बात उन दिनों की है जब खोजा मशहूर नहीं हुआ था।
उन दिनों उसके पास एक गरीब मजदूर अक्सर आया करता था।
खोजा ने एक-दो बार उससे पूछा था कि भाई तुम मेरे पास इतने चक्कर क्यों लगाते हो ?
न तो मैं इतना धनवान हूं कि तुमसे कोई काम करवाकर तुम्हें मेहनताना दे सकूँ, न मेरी किसी से जान-पहचान है कि तुम्हें कहीं काम दिलवा सकू।
फिर तुम मेरे पास आकर अपना समय क्यों गंवाते हो ? आखिर तुम मुझसे क्या चाहते हो ?
खोजा के पूछने पर उस मजदूर ने अपने आने की वजह उजागर करते हुए कहा, “मैं आपसे कुछ नसीहत लेने आता हूं।
मुझे उम्मीद है कि एक न एक दिन आपकी इनायत मुझ पर जरूर होगी।मैं दरअसल मजदूरी छोड़कर अपना कोई कारोबार करना चाहता हूं। मेरी दिली इच्छा है कि आप मुझे नेक सलाह दें।"
खोजा ने उसकी बात सुनकर खुशी जाहिर की और उसे समझाया कि कभी किसी के साथ बेईमानी नहीं करना, मेहनत से जी मत चुराना, किसी को बुरा - भला मत कहना, गरीबों से ज्यादा मुनाफा नहीं कमाना।
इस मुल्क में गरीबों की संख्या कुछ ज्यादा ही है।
यदि तुम और व्यापारियों की तरह ठगने की आदत नहीं बनाओगे तो तुम देखोगे कि वे गरीब मजदूर ही एक दिन तुम्हें इतना अमीर बना देंगे जितनी तुमने कल्पना भी नहीं की होगी।
मजदूर की आदत होती है कि उसे जहां दो धेले कम में जरूरत की चीज मिले, वहां वह बार-बार जाता है, जबकि अमीर सस्ता सामान बेचने वाले की चीजों पर शक करने लगता है।"
खोजा की सीख का यह नतीजा निकला कि सचमुच देखते ही देखते वह मजदूर शहर का सबसे अमीर व्यापारी बन गया।
अमीरों में तो उसका रसूख बढ़ा ही, गरीब मजदूर भी उसकी तारीफों के पुल बांधते नहीं थकते थे।
उसकी दुकान में चूंकि उन्हें खरा, तौल में पूरा और शहर की अन्य दुकानों से दो धेला सस्ता सामान मिलता था, आड़े वक्त में उधार भी मिल जाता था, सो वे मुरीद थे ही।
एक बार खोजा के इस कल के गरीब मजदूर और आज के अमीर व्यापारी दोस्त ने खोजा और अमीर-उमरावों को अपने घर दावत पर बुलाया।
खोजा को यह मालूम था कि उस दावत में शहर के जाने-माने लोग ही आमंत्रित हैं।
पुरानी दोस्ती निभाते हुए खोजा ने वहां जाने का निर्णय कर लिया, हालांकि न तो वह कोई अमीर-उमराव था और न कोई सरकारी अधिकारी।
ठीक दावत के दिन, अपने गधे पर बैठकर खोजा अपने उस दोस्त के घर दावत खाने पहुंच गया।
उसने देखा कि मेहमानों की खातिरदारी के लिए मेजबान ने तमाम तरह के पकवान बनवाए हुए हैं।
जितने भी किस्म के खाने हो सकते थे और जितने भी किस्म के मिजाज के खाने वाले वहां आए हुए थे, लगभग सभी की पसंद का खाना बनवाया गया था।
खुद मेजबान ने खाने से पहले खोजा को पूरी रसोई और भंडार घर की सैर करवाई।
जब सब लोग खाना खाने बैठे, तो खोजा ने देखा कि उसकी बगल में बैठा एक मेहमान न सिर्फ ज्यादा से ज्यादा खाना चट करता जा रहा था, बल्कि बहुत से पकवान उठा-उठाकर अपनी जेब में भी भरता जा रहा था।
खोजा को समझते देर नहीं लगी कि वह ऐसा क्यों कर रहा है। खोजा को इस बात की खबर थी कि शहर के पुराने रईसों को खोजा
के इस दोस्त का जो कभी मामूली मजदूर हुआ करता था, व्यापार में आना पसंद नहीं था।
खोजा को यकीन हो चला कि हो न हो यह मेरी बगल में बैठा सेठ भी उन सेठों में से एक हो सकता है।
इस सेठ की तरह कुछ और भी मेहमान ऐसा ही कर रहे हों, ताकि यहां खाने की कुछ चीजें कम पड़ जाएं और इस तरह मेजबान की हंसी उड़ा सके कि खिलाने का दम नहीं था, तो इतने मेहमान बुलाए ही क्यों ?
खोजा ने मन ही मन तय किया कि वह इस सेठ को तुरंत एक अच्छा सबक सिखाएगा। ऐसा सबक जो सबकी नजर में भी आए और जिससे सबक लेकर इस सेठ की तरह हरकत कर रहे और मेहमान भी सावधान हो जाएं।
अगले ही पल खोजा ने एक चायदानी उठाई और उसमें भरी तमाम गर्म चाय अपने बगल वाले सेठ की अचकन की जेब में उडेलनी शुरू कर दी।
अभी थोड़ी-सी ही चाय उसकी जेब में पहुंची होगी कि सेठ को जलन होने लगी।
वह एकाएक अपनी जगह से उछला और जोर से चीखा, “यह क्या बदतमीजी है ? मेरी पूरी खाल जला दी ?"
खोजा ने उससे भी ऊंची आवाज में जवाब दिया, “चिल्लाओ मत! तुम्हारी जेब बहुत-सी चीजें खा चुकी है।
उसे प्यास लग रही होगी। इसलिए चाय पिला रहा हूं।"
खोजा का इतना कहना था कि उस सेठ का चेहरा तो फीका ही पड़ गया, और जो मेहमान सेठ इसी तरह की हरकत में जुटे हुए थे, वे भी यकायक पेट भर जाने का ऐलान करते हुए, अपने-अपने पेट पर हाथ फेरते हुए उठे और मेजबान से इजाजत लेकर अपनी-अपनी हवेली की ओर रुख़सत हो गए।