अपेक्षाकृत ऊँची जगह पर बीज डाला था । बीज के लिए उस खेत की मिट्टी अच्छी व दोरस थी । पौधे के लिए ही तैयार किया हुआ । सो, अच्छे पौधे हुए थे। हरा-भरा खेत था । एक भी खर-पतवार नहीं था । लहलहाता-सा लग रहा था खेत ।

उन्हें देखकर किसी भी किसान के पैर अनायास ही रुक जाते थे । वे प्रशंसा करते । कोई पूछ लेता, “किसका है ?”

उन खेतों को जानने वाले बोल पड़ते, “और किसका होगा ?” ऐसे मन को लुभाने वाले पौधे और किसके हो सकते हैं, सिवा मेहीं के ?

पूरे गाँव के कुशल किसानों में उसका नाम सबसे ऊपर है । जैसे उसका नाम मेहीं है, वैसे ही वह है भी महीन अर्थात्‌ अच्छा । वैसे तो वह बहुत-से दूसरे काम भी जानता है, पर खेती-बाड़ी के काम में उसकी रुचि गज़ब की है ।

बस समझ लीजिए कि पूरा दिन खेत में ही गुजारता है । वह जुते हुए खेत की मिट्टी से खर-पतवार ऐसे निकालता है कि देखते ही बनता है ।

मिट्टी के एक-एक टुकड़े से खर-पतवार ऐसे अलग करता है मानो मिट्टी को दुलार रहा हो । इसीलिए गाँव के लोग कहते हैं कि मेहीं के प्राण उसकी देह में नहीं, मकराइन में बसते हैं ।

वास्तव में वह हुनर वाला आदमी है । गाँव के भरे-पूरे लोग दूसरे के खेतों में काम नहीं करते पर मेहीं ऐसा नहीं है । उसे जब भी अपने काम से फुर्सत मिलती है तो समाज का भी ध्यान रखता है, उनके लिए काम करता है । अपना काम खूब मन लगाकर करने और दूसरों के काम में लापरवाही करना उसकी फितरत में नहीं है । वह काम को काम समझता है ।

वह जो भी काम करता है, खूब करीने से करता है, पूरी लगन से करता है । इसीलिए खेतों के मालिक उसके पास आते हैं । बल्कि यूँ कहिए कि अर्जी लगाए रहते हैं । सामाजिक विचार-विमर्शों में भी उससे सलाह ली जाती है । वह थोड़ा-बहुत पढ़ा-लिखा भी है । अखबार पढ़ने में उसकी गहरी रुचि है ।

लोग कहते हैं कि मेहीं अखबार नहीं पढ़ता, बल्कि उसमें रम जाता है । केवल पढ़ता ही नहीं, खबरों को याद भी रखता है । जब शाम ढलने लगती है तो वह अखबार लेकर बैठ जाता है । मास्टर साहब के यहाँ उसके लिए अखबार सहेजकर रखा होता है । इस बात के लिए उनका मजाक भी उड़ाया जाता है पर वे कहते हैं “मेहीं समाज का सजग व्यक्ति है ।”

अतः जब मेहीं बिड़ार पहुँचा तो बेहद खुश हुआ ।

ताजे पानी पर पौधे लहलहाकर उगकर लंबे हो गए थे ।

लोग कहते हैं कि देखकर ही

दिल-दिमाग खुश हो जाए, सो खश हो गया ।

थोड़ी देर तक वह धान के उन पौधों की हरीतिमा को निहारता रहा, मानों उनको आँखों में भर रहा हो ।

फिर वह सबसे पहले निचले खेत की ओर चला । फेंकन ठाकुर वाली क्यारी पानी से पूरी तरह भर गई थी ।

मेहीं ने मेड़ पर खड़े होकर खेत को स्नेह से निहारा । खेतों में अधिक जुताई की कोई जरूरत नहीं थी । वहाँ कीचड़ हो जाएगा, पर अभी उसमें पानी ठहरेगा ऐसा सोचकर वह आगे बढ़ गया । वह नीचे तक सभी क्यारियों में घूमा । सभी में पर्याप्त पानी था ।

उसने सोचा कि ये क्यारियाँ पानी बचाकर रखेंगी और वह ऊपर आ गया ।

अब वह जरीखन वाले पंचकठवा खेत में पहुँचा । उसमें केवल चार अंगुल पानी था । तैयार खेत और छप-छप पानी-उस समय खेत को देखकर उसके मन में यह भाव आया, मानो खेत अभिसारिका की तरह सोलह श्रृंगार कर पति के कदमों की आहट पर कान लगाए बैठी हो ।

मतलब यह कि खेत की स्थिति रही हो कि “हल ले आओ और जुताई शुरू करो !

मेहीं खत की स्थिति देख अकुला गया क्‍योंकि उसके पास अपना बैल नहीं था ।

पंद्रह दिन पहले बैल मर गया था ।

पैसे की तंगी के कारण दूसरा बैल नहीं ले पा रहा था । उसने खेत का जायजा लिया ।

उसने हिसाब लगाया कि अगर कल तक खेत के लिए हल की व्यवस्था नहीं हुई तो परसों मुश्किल बढ़ जाएगी ।

वह हल के इंतजाम के लिए घर से निकला। गाँव के चारों टोला घूम आया, पर किसी ने हल नहीं दिया । देता कैसे ?

खेती के लिए यही सबसे उपयुक्त समय था । गाँव में बहुत-से लोग हल नहीं रखते । दूसरा कारण था-श्रमिकों की कमी । जो लोग खुद खेती-बाड़ी नहीं करते हैं, वे अपने खेत बटाई पर दे देते हैं। जो लोग अपने हाथ से खेती करते हैं, उनके परिवार के लोग गाँव में नहीं रहते । परिवार के कमेरे लोग गाँव से बाहर चले जाते हैं ।

मेहीं घूमते-घूमते थक गए, पर हल की व्यवस्था का कोई सूत्र नहीं पकड़ पाए ।

गाँव में कई लोग ऐसे भी होते हैं जिनके बैल बेकार बैठे रहेंगे, वे खुद अपनी रोपनी में रहेंगे, मगर दूसरे के खेत की जुताई के लिए

अपना बैल नहीं देंगे।

यही कारण था कि मेहीं को खाली हाथ लौटना पड़ा । उन लोगों ने कह दिया कि वे अपने बैल से अपना खेत जोतेंगे ।

रास्ते में ध्यान आया कि ट्रैक्टर वाले से बात की जाए, पर उन लोगों को तो बड़े खेत चाहिए, कम-से-कम एक पहर का तो जोत हो । कम-से-कम इतने जोत का काम हो तभी काम के लिए तैयार होंगे । क्‍यों न मधुकांत से कहा जाए कि वह ट्रैक्टर से उसका खेत जोत दे और बदले में वह पिता-पुत्र उसके खेत में रोपनी कर देंगे । खेतिहर मजदूरों की इतनी कमी है कि ऐसे माहौल में मधुकांत को यह पेशकश जमेगी । मन में यह खयाल आते ही अचानक उसे याद आया कि बेटा सुबोध तो कल ही दिल्‍ली चला जाएगा। ओह, वह उसे नहीं जाने देगा पर वह माने तब तो ! वह तो कई दिन से दिल्ली जाने के लिए तूफान मचाये हुए है ।

“नौजवानों का तो दिमाग शहर की तरफ भागता है ।” बड़बड़ाते हुए मेहीं आगे बढ़ा । अभी थोड़ी दूर ही गया होगा कि दस-बारह लड़कों का एक झुंड आता दिखाई दिया । वे सब लगभग एक समान उम्र के थे । किशोर । कोई भी जवान नहीं था । अभी तो उनकी मूँछों के बाल कोमल रोओं की शक्ल में ही थे ।

“कहाँ चढ़ाई करने निकले, बच्चो ?” मेहीं ने उनसे पूछा ।

उसके इस सवाल पर सोनेवाल का बेटा मनाइ बोला-“देखते हैं काका, कहाँ का जोगाड़ लगता है ।”

“क्यों, अभी तय नहीं किया है क्या ?”

“किया भी है और नहीं भी किया है । देखते हैं-सूरत जाते हैं या मुंबई!” मनाइ बोला ।

जब मनाइ ने पहले के बंबई को मुंबई कहा तो मेहीं मन-ही-मन हँसा । उसके मन में आया कि आजकल तो साधारण आदमी को भी देश-विदेश की बहुत-सी बातों की जानकारी हो जाती है पर वे यह नहीं समझते कि वे कहाँ जा रहे हैं ?

गाँव में खेती -बाड़ी का काम कैसे चलेगा ? काम करने वाले तो बाहर भाग रहे हैं । वह अपने टोले के सभी घरों को याद करने लगा छोटे-छोटे बच्चों और बूढ़ों को छोड़कर गाँव में और कोई नजर नहीं आ रहा था ।

उसे लगा कि ये छोटे बच्चे भी जवान होते-होते शहर की ओर फुर्र हो जाएँगे । उस स्थिति में गाँव का क्‍या भविष्य होगा ? गाँव बूढ़े-बुढ़ियों की बस्ती बनकर रह जाएगा । मन में यह खयाल आते ही उसे सरजुग बाबा याद आए ।

एक दिन की बात है । मेहीं कहीं से चला आ रहा था । उसने सरजुग बाबा को प्रणाम कर उनका हाल-चाल पूछा तो बाबा रोने लगे ।

उनके ऐसे दिन आ गए कि एक बड़े परिवार के मुखिया होते हुए भी खुद को अकेला व अलहायसा अनुभव कर रहे थे, जबकि परिवार में बेटा-बहू, पोता-पोती, पड़पोता भी थे । बेटा कानपुर में नौकरी करता था ।

बाद में वहीं बस गया था । फिर तो वह गाँव को पूरी तरह भूल गया था । बाबा को रोते देखकर मेहीं उनके पास बैठ गया । उसने बाबा को ढाढ़स बँधाया ।

कुछ देर बाद बाबा बोले-“क्या कहूँ, कई बार तो मन सूना-सूना सा लगता है । घरवाली तो मुझसे भी ज्यादा अकेलापन महसूस करती है ।”

क्यों, क्या अब वे लोग आपकी खोज-खबर भी नहीं लेते ?” मेहीं ने पूछा ।

मेहीं की इस बात पर सरजुग बोलने लगा-“क्या बताऊँ मेहीं ? बड़े पोते की शादी हुई । सारी रस्में वहीं निभायी गईं । खैर, उसकी मर्जी, जहाँ करे । बैरियों से इतना भी नहीं हुआ कि जरा बहू का मुँह ही दिखा देते ।

मैं अब देखूँगा भी क्या ? अब तो सूझता भी नहीं । फिर भी पोते की बहू का मुँह देख लेता तो मन संतुष्ट होता ।”

क्या अब आपको दिखाई नहीं देता ?” मेहीं ने पूछा । “दिखाई देता है । तुम्हें देखता हूँ तो लगता है कि कोई है । जब तुम बोलते हो तो समझ जाता हूँ कि मेहीं है ।” बाबा बोले ।

“तो किसी को साथ लेकर चले क्‍यों नहीं जाते ?” मेहीं ने उनके मन की थाह लेनी चाही ।

जा जब जवानी में नहीं गया तो अब क्‍या जाऊँगा ? और वे लेग आएँगे । नहीं आएँगे तो न आएँ। वे तो तब खुश होंगे जब मैं कुलदेवता वाले घर को भी बेचकर उनके पास चला जाऊँ ।

यह तो

घर-द्वार बेचने जैसा हुआ । यह मेरे जीते जी नहीं हो सकेगा । इस बात का उन लोगों को बहुत दुःख है । कोई पारिवारिक उत्सव हो तो दो लाइनों का निमंत्रण लिखकर भेज देंगे कि मैं उस अवसर पर शामिल होऊँ, जैसे माँ-बाप न होकर कोई रिश्तेदार हों ।” इतना बोलकर सरजग कुछ बड़बड़ाने लगे ।

“एक बार पड़पोते की बहू को देख आइए ” मेहीं बोला ।

“बौआ, वैसे तो तुम भी उम्रदराज हुए, फिर भी मैं तुमसे बहुत बड़ा हूँ । दरवाजे पर बेटे-पोते की बहुएँ आँगन में रुन-झुन करती चलती-फिरती तो कितना अच्छा लगता !

मेरे पिता-चाचा कहा करते थे कि जब आँगन में अपने वंश की कोई बहू आती है तो पितर बहुत आनंदित होते हैं । वे पितर-लोक में पंक्ति में खड़े होकर आशीर्वाद देते हैं । मेरे पितरों ने हमारे घर तो यह देखा नहीं । उनकी आत्मा तो तृप्त नहीं हुई ।” यह बोलते-बोलते सरजुग बाबा की छाती फटने-सी लगी। वे मर्माहत थे । सरजुग बाबा की संवेदना उसे कई दिनों तक कचोटती रही ।

अतः आज जब उसे सरजुग बाबा की याद आई तो ऐसा लगा जैसे अचानक किसी घाव से पपड़ी हट गई हो । अपने साथ-साथ घर की स्थिति की चिंता ने भी उसे बहुत दुःखी कर दिया ।

वह घर आया। उसकी पत्नी खाना पका रही थी । पति को देख उसने पूछा-

“कहाँ गए थे ?”

“हल का इंतजाम करने गया था ।” मेहीं बोला

“हुआ ?”

“नहीं ।”

“तो अब क्या करेंगे ?”

“लगता है कि अगर कल तक हल का इंतजाम नहीं हुआ तो खेत की स्थिति सभल नहीं पाएगी ।”

“कौन-सा खेत ?”

“जरीखन वाला ।”

धत् ये गावं कैसा है ? थोड़ी सी वर्षा होते ही ऊब-डूब करने लगता है और तोड़े में ही ना जाने क्या क्या ? 'चूल्हे पर क्या चढ़ाया है ?” मेहीं ने प्रसंग बदला ।

पूड़ी है । बौआ के लिए बटखर्चा ।”

“नहीं, अब बौआ कल नहीं जाएगा ।” मेहीं पत्नी से कह ही रहा था कि इतने में सुबोध वहाँ आया ।

उसने पिता की बात सुनी तो बोला-

“नहीं, नहीं, अब मैं इस गाँव में नहीं रहूँगा ।”

क्यों ?” मेहीं ने थोड़ी ऊँची आवाज में पूछा ।

“गाँव मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता ।” सुबोध उतनी ही ऊँची आवाज में बोला ।

इस बात पर बाप-बेटे में बहस हुई । मेहीं गुस्से से लाल हो गया । पत्नी मना करती रही, उसे शांत करती रही, पर उसका मन स्थिर नहीं हो पा रहा था । सुबोध चुप हो गया, लेकिन मेहीं अब भी बहुत देर तक गुस्से में बड़बड़ाता रहा । घर का वातावरण इतना बोझिल हो गया कि रात किसी ने खाना भी नहीं खाया ।

सबेरे सुबोध दिल्ली चला गया । मेहीं तड़के भोर में खेत की तरफ निकल गया । उधर से घर लौट रहा था तो सकली की बेटी ने उसे बताया कि सुबोध दिल्‍ली चला गया । उसे बहुत दुःख हुआ। बेटा होकर भी सुबोध ने उसकी बात का मान नहीं रखा ।

उसने तो इतनी शिष्टता भी नहीं दिखाई कि जाते समय मिल लेता । वह भीतर-ही-भीतर कई टुकड़ों में टूट गया, पर कुछ बोला नहीं। पत्नी से भी नहीं । फावड़ा लिया और खेत की तरफ चल दिया । दोपहर में पत्ती काफी समझा-बुझाकर घर ले आई । घर आकर दो कौर खाया, मगर एक शब्द भी बोल नहीं पा रहा था । उसे ऐसा लगता था कि अगर वह बोलने की कोशिश करेगा तो रूलाई छूट जाएगी ।

रात में खाना खाकर लेट गया, मगर आँखों में नींद कहाँ ? न जाने वह क्या अनाप-शनाप सोचने लगता। सोचते-सोचते उसका सिर फटने गगता । बेटे की एक-दो बातें अब भी उसे परेशान किए थी । सुबोध ने

कहा था-“गाँव में लोग कैसे रहेंगे ? यहाँ तो कितने लोग ऐसे भी हैं जिनके परिवार के लोग अगर शहर में नौकरी न करें तो वे भूखें मर जाएँगे ।”

“लोग पहले कैसे रहते थे ?” मेहीं ने पूछा था ।

“पहले परिवार में कितने लोग दोनों पहर भोजन करते थे ? सौ में से एक-दो जमीन वाले सुख करते थे । बाकी लोग उन्हीं के लिए सुख जुटाने में त्राहि-त्राहि करते रहते थे । अब समय बदला है पर अब भी गाँववाले शहरी मनीऑर्डर पर जी रहे हैं ।” बेटे ने अपनी बात रखी थी ।

बेटे की बात सच होते हुए भी उसे अच्छी नहीं लगी थी । उसे आज से ज्यादा आने वाले कल की चिंता थी । वह सोचने लगा-“यह लड़का क्या बोल रहा है ? ऐसी उपेक्षा सहते-सहते गाँव पता नहीं क्‍या हो जाएगा ? खेती-बाड़ी खत्म हो जाएगी ।

फिर मनुष्य कैसे बचेगा ? मेहीं के हृदय में खेतों के प्रति ममत्व जागृत हो गया । उसे बेटे पर और क्रोध आया । वह बहुत बोल गया था और बोलते-बोलते थक गया था । अभी उसे बेटे की बातें याद आती हैं और सुरजू गुरुजी की बातें भी । गुरुजी कहते थे-

“धरती माँ है । हरियाली उसकी प्रसन्‍नता का प्रकटीकरण है, विभिन्‍न नदियाँ उसके गीत हैं और उर्वरा उसका मातृत्व, जिसे पाकर जीव इस धरा पर जीता है, परंतु आज उस धरती माँ के पुत्रगण अपनी माँ का विनाश करने पर तुले हुए हैं ।

ऐसे में धरती क्रोधित हो जाएगी। संसार नष्ट हो जाएगा ।” गुरुजी अकसर यही कहते रहते थे । मेहीं को गुरुजी की और बातें अच्छी लगती थीं, पर अंतिम पंक्ति-'धरती क्रोधित हो जाएगी और संसार खत्म हो जाएगा” अच्छी नहीं लगती थी ।

पर वह करता भी क्या ? बचपन में गुरुजी से पढ़ा था अतः गुरुजी से यह कहने का साहस नहीं हुआ कि "गुरुजी, अंतिम अशुभ पंक्ति मत बोलिए गुरुजी उसकी आँखें और भौंह देखकर समझ जाते और कहते, “मेहीं, मैं तुम्हारा गुस्सा समझता हूँ। आजकल के ऐसे समय में भी तुम मनुष्य हो, इसलिए तुम्हें यह बात बुरी लगती है । सँभाल सकते हो तो सँभाल

लो। जंगल कट रहे हैं। उसे रोको। वन रोपो। गंगा प्रदूषित हो रही है, कराह रही है। उद्योग-घंधे

हरियाली को लील रहे हैं। धरती को बचा लो ।

गाँवों से लोग उजड़ रहे हैं, उसे रोको ।” गुरुजी बहुत-सी बातें बोलते थे । मेहीं को ऐसा प्रतीत होता था जैसे गुरुजी के वे शब्द उसे फटकार रहे हैं । उसके मन में इस बात के लिए ग्लानि का भाव उत्पन्न होता है कि वह अपने बेटे को भी धरती माँ की सेवा के लिए नहीं रोक पाया । ऐसा सोचते हुए मानो वह धरती माता से कह रहा हो-हे माता, जैसे अब लोग आपको छोड़कर दूसरे कामों में लग रहे हैं, वैसे ही अपने जन्मदाता माता-पिता को भी छोड़ रहे हैं ।

ऐसा सोचते-सोचते उसे लगा जैसे वह भी एक दिन सरजुग बाबा हो जाएगा, पूरा गाँव सरजुग बाबा हो जाएगा । फिर तो वह एक भयावह कल्पना से चौंक उठा। वह लेटे-लेटे ही मन को शांत करने की कोशिश करने लगा । वह बहुत देर तक सो नहीं पाया ।

पशुओं को खोलने का समय था । पत्नी चौंककर उठी। मेहीं नींद में ही चिल्ला रहा था । उसी चिल्लाहट से उसकी नींद खुली । वह पति को झिंझोड़-झिझोड़कर जगाने लगी । काफी देर बाद उसकी नींद टूटी ।

उठने के बाद भी वह बहुत देर तक गुमसुम बैठा रहा । इस दौरान पत्नी ने उससे कितनी बार पूछा था, “क्या हुआ, ऐसे क्‍यों चिल्ला रहे थे ?”

जब उसका मन स्थिर हुआ तो उसने बताया कि उसने एक भयानक सपना देखा है ।

पत्नी चौंक उठी, “क्या ?” वह इस बात से डर गई थी कि “चूँकि सबेरे का देखा सपना सच होता है, अतः हे भगवती वह मन-ही-मन घर के कुलदेवता को प्रणाम करने लगी ।

“मैंने सपना देखा कि...कि गाँव के सभी लोग एक-एक कर गाँव से चले गए हैं । खेती-बाड़ी का काम ठप्प हो गया है। खेत भी जैसे गूँगे हो गए हैं । उसके बाद अंट-शंट सपने देखने लगा ।

मैंने देखा “एक मंदिर है । उसमें देवी की एक मूर्ति है । पास पहुँचा तो मंदिर टूटा-फूटा खंडहर-सा था । उसके बीच में जो एक मूर्ति थी वह मेरी माँ थी, मूर्ति नहीं । मैं और पास गया। वह मेरी माँ नहीं थी ।

मेरी माँ जैसी थी । लगा, जैसे वह रो रही हो ।

मैंने पूछा-

“आप कौन हैं ?”

“मैं पृथ्वी हूँ।” वह बोली

“आप रो रही हैं ?”

“हाँ, रो रही हूँ। मेरे बेटे सही राह से भटक रहे हैं । मुझे छोड़कर मशीन के पीछे पड़े हैं । ऐसे-ऐसे धुआँ और जहर फैला रहे हैं जिससे मेरा दम घुटने लगा है । ”

मुझे अनुभव हुआ जैसे वह ठीक कह रही हो । मुझे भी चक्कर-सा आने लगा। मेरी आँखें बंद हो गईं । इतने में वह कहीं चली गई । तभी मुझे प्यास लगी । नजदीक एक नदी बह रही थी। मन खुश हुआ । किनारे बैठकर एक चुल्लू पानी पिया । अरे, पानी में तेल का स्वाद लगा । मैं गौर से देखने लगा । उस पानी में छोटे-छोटे कीड़े तैर रहे थे । मुझे घबड़ाहट होने लगी । मैंने चारों तरफ नजरें दौड़ाई । गाँव में घर-मकान गायब हो गए थे । पेड़-पौधे जलकर खाक हो गए थे । मैं डरकर भागा । थोड़ी दूर ही गया होऊँगा कि मैंने चावल और गेहूँ के बड़े-बड़े ढेर रखे देखे । लोग अनाज के चारों ओर वैसे ही खड़े थे जैसे झुंड-के-झुंड पक्षी । मैं वहाँ पहुँचा और लोगों से पूछा कि यह चावल और गेहूँ कहाँ से आया ?

एक आदमी बोला, “चावल और गेहूँ कहाँ बनता है, यह नहीं मालूम ?”

“चावल और गेहूँ खेत में पैदा होते हैं !” मैंने कहा तो मेरी इस बात पर सब ठहाके लगाने लगे । वे बोले-“लगता है कि यह द्वापर युग का व्यक्ति है । अन्न फैक्टरी में बनता है या मिट्टी में ?”

इसी तरह मेहीं अपने सपने वाली बात बता रहे थे कि उनकी पत्नी बोल पड़ी-“धत्‌ तेरे की ! यह सब बेकार का सपना हुआ। बेसिर पैर का सपना ।”

“सुनना है तो सुनो । जो देखा है वही कह रहा हूँ ।” मेहीं को पत्नी का बीच में टोकना अच्छा नहीं लगा । पत्नी चुप हो गई । वह फिर से सपने के बारे में बताने लगे-

उसके बाद मैंने देखा कि शहर से धुएँ की एक बाढ़-सी चली आ रही है । ऐसा लगा, जैसे पृथ्वी उस धुएँ से भर जाएगी । मैं घबड़ाकर भागा ।

दम घुट रहा था । गर्मी से बचने के लिए जैसे पंखा लगा होता है, वैसे ही वहाँ धुएँ से बचने के लिए मशीन लगी थी । फिर मैं आगे बढ़ा । एक जगह बहुत बड़ी भीड़ दिखाई दी । उस भीड़ में बहुत-से डॉक्टरों को इधर-से-उधर भागते देखा । रोगी कई कतारों में पड़े थे । डॉक्टर रोगियों की बारी-बारी से जाँच कर रहे थे । थोड़ा और पास पहुँचकर देखा तो मेरी समझ में आया कि डॉक्टर रोगियों के रोग पहचान रहे हैं, दवा दे रहे हैं, पर दवाओं का किसी रोगी पर असर नहीं पड़ रहा था । अंत में डॉक्टरों ने कहा कि अगर रोगियों के मुँह में खेतों में पैदा हुए अनाज के दाने दिए जाएँ तो दवा असर करेगी और रोगी बच सकते हैं ।

लोग पीछे घूम-घूमकर मेरी तरफ देखने लगे। वे सब कहने लगे-

“यह आदमी शहरी जैसा नहीं लगता है, तब यह गाँव का होगा । यह प्रायः गाँव का अंतिम आदमी है, जो बचा है । यह खेत का उगा अन्न दे सकता है ।” मैं चिंता में पड़ गया कि मैं इन्हें कहाँ से अनाज दूँगा । मैं याद करने लगा कि गाँव कहाँ है । मुझे लग रहा था कि मैं गाँव से दूर कहीं खो गया हूँ । मेरी विचित्र स्थिति हो गई । मैं वहाँ से भागा ।

“मैं वहाँ से भागा । सभी मेरे पीछे भागे । मेरे-उनके बीच में थोड़ी ही दूरी रह गई थी । मुझे लगा कि अब मैं पकड़ लिया जाऊँगा...बाप रे... मुझसे तो उस समय भागा नहीं जा रहा था । मैं बुरी तरह घबड़ा गया । एक बार तो बहुत-से लोगों ने मुझे पकड़ लिया और जैसे पके हुए आम की डालियों को झकझोरते हैं, वैसे ही मुझे जोर-जोर से हिलाने लगे । मैं चिल्लाने लगा । काफी कोशिश के बाद नींद टूटी तो देखा कि तुम उठा रही हो ।”

“धुर! ऐसे ही अनाप-शनाप सपने ।” मेहीं की पत्नी को हँसी आ गई । उसका चित्त शांत और स्थिर हुआ । वह निश्चित हो गई कि कोई बुरा सपना नहीं देखा । वह पति से बोली, “ऐसे ही अंट-शंट सोचते रहते हैं, इसीलिए ऊटपटाँग सपना देखते रहते हैं । मन शांत कीजिए ।

इतना मतलब लगाकर कहीं कोई सोचता है ।”

पर मेहीं जान-बूझकर तो सोचते नहीं । उन्हें सोचना पड़ता है । ऐसी बातें उनके मन में अनायास आ जाती है, तो सोचने लगते हैं । रोज अखबार पढ़ते हैं । पढ़े-लिखे लोगों के साथ रहते हुए बह॒त-सी बातें समझते हैं और उन्हीं सबके बारे में सोचने लगते हैं ।

सपने वाली बात सुनाकर वह चुप हो गए थे । पत्नी उठकर दूसरे काम से चली गई थी । मेहीं बहुत देर तक गुमसुम बैठे रहे । फिर उठे और बाहर आ गए ।

बेटा चला गया। मेहीं अकेले हो गए, फिर भी हिम्मत नहीं हारी । अन्य अवसरों पर उनकी पत्नी घर-गृहस्थी के काम सँभालती थी, मगर इस बार उसके कामों में हाथ बटाने में वह पीछे नहीं रहते हैं । मेहीं काम में लगे रहते हैं, पर बेटे के प्रति जो गुस्सा था, वह अब भी शांत नहीं हुआ था । अब इतना ही नहीं कि बेटे पर गुस्सा है, उस रात का सपना हमेशा उनके मन का पीछा करता रहता है । बार-बार पूरे खेत को निहारते रहते हैं । खेत की तरफ देखते हुए उसका मन उदास हो जाता है ।

खेत में रोपनी तो जरूर हो रही थी, पर ऐसी रोपनी मन को खुशी नहीं दे रही थी । आज तो खेत में रौनक होती, पर अब गाँव में ऐसा माहौल बनाने वाले उत्साही लोग दिखाई नहीं देते । वह उदास हो जाता है और अपने सपने से डर जाता है और कभी धरती की ओर एकदम देखता रहता है । उसको प्रतीत होता है कि पृथ्वी उस सपने वाली स्त्री के रूप में सामने आएँगी और कहेंगी-

“तुम अपने बेटे को भी मुझसे जोड़कर कहाँ रख पाए ?” मेहीं भीतर-ही-भीतर अशांत हो जाता है ।

एक दिन की बात है, मेहीं रोपनी में थे, पत्नी भी साथ थी । समय कुछ ठंढ़ा-सा था । आकाश में छितराए-से मेघखंड थे । मंद-मंद हवा बह रही थी । खेत में पानी नहीं था पर मिट॒टी काफी गीली थी । इस खेत के उस तरफ के खेत में झुंड-के-झुंड पक्षी उसमें अपना भोजन दूँढ़ रहे थे । चिड़ियों के चुन-चुन कलरव से चारों तरफ एक संगीतमय वातावरण बन रहा था।

कभी-कभी मेहीं का सिर बरबस पक्षियों की तरफ उठ जाता था । एक बार उसने देखा कि एक मैना दूसरे मैना के चोंच में अपने चोंच से दाना डाल उसे खिला रहा था ।

वह खुशी से कुछ देर तक उस तरफ देखता रहा। उसे बेटे की याद आई । वह सोचने लगा कि उस दिन व्यर्थ ही उस पर गुस्सा किया । अगर अपनी बात उसे प्यार से कहता तो शायद वह मान भी जाता । बेचारा भूखे ही चला गया ।

बेटे के प्रति उसके मन में एक कचोट-सा उठा, उसका मन भींग गया । पहले भी पूछा था पर पत्नी ने नहीं बताया था । आज उसने फिर पूछा, “उस दिन सुबोध भूखा ही चला गया न ?”

पत्नी उसकी ओर देखकर मुस्करा दी और बोली- “आप तो क्रोध में होश खो बैठते हैं । आपके डर से मैं झूठ बोलती हूँ । उस दिन सबेरे उठकर खाना बनाया । आप जब सोकर उठे और खेत गए तो उसने खाना खाया । मैंने चेन बनाने के लिए जो पैसे बचाकर रखे थे, वही तीन सौ रुपये उसे दे दिए ।” मेहीं को लगा जैसे इस बार की मंद बयार ने उसके रोम-रोम को पुलका दिया । उसने पत्नी की तरफ देखा । मन में ममता की लहर उठी । उसके मन में आया कि पत्नी को पकड़कर कलेजे से लगा लें ।

फिर तो उसके मन में उठी अद्भुत स्फूर्ति ने उसकी रोपनी की गति बढ़ा दी । कब बीज लेता और कब मिट्टी में दबाता पता ही नहीं चलता । वैसे पहले भी उसकी रोपनी बहुत अच्छी होती थी, पर उन दिनों की बात कुछ और थी । लेकिन उसने कितना भी अपना मन रोपनी में रमाया हो, मन सोचना थोड़े ही बंद करता है । पलटकर उसने पत्नी की ओर देखा । उसने सोचा, वास्तव में माँ की तरह माँ ही हो सकती है । माँ और पृथ्वी एक समान है । धरती अपनी कोख से जन्मे बीज को हमेशा सँभालकर रखती है । सोचते-सोचते मेहीं के मन में आया कि माँ का स्नेह, दुलार उसे बाहर नहीं रहने देगा । वह गाँव जरूर लौटेगा ।

काश उसका मन उछल पड़ा हो । वह सोचने लगे कि ऐसे ही एक दिन वह दोनों व्यक्ति रोपनी कर रहे होंगे, तभी कोई बोलता हुआ आएगा- सुबोध घर आया है । ऐसा संदेश लाने वाला यह भी कहेगा, 'उसे काम

अच्छा मिला हुआ था, पर गाँव से जाते समय माँ का उदास चेहरा देखा था ।

उस उदास चेहरे ने उसे शहर में चैन से रहने नहीं दिया । वह खेत की तरफ ही चला आ रहा है । उसे इतनी बेचैनी मची है कि कब वह माँ का मुँह देखेगा ।

मेहीं कल्पना करते-करते मानो कल्पना से साक्षात्कार करने लगे । मन में तूफान की तरह उठ रही बात होंठों पर आ ही गई-“ओह, आ गया । जो माँ का उदास मुँह देखकर घर लौट सकता है, वह पृथ्वी को भी उदास नहीं छोड़ सकता ।”

मेहीं के साथ ही उसकी पत्नी भी धान रोप रही थी । वह आवाज सुनकर चौंक उठी । थोड़ी देर पति की तरफ देखा और पूछा-

“क्या बड़बड़ा रहे हैं ?”

“बौआ। बौआ आया है !” मेहीं पत्नी की तरफ घूमकर बोले ।

“कहाँ आया है बौआ ?” वह इस बार और विस्मित हो उठी ।

“नहीं आया है, तो आएगा ।” बोलते हुए मेहीं फिर रोपनी में लग गए ।