मितव्ययिता का पाठ

महात्मा गांधी ने सिखाया मितव्ययिता का पाठ

(क) महात्मा गांधी पार्टी के कार्यों के सिलसिले में प्राय: यात्राएं किया करते थे, जो देश की स्वतंत्रता के उद्देश्य को लेकर होती थीं।

एक बार गांधी जी ऐसे ही किसी कार्य से इलाहाबाद आए और पंडित मोतीलाल नेहरू के निवास स्थान 'आनंद भवन' में ठहरे।

नेहरू परिवार ने इसे अत्यंत सौभाग्य का विषय माना और गांधी जी का आत्मीयता से परिपूर्ण सत्कार किया।

गांधी जी रात्रि विश्राम के बाद जब सुबह उठे तो नित्य कर्म से निवृत होकर हाथ-मुंह धोए। इसके बाद वे पानी लेकर कुल्ला करने लगे।

इसी दौरान पंडित जवाहर लाल नेहरू आ गए और उनसे किसी विषय पर बातचीत करने लगे।

कुल्ला करते-करते गांधी जी का पानी खत्म हो गया।

इससे उनका मन कुछ उखड गया और बातचीत बीच में ही रुक गई।

नेहरू जी ने उनसे पूछा तो वे बोले- “देखो न, में बातचीत में इतना खो गया कि सारा पानी खर्च हो गया और अब मुझे दोबारा पानी लेना पडेगा।

नेहरू जी उनकी बात सुनकर हंसते हुए बोले- 'बस इतनी-सी बात है।

यहां तो गंगा और यमुना दोनों ही बहती हैं। जितना चाहे, उतना पानी इस्तेमाल कीजिए।' गांधी जी ने कहा- “गंगा और यमुना अकेले मेरे लिए तो नहीं बहती हैं।

प्रकृति में कोई चीज कितनी ही मात्रा में क्यों न उपलब्ध हो, किंतु मनुष्य को अपने लिए उतनी ही मात्रा में उसे लेना चाहिए, जितना अनिवार्य हो।' मितव्ययिता से किसी भी वस्तु का उपयोग करने पर आगे की पीढ़ियों के लिए वह संग्रहीत रहती हैं और इस प्रकार वह समाज की अधिकतम आवश्यकताओं की पूर्ति करती है।

सार यह है कि मितव्ययिता को अपनाकर समाज कल्याण के सपने को साकार किया जा सकता हेै।

(ख) गांधी जी का जन्मदिन था। प्रतिदिन की भांति संध्या के समय प्रार्थना सभा हुई। प्रार्थना के बाद उनका प्रवचन हुआ। अंत में गांधी जी ने पूछा- 'आज यह घी का दीपक किसने जलाया है ?'

यह सुनते ही सभा में सन्‍नाटा छा गया।

सभी एक दूसरे का मुंह देखने लगे।

किसी को कुछ बोलने का साहस नहीं हुआ। बापू पुनः बोले- “आज यदि सबसे बुरी बात हुई हे तो वह यह कि आपने यह घी का दीपक जलाया हे।'

सभी हैरान हो गए और सोचने लगे कि भला इसमें क्या बुरी बात हो गई ? कुछ देर रुककर बापू बोले- “कस्तूरबा! तुम इतने समय से मेरी जीवन संगिनी हो, फिर भी कुछ नहीं सीख पाई।

हमारे गांवों में लोग कितने गरीब हें ?

उन्हें नमक और तेल तक नहीं मिलता ओर हम बेवजह घी जला रहे हैं।' तभी एक व्यक्ति बोला- “आज आपका जन्मदिन है इसलिए यह घी का दिया जलाया।' बापू ने कहा- “तो क्‍या इसका अर्थ यह हुआ कि मितव्ययिता त्यागकर दुरुपयोग आरंभ कर दिया जाए ?

जो हुआ सो हुआ, पर आगे से ध्यान रखना। जो वस्तु आम आदमी को उपलब्ध न हो, उसे हमें भी उपयोग में लाने का कोई अधिकार नहीं है।

जब तक हर आदमी में यह भावना नहीं आएगी, देश में खुशहाली कैसे आ पाएगी ?” उपस्थितजनों ने हृदय से बापू की बात में सहमति जताई।

देश की वर्तमान उर्जा संकट व अर्थ संकट के समय बापू के ये विचार अनुकरणीय हैं।

वस्तुतः यदि हममें से हर एक वस्तुओं को आवश्यकतानुसार उपयोग करने की आदत डाल लें तो कभी किसी वस्तु का अभाव नहीं होगा और एक सुखी व संतुष्ट समाज की रचना संभव होगी।