आदमी आदमी है, परिंदा नहीं

कहानीकार - शिवशंकर श्रीनिवास “जमुनिया धार'

वामदेव की बहुत-सी बातें लोगों को हैरत में डालती थीं ।

उसका काम, भोजन और अन्य कई बातें लोगों को असाधारण लगती थीं ।

उससे अपरिचित लोग जब उसे कुछ करते देखते या सुनते तो उन्हें लगता था कि वह किसी दूसरे ग्रह का प्राणी है ।

गाँव के बुजुर्ग उसे ऐसा नहीं समझते थे । उनका मानना था कि वह जवान है और जवानी में लोग ऐसे ही रहते हैं, लेकिन यह तो सभी मानते थे कि वह बलिष्ठ शरीर का स्वामी था और मन से भी सजग व सचेत था । आलसी तो कतई नहीं था ।

और वामदेव की चर्चा गाँव में इसी रूप में यदा-कदा होती रहती थी, किंतु मैं जिन दिनों की यह कहानी कह रहा हूँ, उन दिनों उसकी चर्चा कुछ ज्यादा ही हो रही थी ।

बात यह थी कि इंद्रनाथ ठाकुर गाँव आए थे । उन्हें ऐसे लोगों की जरूरत थी जो खेती-बाड़ी के काम में पारंगत हों । वैसे तो गाँव में ऐसे लोग ही रहते हैं जो कृषि-कार्य पूरी तन्मयता और कुशलता से करते हैं, मन से जुड़े रहते हैं, पर ऐसे लोग भी अब इस तरह रहने लगे हैं कि सबको खेती से जुड़ा नहीं मान सकते । इंद्रनाथ को कृषि-कर्म में तन्मयता से जुड़े लोगों की आवश्यकता थी ।

उनका खयाल था कि इन दिनों गाँव की ऐसी स्थिति है कि अगर वे चाहें तो गाँव को ही हॉँककर शहर ले जाना असंभव नहीं है ।

इसीलिए अभी लोग खेती-बाड़ी से जितना भी जुड़े हों पर उनकी एक पुकार पर जरूर साथ चल पड़ेंगे ।

इंद्रनाथ शहर में रहते थे। कभी-कभार गाँव आ जाते थे ।

उनके गाँव आने से वहाँ का वातावरण अलग तरह का हो जाता था ।

लोग इन्हें घेरे रहते थे। इनके निकटतम जाना चाहते थे ।

इतनी निकटता पाने का कारण था-इंद्रनाथ का कइयों को नौकरी देना, कइयों को नौकरी का आश्वासन देना । बहुत-से लोगों को उनसे आशा थी ।

इंद्रनाथ गाँव की दशा देखकर मन-ही-मन प्रसन्‍न होते थे । वे सोचते थे कि गाँव में भूख का खौफ है । ऐसी स्थिति में कोई केवल गाँव के सहारे ही कैसे रह सकता है!

मन में यह बात आते ही उन्हें अपना बचपन याद आ जाता ।

उनको उन दिनों की अपने घर की दरिद्रता याद आती, लोगों की उपेक्षा याद आती और उनका मन अतीत की गहराइयों में उतर जाता । उनका मन गाँव के प्रति आक्रोश से भर उठता । उनके पिता का नाम महेश ठाकुर था । इंद्रनाथ चार भाई थे, जिनमें वे सबसे बड़े थे ।

उनका बाल्यकाल से किशोरावस्था तक का समय गाँव में ही बीता था । पिता बेहद गरीब थे । उनके परिवार में किसी ने खेती नहीं की थी, क्योंकि उनके पास जमीन ही नहीं थी । इतना ही नहीं, पूरे परिवार में किसी को अक्षर-ज्ञान नहीं था ।

बाबा पशुओं की देखभाल और सेवा करते थे । इस कारण दो-चार भैंसें पल जाती थीं और उनका दूध बेचकर गुजर-बसर होता था । गाँववालों ने इनके परिवार का नाम 'घसकटूटा” रख दिया था ।

इंद्रनाथ को सब याद है-

एक दिन वे दूध पहुँचाने सुखदेव झा के घर गए थे । वही सुखदेव झा, जिसका पौत्र कुबेर झा उनके दरबार का महत्वपूर्ण सदस्य है, गाँव का उनका खास मुँहलगा, जिसके चेहरे पर वे हमेशा सुखदेव झा की छाया देख प्रफुल्लित होते रहते थे ।

हाँ, तो उसी सुखदेव झा के घर एक दिन इंद्रनाथ दूध पहुँचाने गए थे । उस समय सुखदेव झा के बैठक में कोई नहीं था ।

वह दूध का बर्तन रखकर एक चौकी, जिस पर कंबल-चादर बिछा था पर बैठ गए ।

अभी वह बैठे ही होंगे कि न जाने किधर से सुखदेव झा आ गए और उनकी

जो फजीहत की, मत पूछिए ।

उनको पकड़कर चौकी पर से ऐसे उतारा कि उन्हें लगा जैसे बाँह टूट गई । आँखें डबडबा गईं ।

उनके जी में आया था कि दूध का बर्तन उठाकर बिना दूध दिए वापस चले जाएँ, पर ऐसा न कर सके। सुखदेव झा ने तब तक दूध का बर्तन अंदर भेज दिया था । वह एक तरह से रोते हुए घर लौटे थे ।

आते ही उन्होंने पिता को बताया तो पिता ने उल्टे उन्हीं को डॉट दिया पर माँ ने नहीं डॉँटा । उल्टे माँ ने सुखदेव झा को बहुत बुरा-भला कहा ।

श्राप दिया। उन्होंने अपने बाप यानी इंद्रनाथ के नाना को भी बड़बड़ाकर दोष दिया था कि वह बेटी नहीं, अपने बाप की शत्रु थीं, तभी तो इस घसकट्टा परिवार में उन्हें ब्याहा था ।

ऐसे परिवार में जिनके बाल-बच्चों को लोग चौकी पर भी नहीं बैठने देते ।

इंद्रनाथ को गाँव की बहुत-सी बातें याद है, पर एक बात और जो हमेशा उनके मन में बहती रहती है, वह है राम बहादुर झा के घर की ।

राम बहादुर झा उस गाँव के सबसे धनवान व्यक्ति थे । अब कैसे धनी बने, यह तो दुनिया जानती है पर प्रकट में वह धर्मात्मा थे । उनके पूजा-पाठ, नियम-निष्ठा की चर्चा आस-पास के इलाके में थी । वे रोज सबेरे चार बजे उठते थे ।

सूर्योदय होते-होते उनकी पूजा समाप्त हो जाती थी । पूजा समाप्त होने पर नौकर एक सूप में चावल लेकर पोखर पर आता था । पोखर भी ज्यादा दूर नहीं था ।

बस, उनके दालान से दस-बारह बाँस भर दूर । पोखर के पूर्वी महार पर ईटों का खूब ऊँचा चबूतरा बना था । नौकर उसी चबूतरे पर चावल से भरा सूप रखकर किनारे खड़ा हो जाता । राम बहादुर झा पूजा-घर से बाहर निकल थोड़ी देर पश्चिमी महार पर खड़े होते, जल पर पड़ रहे सूर्य के प्रतिबिंब को देखते, हाथ जोड़कर प्रणाम करते-“सर्वपाप हरं देवं, तं सूर्य प्रणाम्यहम !”

उसके बाद पश्चिमी महार की तरफ से सीधे पूर्वी महार पर आते । उत्तरी महार से सीधे नहीं आते थे । उस महार पर रंग-बिरंगे फूल थे । उस मेड़ को लोग फूलों वाली महार कहते थे । वह बहुत मनोरम फुलवारी थी। राम बहादुर झा उसी फुलवारी के रास्ते टहलते हुए माली को किसी पेड़ के बारे में, किसी फूल के बारे में कुछ-न-कुछ बतलाते हुए पूर्वी महार पर आ जाते थे।

वह तालाब चारों ओर के महार से इस तरह घिरा था कि वहाँ कोई नहीं जा सकता था । घिरा ही नहीं था। उत्तर की ओर फुलवारी, दक्षिण की ओर शाक-सब्जी और पूर्वी किनारे के आधे दक्षिण की ओर से तरह-तरह के अमरूद और एक-दों नारियल के पेड़ थे ।

उत्तरी-पूर्वी कोने पर आँवले का एक सुंदर पेड़ था, जिसके नीचे कार्तिक मास में पूरे इलाके के संस्कृत के विद्वानों को भोजन कराया जाता था। वहीं चबूतरा बना था, जिस पर चढ़कर राम बहादुर झा पक्षियों को दाना खिलाते थे-

'चिड़िया-भोज ।' पश्चिमी महार की तरफ खुला था । गाँववाले उसी घाट पर स्नान करते, मगर राम बहादुर का इतना प्रभाव था कि कुछ गिने-चुने खास लोग ही स्नान करने आते थे । वैसे, गाँव के अतिथियों के लिए वह घाट ज्यादा खुला था ।

हाँ, तो कह रहा था, राम बहादुर झा उत्तरी किनारे से होते हुए पूर्वी किनारे पर आते । वहाँ चबूतरे पर चढ़कर मुट्ठी में चावल लेकर ऊपर उछाल-उछालकर चारों तरफ बिखेरते ।

यह उनका रोज का काम था । पक्षी भी यह बात जानते । वे झुंड-के-झुंड इकट्ठे होते । तरह-तरह के पक्षी, तरह-तरह के स्वर और राम बहादुर झा आनंदित हो रहे होते ।

इंद्रनाथ यह दृश्य देखने के लिए भैंसों को प्रायः उसी रास्ते से लाते, वहीं मैंसों को मैदान में चरने के लिए छोड़ देते और खुद एक पेड़ पर चढ़कर दूर से यह दृश्य देखते थे ।

राम बहादुर झा चावल मुट्ठी में लेकर ऊपर उछालते तो सूर्य की किरणों में चावल के दाने दमक उठते ।

उस समय कितने ही पक्षी चावल की दमक के साथ चावल को भी लपक लेते । वह दृश्य देखते-देखते इंद्रनाथ कई बार खुद चिड़िया हो जाते ।

एक बार की बात है, कार्तिक का महीना था । वैसे तो गाँव के कुछ लोगों को छोड़ बाकी के लिए कार्तिक तेरहवें महीने जैसा लगता अर्थात्‌ कार्तिक महीना दुःख, अभाव, विपन्नता का महीना था। पूरा गाँव विकराल अभाव से जूझ रहा था । भैंसों ने दूध देना बंद कर दिया था । बस, समझ लीजिए कि इस महीने इनके परिवार में अकाल पड़ जाता था ।

कई दिन तो एक समय कुम्हड़-तीसी (मिथिला का एक खाद्य) की सब्जी खाकर पानी पीकर संतोष करना पड़ता था ।

इन्हीं दिनों की एक सुबह इंद्रनाथ पेड़ पर चढ़े हुए वह दृश्य देख रहे थे-इंद्रनाथ का चावल उछालना और चिड़ियों का लपकना ।

चार मैंसें और एक बछड़ा चरते-चरते लक्ष्मी खलीफा के धान के खेत में घुस गए । उस समय इंद्रनाथ खुद को चिड़िया हो जाने की कल्पना में खोये हुए चावल लपक ही रहे थे कि उन्होंने लक्ष्मी खलीफा की गर्जना सुनी ।

वह भैंसों के पीठ पर सटाक-सटाक मारते हुए उन्हें खदेड़ रहा था । इंद्रनाथ ने पेड़ पर से ही पलटकर देखा । उनके बदन में भय से झुरझुरी-सी दौड़ गई । इसके बाद के परिणाम की कल्पना से ही वह इतने डर गए कि पेड़ पर से उतरकर बिना कुछ सोचे-विचारे दक्षिण की तरफ भागे ।

उसके बाद तो जगह-जगह घूमते-फिरते वहाँ पहुँचे, जहाँ आज हैं। कैसे पहुँचे, यह अलग कथा है ।

इधर, उनके लापता होने से पूरा परिवार अशांत हो गया । माँ विक्षिप्त-सी हो गई, पिता एकदम गुमसुम । लक्ष्मी खलीफा पहले तो बहुत आग-बबूला हुए पर इंद्रनाथ के लापता होने के कारण शांत हो गए ।

कुछ दिनों के बाद सभी ने मान लिया कि इंद्रनाथ लापता हो गए हैं । इस बारे में तरह-तरह की चर्चा हुई, फिर यह चर्चा धीरे-धीरे ठंडी पड़ गई ।

परंतु अब गाँव के वही लोग कह रहे हैं कि इंद्रनाथ का सौभाग्य ही उन्हें भगाकर ले गया । ठीक दस वर्ष बाद मकर संक्रांति के दिन वह गाँव आए । वह आए भी ऐसे जैसे रात के अँधेरे को चीरकर भक्क से सूर्य उदय हुआ हो ।

उन्होंने पूरे परिवार को जगमगा दिया । ऐसा प्रकाश जिससे पूरे गाँव की आँखें चुंधिया गईं । पूरे गाँव में शोर मच गया । लोग बहुत आश्चर्य से इनको देखते-सुनते । उनके माँ-बाप के भाग्य को सराहते थे । आपस में फुसफसाते, शंका-आशंका करते कि इंद्रनाथ कैसे यहाँ तक पहुँच गए ? ठीक ही कहा गया है कि जब ऊपरवाला देता है तो छप्पर फाड़कर देता है ।

“वह जिस शान-बान से गाँव आए थे, वह सचमुच चकाचौंध कर देने वाला था ।

इंद्रनाथ सचमुच बड़े आदमी हो गए थे ।

कई शहरों में उनके अनेक कारोबार थें ।

कई जगह अपने फ्लैट थे ।

कितने ही ट्रक थें ।

कितने ही मॉडल की कारें थीं । उधर ही उन्होंने विवाह भी कर लिया था । बेटा-बेटी भी थे ।

पर, उन्होंने शादी कहाँ की ? कैसे इतने बड़े आदमी हो गए ?

लोग-बाग इन सब बातों की चर्चा शुरू-शुरू में करते थे, अब नहीं करते हैं ।

गाँववालों को इन सबसे क्‍या लेना-देना था ? अब तो उन्हें बस इस बात से मतलब था कि कैसे उनकी कृपा मिल जाए ।

वह जितनी बार गाँव आते, उतनी बार कुछ लोगों को नौकरी मिलती, कुछ लोगों को आश्वासन मिलता । कुछ लोगों को बेटी की शादी में, कुछ लोगों को इलाज के लिए तो कुछ को तीर्थयात्रा आदि के लिए मदद मिलती थी । उनके आने से गाँव धन्य-धन्य हो जाता ।

इन लोगों को मदद का फैसला उनके दरबार में होता था । ठीक सबेरे उनका दरबार लग जाता था । जब-जब वह गाँव आते, तब-तब उनका दरबार लगता । तरह-तरह के लोग उनके दरबार में उमड़े रहते । सभी की कोशिश होती थी कि किस तरह इंद्रनाथ बाबू प्रसन्‍न होंगे । किस तरह मुझे सबसे ज्यादा महत्व देंगे। लोग अपने-अपने ढंग से इसी जुगाड़ में लगे रहते थे ।

इधर, इंद्रनाथ खुद इस खेल में उस्ताद थे ।

वे अपने आभामंडल को विस्तार देने की कला में निपुण थे । जब उनका दरबार लगता तो विभिन्‍न प्रकार के लोग विभिन्‍न आवश्यकताओं की सूची लेकर ही आते पर इंद्रनाथ स्वयं अपने मुँह से किसी को कोई जवाब नहीं देते । चुपचाप मुस्कराते हुए लोगों की बातें सुनते । दूसरे दिन ऐसे लोग उनके मुँहलगे कुबेर झा से संपर्क करते थे । कुबेर झा ही उन लोगों को बतलाता कि उनके प्रार्थना पर क्‍या निर्णय हुआ । कभी-कभी वह किसी से पूछ बैठते “क्या पढ़ाई कर रहे हैं ?

मैट्रिक पास किया है । धत्‌, यह भी कोई पढ़ाई हुई ? और पढ़ने दीजिए ।

पढ़-लिखकर मेरे पास आने के लिए कहिएगा । महज बी.ए., एम.ए. से क्‍या होगा ? कोई “प्रोफेशनल” या तकनीकी कोर्स करें ।”

कभी-कभी दरबारियों की बातें सुनते-सुनते बीच में ही किसी से पूछ बैठते, “अँय भाई फलाने, उसके घर का क्‍या हाल है ?” लोगों का क्या ?

वे लोग नमक-मिर्च लगाकर ऐसी बातें करते जिससे इंद्रनाथ की उसमें रुचि बढ़े ।

किसी की निंदा में उन्हें बहुत रस आता । “गाँव में बेरोजगारी बढ़ रही है, लोग पढ़ाई-लिखाई से विमुख हो रहे हैं । जिसकी माली हालत अच्छी थी, उसकी हालत अब खराब हो रही है...” ये सब सुन उन्हें बड़ा मजा आता और यही मजा लेने व अपना महत्व दिखाने के लिए वे गाँव आते थे ।

जब वह अपनी बैठक में दरबारियों से घिरे बैठे रहते थे तो उनको लगता था कि वह राम बहादुर झा हो गए हैं । वही राम बहादुर झा, जो रोज चिड़िया-भोज' करते थे । जब वह अँजुरी में चावल लेकर ऊपर उछालते थे तो पक्षीगण चावल को उसी चमक के साथ ऊपर ही लपक लेना चाहते थे ।

“वही इंद्रनाथ अब मन-ही-मन राम बहादुर झा हो रहे थे ।

हाँ, अब स्थिति बदल गई है ।

अब इनको अपने दरबार में आए लोग चिड़िया लगते-किसी का मुँह मैना, किसी का कबूतर, किसी का बुलबुल और किसी का कौआ जैसा । और उस समय वह इतने प्रसन्न हो जाते थे जब किसी दरबारी को कोई आश्वासन देकर उसकी प्रसन्‍न आँखों को बिखेरे गए दाने की चुगती चिड़िया की तरह देखते रहते, मुस्कराते रहते । मुस्कराते-मुस्कराते सोचते, गाँव के लोग गर्त में जा रहे हैं । ऐसी मनःस्थिति देखते हुए उन्हें बहुत आनंद आता था और यही आनंद लेने के लिए ही वह गाँव आते थे । यह आनंद लेने की उन्हें ऐसी लत लग गई कि वह साल में दो-तीन बार गाँव आने लगे ।

वैसे इंद्रनाथ गाँव आते हैं तो पूरा गाँव इसे अपने पर उनकी कृपा मानता है, अन्यथा उनके जैसा आदमी गाँव क्‍यों आए ? गाँव से उन्हें क्या काम ? अभी तक तो जो गाँव से गया, उसके लिए गाँव जैसी खराब जगह कोई नहीं । इसीलिए ऐसे लोग गाँव छोड़ शहर में ही बसना चाहते हैं ।

पहले इंद्रनाथ गाँव आते थे तो किसी से अपनी जरूरतों के बारे में जिक्र नहीं करते थे । गाँव के लोग ही उनसे अपनी जरूरतों का रोना रोते थे । इंद्रनाथ उनकी जरूरतों को पूरा करते थे परंतु इस बार वह गाँव आए तो उन्होंने दरबारियों से अपनी जरूरत बताई । इस बार उन्हें एक ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी जो खेती-बाड़ी के काम में तन्मयता से लिप्त हो ।

कारण यह था कि उन्होंने दिल्‍ली से सटे हरियाणा में कुछ खेत खरीदे थे, जिन्हें वे फार्म कहते थे ।

उसमें उन्होंने तरह-तरह के फल-फूल, सब्जियाँ लगाई थी। धान भी। गेहूँ भी । कुछ अन्य चीजें भी उगाते थे। वह अपने फार्म में उर्वरक या खाद नहीं डालते थे । अब वह ऐसे ही बिना खाद का इस्तेमाल किए अनाज और फल खाना चाहते थे । पर उन्हें इस फार्म के सही संचालन के लिए कुशल खेतिहर व्यक्ति की जरूरत थी । वैसा व्यक्ति उन्हें मिल नहीं रहा था । उन्होंने कई लोगों को रखा, पर नाकाम । उन्हें समर्पित और कुशल व्यक्ति की आवश्यकता थी। कुबेर झा, हरिदेव झा ने कई लोगों को उनसे मिलवाया, पर कोई पसंद नहीं आया । बातचीत चलती रही। एक दिन दिलीप ने कहा,

“कुबेर भाई, वामदेव कैसा रहेगा ?”

वामदेव का नाम सुनते ही जैसे सबके चेहरे खिल उठे । सबको यह नाम जँच गया । वैसे कइयों को शंका थी कि वह जाएगा या नहीं परंतु पैसे का लोभ सबकी आशंका को कमजोर कर देती ।

खुद इंद्रनाथ वामदेव को नहीं जानते थे । उन्होंने पूछा-“कौन है वामदेव ?” वामदेव के बारे में सभी कुछ-न-कुछ बताने लगे ।

ओहो, इसका मतलब यह हुआ कि मैं इस गाँव में बहुत लोगों को नहीं जानता। वे लोग इधर नहीं आते क्या ?” पूछकर इंद्रनाथ फिर से उसका हुलिया लेने लगे और तभी से उनके दरबार में वामदेव की चर्चा शुरू हो गई ।

वैसे भी गाँव में तरह-तरह की चर्चाएँ होती रहती हैं । कभी चर्चा होती है कि गाँव में आजकल सबसे ज्यादा धन कौन कमा रहा है । कभी यह चर्चा होती कि आजकल गाँव में सबसे ज्यादा कौन खट रहा है। सबसे अधिक हाड़-तोड़ मेहनत करने वालों में वामदेव का नाम था । ऐसा परिश्रमी जो किसी को भी हैरत में डाल दे ।

तो, दरबार में वामदेव की चर्चा शुरू हो गई । वैसे भी वह दरबार किसी की प्रशंसा या निंदा में कोई सानी नहीं रखता था । इन चर्चाओं का एक ही प्रयोजन था कि किस तरह किससे क्‍या सुनकर इंद्रनाथ जी प्रसन्‍न होंगे ।

अतः जब दरबारियों की समझ में आ गया कि वामदेव जैसे व्यक्ति की उन्हें जरूरत है तो कई दिनों तक उसी की चर्चा चलाते रहे।

उसके बाहुबल का बखान हो रहा था ।

उस बखान में कोई कहता, “ओह, क्या अद्भुत जवान है! गठीले बदन वाला पाँच हाथ का मर्द ।”

“और काम ?”

“उसके बराबर कौन कर सकता है ? एक पहर में फावड़े से पाँच बिस्वा खेत की मिट्टी पलट दे ।” दूसरा टपकता ।

तीसरा ध्यान खींचता, “उस समय की बात याद है जब अकेले मर्दवे ने ट्रक भर गन्ना लाद लिया था ।”

चौथा व्यक्ति उस तीसरे से थोड़ा जलता था । उसने बात को उधर ही धकियाते हुए कहा, “ऐ भाई, क्‍या गन्ना खाता है, वह दाँत है कि मशीन । थोड़ी ही देर में गन्ना चूसकर गोल सिट्टी का ढेर लगा देता है ।”

“है तो विचित्र आदमी, इसको देखता हूँ तो ऐसा लगता है कि जैसे लोरिक ताड़ के पेड़ का छड़ी बनाकर पशु चराता होगा ।”

“सो ठीके बहिनचो...आदमी है कि क्या ?” चौथे ने फिर टहका दिया ।

वामदेव-पुराण वैसे ही चल रहा था ।

उसी यशोगाथा का नित नए तरह से विस्तार हो रहा था । उस दिन ऐसे ही बात खींचते हुए हरिदेव बोले, “ऐ भाई, काम तो करता है सो करता ही है, खाने में भी कम बहादुर नहीं है । उस समय तो लगता है जैसे राक्षस खाना खा रहा हो ।”

हरिदेव झा की यह बात सुनकर कुबेर झा को लगा कि उसके खाने की बात सुनकर इंद्रनाथ कहीं भड़क न जाएँ । अतः वे हरिदेव की बात को दबाने लगे-

“ऐ हरिदेव भाई, वह काम करेगा चार आदमी का और खाएगा मेरी-आपकी तरह ?”

“मैं यह नहीं कहता, पर आप उसे खाते देखेंगे तो ताज्जुब करेंगे।” “मैंने क्या उसे खाते नहीं देखा है? एक महीना भी नहीं हुआ है । बलदेव बाबू के भोज में मेरे पास ही बैठा था ।” कुबेर झा बात को रास्ते पर लाए । “अरे, तब आपने ध्यान नहीं दिया, कुबेर भाई ।

एक बार की बात

बताता हूँ । ज्यादा दिन नहीं बीता है । मुन्नी राउत के बैठक में हम कई लोग बैठे थे । आँगन में चिड़वा कूटा जा रहा था । सो कहता हूँ--खाने-पीने का कोई प्रसंग उठा ।

ऐ भाई, पाँच किलो चिड़वा ले आया । उस पर फोचहा के घर से एक किलो चीनी आई और रख दी गई । विश्वास करों, ई वामदेउवा अकेले सारा चिड़वा चबा-चबाकर खा गया । एक घूँट भी पानी नहीं पिया ।”

“ठीके राक्षस है ।”

बाहर ये सब बातें हो रही थीं और इंद्रनाथ के पिता महेश ठाकुर साथ वाले कमरे में जप कर रहे थे । वे तो अन्य दिनों में भी अपने कमरे से किसी बात पर टिप्पणी कर दिया करते थे । आज भी उनसे नहीं रहा गया । वह गोमुखी में माला पर चल रहे उँगलियों को रोककर बोले, “अरे तुमलोग इस वामदेउवा की क्‍या चर्चा कर रहे हो ? वह क्‍या खाएगा ?

कलियुग में तो लोगों की अँतड़ियाँ ही कमजोर होती जा रही हैं । मैंने खुददी काका को अपनी आँखों से देखा है । एक सेर मडुआ (एक मोटा अनाज) का रोटी, फुलके नहीं रोटी, हाथ से पोई हुई ये मोटी-मोटी रोटी, किलो भर हरी मिर्च, नमक और बड़े-बड़े फॉक वाले अचार के साथ खा गए थे ।”

यह कहते-कहते बुढ़कऊ जोश में आ गए थे । उनकी आवाज में और ज्यादा जोश आ गया था। वह बोले-“और...सुनो-मोक्षानंद झा का श्राद्ध था। वे जमींदारी के दिन थे । सात गाँवों के जयबार (मैथिल ब्राहमणों का एक वर्ग) दस दिनों तक भोज खाते रहे । खाजा-लड़्डू का भोज था। उन दिनों ये छोटे-छोटे नहीं, केहुनी जितने लंबे खाजा होते थे और लड़डू नहीं, मुँगबा (बहुत बड़े आकार का लड़डू) । खाजा का एक अँजुरी से ज्यादा पीठ और केहुनी भर का ओक और मुँगवा भी ऐसा ही। कोई-कोई उसे कोहबा लड्डू भी कहता था । जानते हो, खुददी काका पैंसठ खाजा खा गए और उसके बाद समझ लो, एक सेर से ज्यादा मुँगबा खा गए । उसी पर तो मोक्षानंद झा के बड़े दामाद ने उन्हें इनाम के तौर पर एक जोड़ा धोती दी ।”

पुरानी बात! अधिकांश लोगों को सुनने में अच्छी लगी, पर कोई कुछ बोला नहीं ।

कारण यह भी था कि जिस खुदूदी काका की बात इंद्रनाथ के पिता महेश ठाकुर कर रहे थे, वह दरबार में बैठे दिलीप के परदादा थे ।

उधर, महेश ठाकुर को भी बाद में यह ध्यान आया कि कहीं उनकी बात दिलीप को बुरी न लगी हो । वैसे तो उन्होंने अपनी ओर से खुद्‌दी काका की प्रशंसा ही की थी, इसलिए वह अब खुदूदी काका की प्रशंसा में ही कुछ बोलना चाहते थे ।

एक बार की बात है, खुदूदी काका अपनी बहन की ससुराल रमौली गए । रमौली के श्रीकांत झा उनके बहनोई के पिता थे । वे पँव-छह सौ बीघा खेत के जोतदार थे । उन्होंने हाथी पाला था। मैंने उनका हाथी देखा है ।

क्या सुंदर मकुनियाँ हाथी पाला था । जिधर निकल पड़ता था, दूर से ही टनाक-टन घंटी सुनाई पड़ती थी ।

दूर से ही लोग समझ जाते थे कि श्रीकांत झा का हाथी जा रहा है । सो कह रहा हूँ, उनका चालीस हाथ का दालान बन रहा था । उस कमरे की बड़ेरी इतनी भारी थी कि दिन भर लोग थक गए, मगर बीस-पच्चीस आदमी भी नहीं चढ़ा पाए । कल और लोगों को जुटाकर जुगाड़ लगाया जाएगा-ऐसा सोचकर छोड़ दिया गया था ।

रात में जब खुद्दी काका भोजन कर रहे थे तो उनकी बहन ने हँसते हुए यह बात कही । उन्हें भी बहन की बात पर हँसी आई । वह बोले, “इस गाँव के लोग आदमी हैं या बकरी ?”

जब रात थोड़ी गहराई तो बड़ेरी का एक कोना बहन ने पकड़ा और खुद॒दी काका ने बड़ेरी चढ़ा दी ।

सभी लोग वृद्ध महाशय महेश बाबू की बात सुन रहे थे । दूसरों को तो उनकी बात अच्छी लग रही थी, पर खुद इंद्रनाथ को यह बात अच्छी नहीं लगी । वे बोले-

“बाबू जी, अभी किस्सा-कहानी छोड़िए ।”

“यह कोई किस्सा-कहानी हुआ ?

“वही तो हुआ ।”

“मैंने खुदुदी काका को अपनी आँखों से देखा है और तुमलोगों को

उनकी बात किस्सा-कहानी लगती है तो वामदेव की बात भी कल वहीं लगेगी। यह पाउडर वाला दूध और मशीन से छाँटा-कूटा अनाज जो न करे।” बेटे की बात से महेश ठाकुर थोड़ा असहज हो गए थे। भुनभुनाते हुए अपने कमरे की तरफ चल दिए। दूसरों को तो यह बात अच्छी लग रही थी, पर बाप-बेटे के बीच में कोई कया बोले। वैसे महेश ठाकुर भी चुप रहने वाले नहीं थे। जो बात पकड़ लेते थे, पकड़े ही रहते । जिन दिनों वे गरीबी का जीवन जी रहे थे, उन दिनों भी इस आदत के कारण कितनी बार अपमानित हो जाते। अब कौन अपमान करेगा? पीठ पीछे तो लोग उन्हें अब भी झक्की कहते हैं। अगर दूसरे बेटों ने ऐसी बात कही होती तो आग-बबूला हो जाते पर इंद्रनाथ ने कहा था, इसलिए बात पी गए ।

इधर, इंद्रनाथ अपने आगे-पीछे चक्कर काटने वालों पर भी क्रोधित थे। उन्होंने कह भी दिया-“तुमलोग किसी काम के नहीं हो। कई दिनों से वामदेव-वामदेव हो रहा डै, पर कौन है वामदेव, कैसा है वामदेव, अभी तक देखा नहीं।” अपने मनाभावों को दबाते हुए उन्होंने कुबेर झा से पूछा-

“अँय भाई कुबेर झा, आज वामदेव आएगा न?”

“उसने कहा तो है। दरअसल, उसे काम से ही फुर्सत नहीं मिलती ।” कुबेर झा ने चिंतित स्वर में कहा।

इंद्रनाथ चुप हो गए थे। वे गंभीरता से सोच रहे थे कि क्या गाँव में ऐसे लोग भी हैं जिन्हें काम से फुर्सत नहीं है। यह सोचते हुए उनके जेहन में फिर राम बहादुर झा घूमने लगे। उनका यश याद आया। वे याद करने लगे-“उन दिनों ऐसा कौन था जिसे राम बहादुर झा बुलाएँ और वह अपने काम में लगा रहे। कोई नहीं...! मन में यह बात आते ही उन्हें हीनता-बोध चपेट में लेने लगा। इस बोध से ग्रस्त होने से उनका क्रोध बढ़ता गया ।

ठीक उसी समय कोई बोला-“वामदेव आ रहा है।” सभी ने पलटकर पीछे देखा। सचमुच वामदेव ही आ रहा था ।

वह आया तो हरिदेव बोले, “आओ वामदेव, कितने दिनों से इंद्रनाथ बाबू तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं, पर तुम तो डुमरी के फूल हो गए ।”

“जी हाँ”, वामदेव बोला, “मगर मुझे काम से फुर्सत मिले तभी तो ।”

“क्यों? क्‍या कर रहे थे ?”

“क्या करूँगा? काम की कोई कमी है ?”

“गाँव में कौन-सा काम है, भाई वामदेव?” दिलीप बोला, अपर स्कूल में वामदेव भी उसके साथ कुछ दिन पढ़ा था। दिलीप के प्रश्न के स्वर में वही सखा भाव था ।

“दिलीप बाबू, आप गाँव में रहते हुए भी गाँव में नहीं रहते। यहाँ काम की कोई कमी है ?”

इंद्रनाथ ने वामदेव की ओर देखा । सुगठित शरीर, पाँच हाथ का मर्द चिकनी मिट्टी की तरह चमकती काया । उनकी दृष्टि वामदेव पर ठहर गईं। वस्तुतः यही गाँव का आदमी है, पर तुरंत न जाने क्यों उनका मन ईर्ष्या से भर गया । उन्होंने मन में ठान लिया कि इसे किसी भी हालत में साथ ले जाना है ।

इधर कुबेर झा ने वामदेव को सारी बातें विस्तार से समझा दीं कि इंद्रनाथ बाबू ने उसे क्‍यों बुलाया है ।

वामदेव ने सारी बातें ध्यान से सुनीं और गंभीरता से बोला, “सुनिए कुबेर बाबू, हमलोग गाँव से बाहर कहीं नहीं जा सकेंगे । बाहर कहीं अच्छा ही नहीं लगेगा ।”

“अगर नहीं जाओगे तो गाँव में क्या मिलेगा ? अब गाँव में खेती से क्या होता है ? पैदावार होती है ? कभी सूखा, कभी बाढ़ ।...” कुबेर झा ने अपनत्व भरा स्वर उछालते हुए कहा ।

“नहीं होता है तो क्या आपलोगों ने इसके कारण के बारे में कभी सोचा है ?” वामदेव बोला ।

“वह क्या सोचें ? अब सोचने की कोई जरूरत नहीं है। कारण, भारत में इतना अन्न पैदा होता है कि उसे रखने की जगह नहीं है।” कुबेर झा बोले ।

सो जो भी हो। हमलोगों को वहाँ से क्या मिलता है, यह देखना है।”

“इसीलिए तो तुम्हें अपना देखने के लिए कह रहा हूँ। पूरे वर्ष में कितना अन्न उपजा लेते हो ? अन्न का क्या दाम है ? किसान को अन्न

उपजाकर क्‍या मिलेगा ?”

“क्या होगा ? गाँव की हालत समझते हैं ? गाँव में कितने लोग अपने खेत की उपज पूरे साल खाते हैं ? इसका कारण है कि कोई खेत पर ध्यान ही नहीं देता ।”

कुबेर झा और वामदेव की वार्ता को हरिदेव ने अपनी तरफ मोड़ा- “वामदेव, कुबेर ठीक ही कह रहे हैं। भाई, पूरे साल में तुम जितना अन्न उपजाओगे, उतनी तनख्वाह दो महीने में ही पा जाओगे। अरे, पैसे के आगे अन्न उपजाकर क्‍या होगा ?”

“जब अन्न से कुछ नहीं होगा तो ये फार्म क्‍यों बनाए ?” वामदेव ने हँसते हुए पूछा ।

अरे, ये बड़े आदमी हैं । ये इनका शौक है ।” हरिदेव बोले ।

हरिदेव की इस बात पर वामदेव खूब खुलकर हँसा । उसकी हँसी किसी को अच्छी नहीं लगी, पर और कोई कुछ नहीं बोला । कुबेर ने पूछा, “तुम क्‍यों हँसे ?”

“नहीं, ऐसी कुछ बात नहीं है ।

आपलोगों की बात से आज कस्तूरी काका की याद आ गई । एक दिन मैंने उनसे पूछा, “काका, हमलोगों के खेतों में नकटा (मिथिला में पाए जाने वाले पक्षी), बटेर आते थे ।

अब ये पक्षी दिखाई नहीं पड़ते ?” वे बोले, 'पहले जहाँ-जहाँ सुविधा मिलती थी, वहाँ-वहाँ उड़ जाते थे । मनुष्य की तरह पक्षियों के घर नहीं होते, वे सूखे या बाढ़ से नहीं लड़ सकते । न ही पाला फाड़ सकते हैं। इसलिए स्थिति अनुकूल खोजते उड़ते रहते हैं । अब तो अपने यहाँ मनुष्य उड़ रहा है, तो दूसरी जगह से पक्षी कहाँ से आएँगे” यह कहकर वामदेव फिर हँसने लगा ।

“यह तो बेतुकी बात हुई। कुछ भी बोल दिए और हँस पड़े ।” कुबेर झा दाँत पीसते हुए बोला पर वामदेव ने उस पर ध्यान नहीं दिया, वह दूसरी ओर देखने लगा । देखते-देखते वह अचानक उठकर खड़ा हो गया । उठकर गमछा झाड़ते हुए बोला, “इसीलिए बुलाए थे ? तो मैं चलता हूँ ।”

“ओह हो, जा रहे हो ? कहाँ जा रहे हो ?”

हरिदेव ने पूछा लखनदेइ का बाँध जमबोनी के पास टूट गया है । सभी की सलाह हुई है कि उसे बाँधा जाए। लोग-बाग वहीं जा रहे हैं । मैं भी कुदाल लेकर वहीं जाऊँगा ।” वामदेव ने सहज भाव से उत्तर दिया ।

बाहर चल रहे गप-शप को इंद्रनाथ के पिता महेश ठाकुर सुन रहे थे । उनके मन में कितनी बार आया कि उत्तर दें, पर कुछ देर पहले इंद्रनाथ की बात से इतने असहज थे कि बात मन में दबाए रहे । जब वामदेव ने लखनदेइ बाँध बाँधने की बात कही, तो उनसे नहीं रहा गया । बोले- “लखनदइ से जो पानी आता है, उससे तो केवल डोर ही डूबता है । अँय रे वामदेव, उससे तुम्हें क्या, तुम्हारा तो एक धूर भी उस बाँध में नहीं है ।”

“महेश काका, आप भी इन्हीं लोगों की तरह बोल रहे हैं । बेशक वह मेरा बाँध नहीं है, पर है तो मेरे ही गाँव का ।“ वामदेव ऐसे बोला कि सबको उसके स्वर में आत्मबोध की पीड़ा का एहसास हुआ ।

उसकी बात सुनकर इंद्रनाथ मन-ही-मन तिलमिला उठे । उन्हें लगा कि यह वामदेव उनका अपमान कर रहा है । यह अनुभव होते ही उन्हें लगा जैसे वे गाँव आते हुए भी पूरी तरह गाँव नहीं आ पाए हैं । उन्हें अपने कद, महत्व में कमी लगी । वे उदास होने लगे ।

इंद्रनाथ के चेहरे का रंग बदलते देख कुबेर झा वामदेव पर क्रोधित होते हुए बोले-

“सुनो वामदेव, इंद्रनाथ के पास इतना वक्‍त नहीं है कि वे बार-बार तुम्हें बुलाएँ। साफ बोलो, क्या कहना चाहते हो ?”

“हाय रे मरदे, इतना पढ़-लिखकर भी बात नहीं समझे ?” कहकर फिर हँसने लगा वामदेव । हँसा भी तो खुलकर ।

“रे, या तो हँस लो या बोलो...।” इस बार कुबेर झा उसे डपटते हुए बोले ।

“ऐ कुबेर झा, ऐसे मत डपटो । आप चिड़िया और मनुष्य में अंतर नहीं समझते तो मैं क्‍या करूँ ?” कहते हुए वामदेव वहाँ से चल पड़ा ।