एक बार बादशाह ने खोजा नसरुद्दीन को अपना अंगरक्षक बना लिया।
उसने हिदायत दी कि जब भी मैं यहां रहूं, तुम हरदम मेरे साथ रहा करो।
खोजा को यह काम बहुत उबाऊ लगा, लेकिन बादशाह के आदेश को टाला भी नहीं जा सकता था।खास कर उस हालत में जबकि वह कोई ऊट-पटांग बात न कह रहा हो।
इसलिए खोजा ने मन मारकर यह काम करना स्वीकार कर लिया।
एक दिन बादशाह के पास बड़े मौलवी आने वाले थे।
मौलवी के आने से पहले बादशाह ने अपना लिबास बदला।
रोजाना तो राजकर्मचारी उसे तैयार करते थे, लेकिन उस दिन बादशाह खुद ही तैयार होकर एक शीशे से आगे जा खड़ा हुआ।
कुछ देर बाद पलटा और ख़ोजा से बोला, "अभी-अभी आइने में मैंने अपनी सूरत देखी तो पता चला कि मैं वाकई बहुत बदसूरत हूं।
अब मैंने फैसला कर लिया है कि आगे से मैं कभी आइने में अपना चेहरा नहीं देखूगा।"
खोजा ने तुरंत उत्तर दिया, "जहांपनाह! आप अपनी सूरत एक बार देखकर ही उससे घृणा करने लगे हैं, लेकिन मुझे रोजाना हजारों बार
आपकी सूरत देखनी पड़ती है।आप सोच भी नहीं सकते कि मेरा हाल क्या होता है।
इससे पहले कि बादशाह खोजा की बात ठीक से समझता और उस पर गुस्सा होता, खबर मिली कि मौलवी साहब महल में पधार चुके हैं।
खोजा मन ही मन मौलवी को नापसंद करता था।
उसने कई लोगों के मुंह से यह सुना था कि मौलवी खुदा के खौफ के नाम पर लोगों को डराकर उनसे अपनी सेवा-टहल करवाता है, किसी से भी कोई चीज ले लेता है और उसकी कीमत नहीं चुकाता।
गरीबों को अपने से दूर रखता है और अमीरों की खैर-खबर लेने के लिए उनकी हवेलियों के चक्कर लगाता रहता है।
फिर भी खोजा को बादशाह के साथ उसकी अगवानी के लिए बाहर आना पड़ा और आदर सहित उसका स्वागत-सत्कार करना पड़ा।
मौलवी ने अपनी आदत के अनुसार बादशाह को ढेरों आशीर्वाद दिये,
और लगे हाथों खोजा पर भी उपकार करने की नीयत से खोजा से पूछा, "मरने के बाद तुम वहिश्त में जाना चाहते हो या दोजख में।" जवाब देने से पहले खोजा ने उलटा सवाल पूछ लिया “मौलवी साहब, पहले आप फरमाइये, आप कहां जाना चाहते हैं ?"
थोड़ी देर चुप रहने के बाद मौलवी ने जवाब दिया, मैं जिंदगी भर दूसरों की भलाई करता रहा हूं और ईमानदारी से खुदा के बताये रास्ते पर चलता रहा हूं, इसलिए मैं जरूर वहिश्त में जाऊंगा।"
यह सुनते ही ख़ोजा फौरन बोल पड़ा, "तब मैं दोजख में जाना चाहता हूं, जहां आप रहे, वहां मैं हरगिज नहीं रहना चाहता।"