बात उन दिनों की है जब बादशाह ने पहली बार खोजा को अपने दरबारियों में शामिल किया था।
वह खोजा की चतुराई का कायल था।
जिस मसले का हल वह हफ्तों में निकाल पाता था, खोजा उसे मिनटों में ही सुलझा देता था।
एक ऐसा ही मसला एक दिन उसके दरबार में आया।
शहर का एक ताजिर (व्यापारी) उसके पास पहुंचा और उससे फरियाद की, “हुजूर! मैं एक ताजिर हूं।
बाहर से माल खरीद कर अपने देश में बेच देता हूं।
यही मेरी रोजी-रोटी का जरिया है।
इस बार मैं बलख से ताजा मसाले खरीद कर एक नाव से यहीं लाया था, लेकिन वह नाव वाला बेईमान हो गया है।
वह अपना भाड़ा लेकर भी नाव से मेरा माल उतारने नहीं दे रहा है।
कहता है कि यह माल मेरा है।
अब आप ही इंसाफ कीजिए और मेरा माल उस बेईमान नाव वाले से दिलवाइये।"
ताजिर की बात सुनकर बादशाह ने खोजा की तरफ देखा, फिर वह खोजा से बोला,
"खोजा! मामला पेचीदा लगता है, तुम्हीं इस मसले को हल करो।
खोजा ने उस व्यापारी के घर का पता-ठिकाना लिख लिया और उसे विश्वास दिलाया कि यदि तुम सच्चे हो तो तुम्हारे साथ नाइंसाफी नहीं होगी।
" यह कहकर उसने उस ताजिर को विदा कर दिया।
अगले दिन सुबह वेश बदलकर खोजा अपने एक साथी के साथ नदी किनारे जा पहुंचा।
दोनों ने ताजिरों का वेश बनाया हुआ था, ख़ोजा ताजिर बना हुआ था और उसका साथी उसका मुनीम। जिस नाव में माल लदा था,
उसके मालिक के पास पहुंच खोजा ने पूछा।
"क्यों भाई! क्या लदा है तुम्हारी नाव में ?"
"जनाब! मसाले हैं, जिन्हें मैं कल ही बलख से खरीद कर लाया हूं।"
"हम ताजिर हैं। जरा नमूना तो दिखाओ, यदि माल पसंद आया तो हम ही खरीद लेंगे।'
नाव वाले ने मसाले के नमूने दिखाये।
खोजा बोला, "माल तो ठीक ही लगता है, क्या कीमत लोगे माल की ?"
पांच हजार टका (रुपया)।
"ये तो बहुत ज्यादा है।
सही कीमत बताओगे तो कुछ बात बने।"
"आप क्या देना चाहते हैं ?"
नाव वाले ने पूछा "तीन हजार टका।
मंजूर है तो बोलो, नहीं तो हम चलते हैं।"
आप सही कीमत नहीं दे रहे, जनाब! कुछ और आगे बढ़िये।"
“साढ़े तीन हजार से एक कौड़ी भी ज्यादा नहीं।
" खोजा हल्की आवाज में बोला, “यह भी इसलिए कि तुम्हारा माल ताजा है।"
"ठीक है। मुझे मंजूर है।
" नाव वाला बोला, “पैसा कब दोगे ?"
"पैसा तुम्हें कल मिल जायेगा।
दाम चुकाते ही हम यह माल उठवा लेंगे।"
इसके बाद दोनों उस ताजिर के घर पहुंचे, जिसने नाव वाले की शिकायत दर्ज कराई थी।
खोजा ने उससे भी वैसी ही बातें की, “जैसी कि नाव वाले से की थीं।
उससे माल की कीमत पूछी तो उसने साढ़े पांच हजार टका कीमत बताई।
इससे कम में उसने अपना माल बेचने से साफ इंकार कर दिया।
अब खोजा को यकीन हो गया कि दोनों में से कौन सच्चा है और कौन झूठा।"
अगले दिन सिपाही भेज कर खोजा ने नाव वाले को दरबार में बुला लिया।
वह अपने पांच साथी भी साथ लेकर आया।
उधर ताजिर को भी कचहरी में बुलवा लिया गया।
खोजा ने नाव वाले से पूछा, "तुम्हारे खिलाफ शिकायत है तुमने अमानत में खयानत की है।
इस ताजिर के माल पर जबरन कब्जा जमा लिया है।"
यह बात बिल्कुल झूठ है जनाब! नाव में भरा हुआ माल मेरा है।
मैं उसे बलख से खरीद कर लाया हूं। "लेकिन तुम तो नाव वाले हो।
तुम तिजारत कब से करने लगे।" खोजा ने तीखी आवाज में कहा।
"क्या एक नाव वाला ताजिर नहीं बन सकता, हुजूर!
ये कहीं लिखा है कि एक ताजिर का बेटा ताजिर और नाव वाले का बेटा नाव वाला ही बने।
धंधा बदला भी तो जा सकता है।"
"ठीक कहा तुमने। धंधा बदला भी जा सकता है।
अच्छा, यह बताओ कि तुमने वह माल खरीदा कितने का था ?
खोजा ने फिर से पूछा।
"हुजूर! मैंने उसे छह हजार रुपयों में खरीदा था।" नाव वाले ने बताया।
"कोई गवाही तुम्हारे पास कि तुम्हारा ही है।"
इस पर नाव वाले ने अपने साथ लाये अपने पांचों साथी सामने कर दिये।
खोजा ने उनसे पूछा, “तुम्हें पक्का पता है कि नाव में लदा वह माल इसी नाव वाले का है ?
यह बात मैं इसलिए पूछ रहा हूं कि दूसरा आदमी भी उस माल को अपना बता रहा है।"
वह झूठ बोल रहा होगा, हुजूर। वह माल तो इस नाव वाले का है ।
उसके बाद खोजा ने ताजिर को बुलाया और उससे पूछा, "क्या इसी नाव वाले की नाव में तुमने अपना माल लादा था ?"
महिल "जी जनाब।"
"इसके गवाहों को पहचानते हो?" "कुछ-कुछ। ये पांचों भी इसके हमपेशा हैं।"
खोजा ने तत्काल एक सिपाही को बुलाया जो हाथ में कोड़ा लेकर हाजिर हो गया।
खोजा के संकेत पर उस सिपाही ने नाव के मालिक पर कोड़े बरसाने शुरू कर दिये।
अभी उसे पांच कोड़े ही लगे थे कि वह चीखने लगा।
"रोकिये। इसे रोकिये हुजूर। मैं सच्चाई बताने को तैयार हूं।" खोजा ने सिपाही को कोड़ा रोकने का इशारा कर दिया।
"सच कहा है किसी ने।" खोजा बोला, मार के आगे भूत भी भागता है।
अब जल्दी से सच्चाई उगल। नाव में लदा माल तेरा है या इस ताजिर का ?
"ताजिर का।" मेरे मन में बेईमानी समा गई थी हुजूर।
मुझे माफ कर दिया जाये।
"और तुम्हें झूठी गवाही देने के कितने रुपये मिल थे ?"
खोजा ने उन पांचों नाव वालों की ओर उंगली का संकेत करके पूछा।
"बीस रुपया, हर एक को।"
एक गवाह ने बताया।
"खोजा ने बादशाह के हुक्म से उस नाव के मालिक को तो एक साल की सजा सुनाई, और उसके साथी गवाहों को झूठी गवाही के आरोप में एक-एक महीने की सजा सुनाई।व्यापारी को उसका माल सुरक्षित दिलवा दिया, जिसने खोजा को बहुत-बहुत दुआएं दीं।
इस प्रकार वह मसला जो बादशाह से बहुत दिनों में भी न निपटता, खोजा ने दो ही दिन में सुलझा दिया।"
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