संत सोलोमन अत्यंत उदार हृदय थे।
उनके पास जो भी दीन-दुखी आता, वे उसकी हर संभव सहायता करते थे।
उनकी सहृदयता सभी पर समान रूप से बरसती थी।
संत सोलोमन एक स्थान पर नहीं टिकते थे, सदा भ्रमण करते रहते।
ऐसे ही एक बार वह घूमते-घूमते ऐसे स्थान पर पहुंच गए जहां गणिकाओं का निवास था।
चूंकि गणिकाओं के पास व्यक्ति अपनी वासना पूर्ति के लिए ही आता है, अतः वे समझी कि संत का भी यही उद्देश्य है।
गणिकाएं आपस में बात करने लगीं कि यह तो साधु के वेश में विलासी है।
गणिकाओं ने संत को ईशारे से अपने पास बुलाया।
चूंकि संत का हृदय निष्कपट था, इसलिए वह निर्विकार भाव से उनके पास चले गए।
गणिकाओं के पूछने पर संत ने उनको अपना परिचय दिया।
अपना परिचय देने के बाद संत ने पूछा- 'हे देवियों, आप कौन हैं ?” गणिकाओं ने संत को अपने बारे में बताया।
तब संत सोलोमन उनके विषय में जानकर अत्यंत दुखी हो गए और बोले- 'हे ईश्वर! तेरी इतनी सुंदर सृष्टि में यह कैसा अनर्थ हो रहा है ?
तेरी यह सुंदर रचना कीचड़ में पड़ी है।
इनका कल्याण करो, इन्हें भी तेरा प्रेम और दया मिलनी चाहिए।' संत का ऐसा निष्पाप भाव देखकर गणिकाएं प्रभावित हो गई।
उन्होंने संत से क्षमा मांगी। संत ने गणिकाओं को प्रेरित किया कि वह यह कीचड़ भरा जीवन छोड़कर सच्चाई व साधना के मार्ग पर चलें।
संत की प्रेरणा से गणिकाएं साधना के मार्ग पर चल पड़ीं।
उन्होंने वेश्यावृत्ति द्वारा अर्जित धन से नारी निकेतन का निर्माण करवाया और परोपकार को सदा के लिए अपना लिया।
वस्तुतः विवशतावश या अविवेक के कारण जिनका पतन हुआ है, उन्हें निर्विकार भाव से विकास कौ मुख्यधारा में लाना महान् परमार्थ होता है, जिसे करने वाला ही सच्चा संत और समाज सुधारक होता है।