गुण-कथा

कहानीकार - शिवशंकर श्रीनिवास “जमुनिया धार'

जयपुर में अंजनी देवी अपने बेटे के जिस मकान में रहती थीं, वहाँ से लगभग दो किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में मजदूरों की बस्ती थी ।

वहाँ कई कंपनियों ने अपने मजदूरों के लिए घर बनाए थे ।

वहाँ परिसर में कितनी ही कंपनियाँ थीं, इसलिए उस मोहल्ले का नाम मजदूर कॉलोनी था ।

अंजनी देवी दो साल से उसी कॉलोनी में आती-जाती रही हैं । उनका बेटा श्यामानंद चौधरी या बहू मेनिका चौधरी यह बात नहीं जानते हैं ।

उनके मजदूर कॉलोनी में आने-जाने की बात बेटा-बहू भले न जानते हों पर उनके दरबान, रसोइया और अन्य कई लोग, जिनके घर उधर मजदूर कॉलोनी की तरफ थे, जानते थे ।

अंजनी देवी उन लोगों के लिए “बड़ी माँ' थीं ।

सत्तर वर्षीया अंजनी देवी के शरीर में अभी भी शक्ति और उत्साह था । वे अपनी जिंदगी बेटे के कमरे में घुट-घुटकर बरबाद नहीं कर सकती थीं ।

जबसे वे बेटे के साथ जयपुर के वसंत कॉलोनी में आई, तबसे एक महीने तक बेटे के मकान की दूसरी मंजिल पर पूर्ण सुविधायुक्त कमरों में रहते हुए भी लोगों के बिना बेचैन रहती थीं ।

उस व्याकुलता से मुक्ति के लिए उन्होंने जो रास्ता चुना, वह रास्ता उन्हें मजदूर कॉलोनी तक लाया ।

अपनी माँ के मजदूर कॉलोनी आने-जाने की बात बेटे-बहू को दो साल बाद पता चली । वह भी सबसे पहले बहू मेनिका चौधरी को ।

मेनिका महिला एसोसिएशन की अध्यक्षा हैं । जयपुर में ऐसे कितने ही एसोसिएशन हैं पर जिसकी अध्यक्षा मेनिका हैं, वह उच्च आभिजात्य वर्ग का है । उस एसोसिएशन की एक सदस्या, जो उनकी प्रतिद्वंद्वी हैं, उनका नाम गीता भटनागर है ।

उन्होंने मेनिका जी से कहा-

“मेनिका जी, आपकी सास तो बहुत बड़ी समाज सेविका हैं!”

“मतलब ?”

बूढ़ीं औरतों के काम ही ऐसे होते हैं जिसे हम-आप नहीं समझ सकतीं ।”

“मिसेज भटनागर, आप क्‍या बोल रही हैं ? आप मेरे घर आकर देखिए, मैंने अपनी सास को कैसे रखा है । एक सुखी सास को जितनी सुविधा चाहिए, उन्हें वे सारी सुविधाएँ मिल रही हैं । मैं दूसरों की तरह नहीं हूँ । मैं देखती हूँ कि किसी की सास अहमदाबाद में रहती हैं तो किसी की दिल्ली में पर मेरी सास मेरे पास हैं ।”

गीता भटनागर समझ गई कि मेनिका ने उन्हीं पर आक्षेप किया है क्योंकि उनके सास-ससुर दिल्ली में रहते हैं । गीता बहुत चालाक थीं । वह आक्षेप का उत्तर देना जानती थीं ।

उन्होंने अपने स्वर को और भी कोमल और मधुर, मगर जलेबी की तरह घुमावदार बनाते हुए कहा-

“हाँ मेनिका जी, आप भारतीय संस्कृति को बहुत महत्व देती हैं । और फिर आप विदेहराज जनक के मिथिला की बेटी हैं, इसलिए कहती हूँ कि आप भी यह पेंटिंग देखिए । यह मिथिला की पेंटिंग हैं ।”

“हाँ, है ।”

“जहाँ तक मुझे जानकारी है, मिथिला पेंटिंग बनाना आपको नहीं आता है पर राजस्थान की एक बेटी ने यह पेंटिंग बनाई है । उसका पिता सुलेमान हमारे आयरन मिल में फिटर है । उसने मेरे पति को यह मिथिला पेंटिंग दी । मैंने देखा तो उस लड़की को बुलाया । मैंने अपने कई कमरों में उसी से पेंटिंग बनवाई । उसे बहुत पैसे दिए ।

उस लड़की की गुरु अंजनी देवी एम.सी. रियल स्टेट के मैनेजिंग डायरेक्टर शयामानन्द चौधरी की माँ हैं, यानी कि आपकी सास ।”

गीता की बात सुनकर मेनिका को बहुत आश्चर्य हुआ, पर उन्होंने क्रोध को थैर्य से संतुलित करते हुए पूछा, “आपको कैसे पता चला ?”

“मुझे उसी लड़की, जिसका नाम जुबेदा है, ने बताया । उसको आपकी मैथिली भाषा भी आती है । आप देखिएगा कि हर पेंटिंग में कुछ ऐसा है, जिससे पेंटिंग की कलात्मकता झलकती है ।

उसी पेंटिंग में नीचे मैथिली लिपि में पेंटिंग का नाम लिखा रहता है । यह पेंटिंग देखिए । इसमें लिखा है-'जीवन में खिला है कमल । यह आपकी भाषा है न !”

“हाँ, है तो ।”

“इतना ही नहीं, आपकी सास ने दो साल में सबसे ज्यादा महिलाओं को साक्षर बनाया है । अब तो उनकी पढ़ाई हुई महिलाएँ दूसरी महिलाओं को पढ़ाती हैं । उन्होंने किशोरियों-युवतियों को मिथिला-पेंटिंग सिखाया है । अब तो उस कॉलोनी में कोई भी बीमार पड़ता है तो वह अंजनी देवी की ओर ही आशा भरी दृष्टि से देखता है ।

वे बाल-बच्चों की ही नहीं, वृद्ध-वृद्धाओं की भी “बड़ी माँ” हैं । कई बार ऐसा भी समय आया है जब वे रोगियों की सेवा में तीन-तीन दिनों तक कॉलोनी में ही रह जाती हैं ।”

गीता भटनागर की बातें सुनकर मेनिका चौधरी के कलेजे में आग लग गई। वे घर आईं । उन्होंने सबसे पहले दरबान से पूछा तो उसने बहुत खुश होकर कहा -“बड़ी माँ अभी आई हैं ।”

दरबान के मुँह से “बड़ी माँ' सुनकर उनके हृदय की ज्वाला और धधक उठी । उन्हें याद आया कि यह दरबान भी तो उसी मजदूर कॉलोनी का रहने वाला है । उसे सब कुछ पता होगा ।

उन्होंने भी गीता भटनागर की तरह अपने स्वर को मधुर बनाते हुए सास के बारे में पूछा तो उस दरबान ने बहुत निश्छलता से “बड़ी माँ” की दिनचर्या की गुण-कथा कह डाली ।

उसके बाद खाना बनाने वाली, झाड़ू-पोंछा करने वाली और अन्य लोगों से पूछा । बड़ी माँ के बारे में सब जानते थे ।

मेनिका चौधरी को सबकी बातचीत से “बड़ी माँ' के प्रति आदर के भाव का अनुभव हुआ । अपनी सास के बारे में जितना इन नीचे तबके वालों से जानकारी मिली, उस हिसाब से तो गीता की बताई बातें बहुत कम थीं । मेनिका के मन में यह

जानने की जिज्ञासा तीव्र हो गई कि आखिर उनकी सास का व्यक्तित्व कैसा है ? वे इतनी सुख-सुविधाएँ छोड़कर झुग्गी-झोपड़ी में कैसे रह पाती हैं ?

उसे अपनी सास पर बहुत क्षोभ हुआ-“नाली का कीड़ा चंदन के घर में कैसे रह सकता है ? ऐसी सोच के बवंडर में चक्कर काटती मेनिका पति के आने की प्रतीक्षा करने लगी ।

श्यामानन्द चौधरी शाम को कार्यालय से लौटे । पत्नी से सारी बातें जानकर बहुत खिन्न हुए । माँ पर उन्हें प्रचंड क्रोध आया । पर उन्होंने अपने क्रोध को दबा लिया क्‍योंकि वे अपनी माँ के स्वभाव को जानते थे । उनकी माँ किसी बात को सरलता से नहीं मानती थीं । वे तर्क-वितर्क करती थीं । विवाद बढ़ सकता था। उन्होंने पत्ती को समझाया कि अभी चुप रहे ।

मेनिका भी चुप नहीं रहती, पर बेटे के कारण चुप हो गई । उनका बेटा केशव चौधरी बगल वाले कमरे में था । केशव अमेरिका से एम.बी.ए. करके आया था । उसके द्वारा लिखी गई अर्थशास्त्र की पुस्तक को अमेरिका में बहुत महत्वपूर्ण माना गया था ।

उन दिनों वह भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय में किसी पद पर आया था ।

जयपुर के कुछ बड़े व्यापारियों ने उससे मिलने का समय लिया था । वे लोग आठ बजे आने वाले थे । ऐसी परिस्थिति में कोई तमाशा खड़ा करना ठीक नहीं था । मेनिका ने पति की बात मान ली और चुप हो गई पर दोनों मन-ही-मन उबलते रहे ।

अंजनी देवी के मजदूर कॉलोनी पहुँचने की भी एक कथा है ।

अंजनी देवी की कहानी यह है कि वे अपने पति के साथ कोलकाता रहती थीं । उनके पति भोलानाथ चौधरी ट्राम चलाते थे । वहाँ से रिटायर होने के बाद वे वहीं बस गए थे । इसके दो कारण थे ।

पहला-उन्होंने वहाँ एक बंगाली से मकान खरीद लिया था । दूसरा कारण यह था कि उनके पिता वहाँ एक मंदिर में पुजारी थे । उनकी मृत्यु के बाद वे नौकरी में रहते हुए भी मंदिर सँभालते थे । उन दिनों वे अधिकांश समय मंदिर पर ही रहते थे । मंदिर से उन्हें अच्छी आमदनी थी ।

उनके दो बेटे थे-श्याम और बलराम श्यामानंद को उन्होंने अपने साथ रखा था और छोटे बेटे बलराम को उनके बड़े भाई जागेश्वर चौधरी अपने साथ ले गए ।

बड़े भाई निःसंतान थे, इसलिए उन्होंने भाई के छोटे बेटे को माँग लिया था । भोलानाथ ने जब अपनी पत्नी अंजनी देवी से बलराम को रखने के बारे में पूछा तो उन्होंने जेठ-जेठानी का दुःख महसूस किया और हामी भर दी, लेकिन आज वे अपनी उस सहमति के लिए पछता रही हैं ।

श्याम मैट्रिक पास हैं, पर बलराम मैट्रिक भी नहीं कर पाए। ताऊ-ताई के अथाह प्यार ने उन्हें बिगाड़ दिया । उन्हीं के दुलार से वे ललबबुआ बने रहे । कोई चिंता नहीं, किसी जिम्मेदारी का एहसास नहीं । ताऊ-ताई ने मरने से पहले बहुत संपत्ति दी पर उन्होंने सब उड़ा दिया । कुछ भी सँभालकर न रख सके ।

बाद में पिता ने उनसे कोलकाता आने और मंदिर सँभालने के लिए कहा । पिता की सोच थी कि अगर वह मंदिर पर रह जाएगा तो स्वभाव में सुधार होगा और अगर व्यवहार अच्छा रहा तो रोटी-पानी लायक गुजर-बसर कर लेगा, पर बलराम ने उनकी एक न सुनी ।

उसका एक ही बेटा था। उसको अंजनी देवी ने अपने पास रखकर पढ़ाया-लिखाया । वह इंजीनियर बना । आजकल वह दुबई में है । वह कभी अपने पिता के लिए कुछ भेजता है, उसी से बलराम का खर्चा-पानी चलता है ।

अंजनी देवी का बड़ा बेटा इंजीनियर हो गया । आजकल वह एम.सी. रियल इस्टेट, जयपुर के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं । जयपुर में उनका अपना आलीशान मकान है । लोग कहते हैं कि आजकल ऐसा घर दो करोड़ से कम में नहीं मिलेगा । अंजनी देवी आज उसी घर की दूसरी मंजिल पर रहती हैं ।

वैसे अंजनी देवी पति की मृत्यु के बाद भी बहुत दिनों तक कोलकाता में थीं । बलराम बार-बार कोलकाता आता और उन पर दबाव डालता कि यहाँ का घर बेचकर गाँव चले । परंतु अंजनी देवी का मन इसके लिए तैयार नहीं था । पति की मृत्यु के बाद मंदिर तो छूट ही गया था । पर वहाँ तो अंजनी देवी का समाज बन गया था, जिसे छोड़ने में उन्हें मोह हो रहा था । घर का कुछ भाग किराए पर लगा था, जिससे खर्च लायक पैसे आ जाते थे ।

एक बार बलराम आया ।

उसने उन पर बहुत दबाब डाला । उसने इतना नाटकीय जाल फैलाया कि अंजनी देवी उस जाल में फँस गई । भावुक माँ पिघल गई । बड़े बेटे श्यामानन्द चौधरी को सूचना दी गई । मकान दस लाख में बिका। वास्तव में वह मकान दस लाख का नहीं था पर कीमत तो जगह की होती है-वह कैसी जगह पर है। घर बिक जाने के बाद बड़े बेटे ने पूछा, “माँ, इस पैसे का क्या करोगी ?”

माँ ने कहा, “दोनों भाई बाँट लो ।”

ऐसा ही हुआ ।

अंजनी देवी बलराम के साथ गाँव आ गई । उन्होंने यहीं गाँव में रहने का मन बनाया । वैसे श्याम ने अपने साथ चलने के लिए कहा था पर उन्होंने बलराम के साथ रहने का मन बनाया ।

अंजनी देवी छोटे बेटे के साथ गाँव तो आ गई, पर उसके रंग-ढंग देखकर उन्हें चिंता होने लगी। उसे नेतागिरी का चस्का पड़ गया । वह सारे दिन इधर-उधर घूमता रहता था । उन्होंने बेटे के इस लत को छुड़ाने की बहुत कोशिश की पर सफल नहीं हुई ।

बहू की दिनचर्या और सोच-विचार अलग तरह का था । उसे इस बात की जरा भी चिंता नहीं थी कि पैसे कहाँ से आते हैं । बस पूरे दिन पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, दान-दक्षिणा देने में मणगन रहती थी । बहू की यह दिनचर्या देख अंजनी देवी को लगता कि वह यह मानती है कि उसके पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा और ब्रत-उपवास के कारण ही उनका बेटा दुबई में इतना फल-फूल रहा है ।

उन्हें बहू की इस सोच पर हँसी आती ।

उन्हें याद आता कि बलराम का बेटा कोलकाता में उनके साथ रहते हुए पढ़ता था । उन दिनों वह उसके साथ रात-रात भर बैठी रहती थी और वह पढ़ता रहता था । अंजनी देवी क्या करती ?

वह भी अपनी रुचि व स्वभाव के अनुरूप उस काम में लग गईं जो वह कोलकाता में करती थीं । छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ाने, निरक्षरों को साक्षर बनाने में उनका बहुत मन लगता था । कोलकाता में मिथिला-क्षेत्र के न जाने कितने लोग थे, जिन्हें उन्होंने बुढ़ापे में अक्षर-ज्ञान सिखाया होगा ।

कोलकाता के कितने ही बंगाली परिवार उनकी इस सेवा के लिए उनका गुण गाते थे । गाँव में तो वह यह सेवा-कार्य करने के लिए मुसहरों और मल्लाहों की बस्ती में भी जाने लगीं ।

वे सब भी इनके घर आने लगे ।

छोटी बहू अम्बिका को ये बातें अच्छी नहीं लगती थीं । उसे सास के ये काम अच्छे नहीं लगते थे । वह इसे पूजा-पाठ में बाधा समझती थीं । उसने पति को कई बार इस काम के लिए झिड़का था ।

उसने पति से कहा -

“आप भी इन मुसहरों और मल्लाहों जैसे लोगों के साथ रहते हैं और आपकी माँ भी वैसी ही हैं । अगर आप माँ को यहाँ रखेंगे तो मैं यहाँ नहीं रहूँगी ।”

बलराम पत्नी की बातों से खिन्‍न हो जाता, क्योंकि वह अपनी जाति की प्रकृति के विपरीत जो राजनीतिक विचारधारा थी, उसमें रमा हुआ था ।

उस धारा में उसकी जाति के बहुत कम लोग होने के कारण उस राजनीतिक समूह में ढलराम का बहुत मान-सम्मान था । क्षेत्र के सांसद भी बैठकों में उसे खुशी से अपने पास बैठाते थे । ऐसे कामों के कारण बलराम अपनी माँ को मना करता । मना करता तो उसी की राजनीति पर बुरा असर पड़ता ।

गाँव के लोग अंजनी देवी की प्रशंसा करने लगे । प्रशंसा करने में ब्राहमण वर्ग सबसे आगे था । पहले ब्राह्मण छोटी जातियों के लोगों की शिक्षा से डरते थे, पर अब खुश होते हैं क्योंकि इन लोगों के शिक्षित होने से खुद को सुरक्षित समझते थे । बलराम ब्राह्मणों की खुशी से मन-ही-मन डर गया था । उसे इसमें अपनी राजनीतिक हानि दिखाई दे रही थी । उसने इस विषय पर पत्नी से बात की । पति-पत्नी ने मिलकर ऐसी चाल चली कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे ।

एक दिन बहू ने सास से कहा, “माँ, आपके बेटे की आमदनी खस्ताहाल है । आप यह बात जानती हैं ?”

“क्यों ? मैं तुमलोगों से ऐसा कुछ खर्च तो नहीं कराती हूँ ।” उन्हें बहू की इस बात पर आश्चर्य हो रहा था ।

“जो भी है, खर्च तो है ।”

“मैं क्या करूँ। मुझे कोई पेंशन तो मिलती नहीं ।” अंजनी देवी ने और भी विस्मय से बहू की ओर देखा ।

बहू चुप हो गई । बहू का मौन चेहरा उन्हें भीतर-ही-भीतर बेचैन कर गया । फिर भी वह धीरे-धीरे उस बेचैनी से मुक्ति पाने की कोशिश में लगी रहीं । इस बातचीत के कुछ दिन बाद जो घटित हुआ, उसने उनके मन को बहुत बेचैन कर दिया । बात यह हुई कि एक दिन अंजनी देवी कहीं खाना खा रही थीं । तभी बलराम न जाने किधर से आया और पूछा, “माताराम, खाना कैसा बना है ?”

“अच्छा है। तुम कहाँ गए थे ? मुझे भूख लगी थी तो मैंने बहू से कहा था कि मुझे खाना दे ।” बेटे ने खाना नहीं खाया है, यह अनुभव करते हुए लज्जा से बोली ।

“यह तो ठीक है, पर क्या आप जानती हैं कि खाना कहाँ से आता है ? ऐसे कैसे चलेगा। ?”

बेटे की बात मानो सनसनाकर तीर की तरह उनके हृदय में धँस गई ।

उन्होंने किसी तरह जवाब दिया -

"क्या कहना चाहते हो ?”

“मैं क्या कहूँ ? जिस बेटे को आपने हमेशा अपने साथ रखा, वह आज बड़े आदमी हैं । आप यह बात नहीं जानती हैं ?”

हाँ, मैं जानती हूँ, पर तुम्हारे बेटे को भी अपने पास ही रखा ।”

हाँ, वह तो आपने रखा। वह अपने परिवार के साथ दुबई में रहता है । उसी के पास जाइए ।”

बड़बड़ाते हुए बलराम घर से बाहर निकला । फिर तो उस समय अगला कौर खाने की सोचना फाँस-सा लगा । वह मन को कितना भी समझातीं, दबातीं, पर मन तैयार नहीं हुआ । अब खाने की इच्छा नहीं हो रही थी । वैसे चाहती तो बेटे को बहुत कुछ कह सकती थीं, अपना

अस्तित्व बेटे से भिन्‍न बता सकती थीं, मगर बेटे से कोई फसाद नहीं चाहती थीं । वह खाने पर से उठ गईं । एकदम एकांत में चली गईं ।

वह यह विचार करने लगीं कि यहीं रहकर अपने जीवन की व्यवस्था करें या बड़े बेटे के पास जाएँ ?

वह खुद को अपना जीवन-निर्वाह करने लायक सक्षम मानती थीं । उन्हें किसी का मुँह ताकने की जरूरत नहीं धी । फिर भी उन्होंने मन में तय किया कि बड़े बेटे के पास ही जाएँ । उन्होंने बड़े बेटे श्याम को फोन किया, “तुम जहाँ हो, जैसे भी हो, यहाँ आओ। मैं तुम्हारे पास आना चाहती हूँ ।”

श्याम गाँव आया और माँ को अपने साथ ले गया ।

वह जयपुर पहुँची तो बड़ी बहू मेनिका ने उनका इस तरह आदर-सत्कार किया कि वे गदगद हो गईं । उनके मन में एक बात यह भी आती कि क्या मेनिका हमेशा ऐसा ही व्यवहार कर सकेगी ?

इसका कारण यह था कि बड़ी बहू को जितना वह जानती थीं, उस हिसाब से उन्हें संदेह था । वह संदेह दस-बारह दिन के बाद ही सामने आने लगा। मेनिका के स्वर में कड़वाहट आने लगी । उन्हें बेटे के रंग-ढंग में भी बदलाव का एहसास होने लगा ।

एक दिन सबेरे-सबेरे मेनिका ने उनसे कहा, “माँ, आप नीचे रहती हैं न, वह आपको अच्छा नहीं लगता होगा ।”

क्यों ?

“आदमी के पास आदमी तो आएगा ही । अगर नहीं आएगा तो आदमी कैसे जीएगा ?”

“हाँ समझती हूँ । आप पुराने जमाने की पढ़ाई पढ़ी हैं । आप हर बात में सबको समाजशास्त्र पढ़ाने लगती हैं ।”

“मतलब ?”

मतलब-वतलब कुछ नहीं । आपके रहने के लिए दूसरी मंजिल पर व्यवस्था कर दी गई है । चलिए, देख लीजिए ।”

बेटे ने भी इस पर जोर दिया । वे क्‍या करतीं ? कठपुतली की तरह बेटे-बहू के साथ दूसरी मंजिल पर आईं । बहू कमरा खोलते हुए उन्हें भीतर लाई और बोली, “माँ, देखिए अपना कमरा ।”

उन्होंने कमरा देखा-एकदम सुसज्जित कमरा। रंगीन टीवी, रेडियो फोन, फ्रिज और सुंदर बिस्तर । दूसरी तरफ कुर्सी लगी हुई ।

दीवार में फिट अलमारी और उसमें किताबें करीने से लगी हुईं । साथ ही बाथरूम बेटे ने पूछा-“माँ, कमरा पसंद आया ?”

हाँ, पर मुझे कमरे से क्‍या ?

मैं तो तुमलोगों के पास आयी हूँ

हाँ, जरूर आई हैं, पर हमलोग व्यस्त रहते हैं ।

मैं कंपनी के काम में और आपकी बहू को सामाजिक कार्यों का जुनून रहता है ।

आप नीचे रहती हैं तो आपकी बहू को कई तरह की परेशानी होती है । आपके सामने किसी से खुलकर बात नहीं कर पाती और इसीलिए आपके लिए यही जगह अच्छी रहेगी ।” बेटा बोल गया ।

बेटे की बात से अंजनी देवी को लगा, जैसे किसी ने अचानक ही किसी चिड़िया को पकड़कर पिंजरे में ढूँस दिया हो ।...पर वह कुछ बोली नहीं । श्याम ने माँ की मनःस्थिति भाँप ली और माँ को सांत्वना देते हुए कहा, “आज संसार पता नहीं क्या बनता जा रहा है । युग बदल गया है ।

युवा वर्ग अपने बीच किसी बूढ़े व्यक्ति की मौजूदगी पसंद नहीं करता है । इसलिए ऊपर ही ठीक रहेगा ।” पति की बात को सँभालने के उद्देश्य से मेनिका बोली, “हमलोग नीचे रहेंगे । आपको जब किसी चीज की जरूरत होगी तो हम रहें न रहें, नौकर पहुँचा देगा ।”

हाँ, हाँ, इसमें कहने की क्‍या बात है ? तो ठीक है, माँ यहीं रहो और आनंद से रहो । जब जो इच्छा हो बताना । महाभारत, गीता, रामायण और अन्य ऐसी किताबें अलमारी में रख दिया है । इच्छा हो, पढ़ना, ठीक है । तो आराम करो ।” बोलते हुए दोनों व्यक्ति नीचे उतर गए ।

बेटा-बहू नीचे उतरे और अंजनी देवी उन्हें जाते हुए देखती रहीं । कुछ नहीं बोलीं । क्या बोलतीं ? उन दोनों ने बोलने के लिए कुछ छोड़ा ही कहाँ था !

इससे पहले अंजनी देवी श्याम के घर दो बार आई थीं । लेकिन उन दिनों पति साथ थे । श्याम ने यह मकान नहीं बनाया था । अंजनी देवी और भोला बाबू पहली बार दस दिन और दूसरी बार सिर्फ आठ दिन के लिए आए थे । श्याम को पिता से संकोच होता था, अतः कम बोलते थे । बहू भी कम बोलती थी ।

तिस पर उन दोनों मौकों पर थोड़े-थोड़े दिनों के लिए आए थे और इस बार वह हमेशा के लिए आई थीं । फिर भी उन्होंने पिछली दोनों बार बहू का चेहरा देख अनुभव किया था कि बहू को इन लोगों का आना अच्छा नहीं लग रहा था ।

अब स्थिति एकदम स्पष्ट थी कि सास-ससुर के रहने के कारण इन लोगों की आजादी में बाधा आ रही थी और उन्हें यह अच्छा नहीं लग रहा था । यही सब सोचते हुए अंजनी देवी पलंग पर बैठ गईं ।

ऊपर रहते हुए उन्हें लगभग एक महीना बीत गया था, पर अंजनी देवी को लग रहा था जैसे उन्हें एक साल से ज्यादा समय बीत गया हो । वह बार-बार यही सोच रही थीं कि वह यहाँ क्यों आई ? वैसे तो नौकर समय पर खाना दे जाया करता था, चाय दे जाता था। किसी चीज की कोई दिककत नहीं थी, पर बातचीत करने के लिए कोई नहीं था ।

बहू से या नौकर-चाकर से बात करने के लिए नीचे उतरती थीं तो बहू ऐसे अकचकाकर पूछती, “क्या लेंगी ?” “क्या हुआ ?” कि वह अकबकाकर लौट जातीं । वह अब बहू से क्या बोलती कि उन्हें लोगों की कमी अखर रही है, वस्तु की नहीं । उनकी बात कौन समझेगा ?

अगर बेटा-बहू यह बात समझते तो उनके रहने की व्यवस्था ऊपर क्यों करते ? ऐसे में अंजनी देवी को अब नीचे उतरने में डर लगता और वे नीचे नहीं उतरतीं । पर वह अकेले मे, लोगों से कटकर व्याकुल हो उठतीं ।

वह सोचती, यह तो उनके लिए जेल हो गया। अकेले कोई किताब पढ़तीं, टीवी देखतीं, पर उनका मन नहीं लगा । कोई प्यासी गाय खूँटे पर बाँध देने पर जैसे बेचैनी से खूँटे के इर्द-गिर्द चक्कर काटती है, वैसे ही लोगों से संपर्क कट जाने पर वह भी उस घर में बेचैन-सी चक्कर काटती रहती थीं ।

एक दिन अंजनी देवी भोजन के बाद नीचे उतरी । पीछे की तरफ एक वपैसेज” से होकर मकान से बाहर जाने का रास्ता बना था । वह उस पैसेज के रास्ते बाहर आईं और घूमकर गेट के बाहर आ गईं । दरबान ने झुककर प्रणाम किया । उन्होंने इशारे से आशीर्वाद दिया और रास्ते पर आ गई । एक बार मकान को ध्यान से देखा, ताकि वापस लौटते समय भटककर कहीं और न चली जाए ।

फिर रास्ते को ध्यान से जेहन में बैठाते हुए आगे चल पड़ीं । बहुत दूर आने के बाद उन्होंने देखा कि सुनसान इलाका है और जब उन्होंने वह सुनसान इलाका पार किया तो देखा कि वहाँ से छोटे-छोटे घर शुरू हो गए हैं ।

वहाँ उन्होंने देखा कि दो स्त्रियाँ मैथिली में बात कर रही थीं । ओह! अंजनी देवी को तो जैसे अपने लोग मिल गए । उनकी मनःस्थिति वैसी हुई जैसे किसी मृत देह में जान आ गई हो । वहाँ खड़ी हुई जैसे पानी की दो धाराएँ जब एक जगह होती हैं, वैसे ही वह उन दोनों स्त्रियों के साथ मिल गई । दोनों स्त्रियों में एक मंदिरी गाँव की थी । यह गाँव दरभंगा जिला में है । दूसरी का घर मधुबनी के पचही में था और अंजनी देवी का गाँव खौराठ था । वे दोनों स्त्रियों के साथ कॉलोनी में आई ।

उन्होंने कॉलोनी में काफी समय गुजारा । फिर अपने घर वापस लौटीं । कॉलोनी धीरे-धीरे उनकी होती चली गई । वहाँ जितनी भी कॉलोनी थीं, उनमें बाल-बच्चों से लेकर वृद्ध तक की वह 'बड़ी माँ” हो गई ।

उस कॉलोनी में भारत के विभिन्‍न प्रांतों के लोग थे, पर सभी अंजनी देवी की संतान जैसे हो गए । उस कॉलोनी में कोई बच्चा पढ़ता तो उनकी चिंता, किसी की शादी होती तो लोग इन्हीं से राय माँगते। कोई बीमार पड़ता तो उसके ठीक होने तक उसकी सेवा में अंजनी देवी अपनी जान लगा देती । ऐसे हालात में वह कई-कई दिनों के बाद घर लौटतीं । और इससे भी अधिक उनकी अपनी रुचि निरक्षरों को साक्षर करने में थी ।

वहाँ भी वे अक्षर-ज्ञान देने लगीं । स्कूल जाते छात्र-छात्राओं को भी पढ़ाती थीं । विशेष रूप से रविवार को । छुटूटी के दिन । किशोरियों और युवतियों को मिथिला पेंटिंग सिखाती थीं ।

वह इस तरह सिखाती थीं कि एक अगर सीख लेती तो वह दूसरी की गुरु हो जाती थी । बाद में तो अंजनी देवी सिर्फ देख-रेख करने लगीं । इस तरह यह बात एक कॉलोनी से दूसरी कॉलोनी गई और वहाँ उस कॉलोनी में जो भी थे अंजनी देवी सबकी “बड़ी माँ' हो गई

अब सुनिए यह कथा, अर्थात मेनिका और श्यामानन्द चौधरी की कथा ।

सबेरा हुआ । अंजनी देवी को बुलाया गया ।

श्याम ने पूछा, “माँ, मैं यह क्‍या सुन रहा हूँ ?”

“क्या ?”

“यही कि आप दो-दो दिन मजदूरों की कॉलोनी में रह जाती हैं ।”

“ठीक है ।”

“आप इसे ठीक बात कहती हैं ?”

“तो इसमें बुराई क्‍या है ?”

“वहाँ आप क्या लेने गई थीं ?”

“मैं वहाँ जीवन जीने गई थी। यहाँ मैं लोगों के बिना मर जाती ।”

क्यों, क्‍या यहाँ लोग नहीं हैं ?”

“मेरे लिए नहीं है । कंवल अच्छे भोजन और अच्छी सुविधा से ही आदमी जिंदा नहीं रह सकता । मनुष्य को मनुष्य चाहिए ।”

माँ की बात एकलरगी श्यामानन्द को सनसनाकर चुभी । वह इतने क्रोध में आ गए कि ज्यादा बोल नहीं पाए । बस वे इतना भर बोल पाए, “सच, जीवन में मुझसे बहुत बड़ी गलती हुई कि मैं आपको यहाँ ले आया ।”

उनकी पत्नी मेनिका ने आग में घी डाला, “मैं तो पहले ही कहती थी गाँव में ही कोई इंतजाम कर दीजिए । ये यहाँ आने लायक नहीं हैं । एम. सी. रियल स्टेट के मैनेजिंग डायरेक्टर की माँ स्‍लम एरिया में दो-दो दिन रह जाए। जो सुनता है, वह हँसता है ।”

बहू की बात पर अंजनी देवी को गुस्सा नहीं आया ।

वह हँसी और बोली, “हाँ बहू, जो तुम्हारी तरह सोचेगा, वह जरूर हँसेगा । ठीक हैं, अब मैं यहाँ नहीं रहूँगी । में यहाँ से जा रही हूँ । तुम्हें यही फिक्र है न कि तुम्हारी प्रतिष्ठा पर कोई आँच न आए, यही सही ।”

यह कहकर अंजनी देवी उस कमरे से निकल पड़ी उस कमरे के लिए, जिसमें वह रहती थीं ।

तभी थोड़ी देर बाद बगल से श्यामानन्द का बेटा केशव बाहर निकला और बाप से पूछा, “दादी-माँ कहाँ गई ?”

“केशव, उन्हें जाने दो ।”

“पापा, कैसे जाने दूँ ? मैं खुद उनके साथ मजदूर कॉलोनी में रहा हैं । पापा, इतने बड़े व्यापारी होकर भी आपने दादी-माँ को नहीं पहचाना ?”

“मतलब ?”

“मैं आपके गाँव गया, कोलकाता गया । जयपुर में मजदूर कॉलोनी गया । मैंने इन पर एक आलेख लिखा, जो अमेरिका में बहुत लोकप्रिय हुआ । वह आलेख इनके फोटो के साथ भारत के बहुत-से अखबारों ने प्रकाशित किया है ।

मुझे इस बात के लिए सम्मान मिल रहा है कि मैं इस महान महिला का पोता हूँ । पापा, अभी सब कुछ बिकता है । आप इनके बेटे हैं, इससे आपकी कंपनी का मार्केट बढ़ जाएगा । बस, आपको इस दिशा में थोड़ा काम करना है ।

आप अभी तक बाजारवाद का प्रायः पूरान्पूरा अर्थ समझ नहीं पाए हैं ।” कहते हुए केशव चौधरी मुस्करा रहे थे ।

दोनों बाप-बेटा बातें कर रहे थे, तभी उन्होंने देखा कि अंजनी देवी अपना सामान लेकर उतर रही थीं ।