वतन की याद

मुल्ला नसरुद्दीन कहानी - Mulla Nasruddin

नसरुद्दीन खोजा को दुनिया के नए-नए देश देखने का बहुत शौक था।

वह अपने शहर में टिक कर नहीं रह पाता था।

एक बार अपने गधे पर बैठ कर वह मध्य एशिया के देशों की सैर पर निकल पड़ा और लगभग दस वर्षों तक इन देशों में घूमता रहा।

इस बीच बगदाद,

इस्तम्बूल, तेहरान, बख्शीसराय, तिफलिस, दमिश्क, तबरेज़, अखमेज आदि शहरों में गया, जहां उसने धन कमाने के साथ-साथ अपने अनेक मित्र और प्रशंसक बनाए।

जब इनसे उसका मन उचाट हो गया और अपने वतन की याद उसे आने लगी, तो वह एक दिन अपने शहर बुखारा की ओर चल पड़ा।

डाकुओं से सामना

अपने गधे पर सवार होकर खोजा एक जंगल से गुजर रहा था कि एक स्थान पर उसे डाकुओं ने घेर लिया।

सभी डाकू सशस्त्र थे।

खोजा प्रतिरेध भी न कर सका।

डाकुओं ने गधे की जीन में रखे कीमती जेवरात निकाल लिए, उन्होंने खोजा की सोने की मोहरों से भरी थैली भी साफ कर दी और खोजा को छोड कर वहां से चलते बने।

गनीमत यह रही कि उनका ध्यान मोहरों से भरी उस थेली पर नहीं गया जो खोजा ने एक कपडे में लपेट कर गधे के पेट से बांध दी थी।

उस दिन से खोजा ने निश्चय कर लिया था कि अब से वह अकेला नहीं जाएगा। ऐसे ही ख्यालों में डूबा ख़ोजा आगे बढ़ रहा था।

तभी उसे ऊंटों के गले में बजती घंटियों की आवाजें सुनाई दीं।

उसने गधे को संकेत किया तो गधा तेज गति से आगे बढ़ने लगा।

शीघ्र ही वह काफिले के पास पहुंच गया।

खोजा ने काफिले वालों से पूछा तो एक व्यक्ति ने उसे बताया - “हम लोग तुर्की के व्यापारी हैं, और व्यापार के सिलसिले में बुखारा जा रहे हैं, हमारे ऊंटों पर बहुत-सा ऐसा सामान लदा है, जिसकी बुखारा में बहुत मांग है।

उसी व्यापारी ने ख़ोजा को यह भी बताया कि पहले लक मर चुका हे और अब बुखारा पर उसका बेटा राज कर रहा है।”

पुराने बादशाह के मरने की खबर सुनकर खोजा को बहुत दुख पहुंचा, वह बादशाह खोजा का बहुत सम्मान करता था।

उसी ने एक जमाने में ख़ोजा को अपना सलाहकार और काजी बनाया था। अब यह नया बादशाह क्‍या पता उसे पहचानेगा या नहीं ?

काफिला चलता रहा। जहां रात के समय काफिला पड़ाव डालता,

खोजा भी वहीं ठहर जाता।

काफिले के साथ-साथ दो सशस्त्र पहरेदार थे, जो चलते समय चोर-डाकुओं से काफिले की हिफाजत करते थे।

तीन दिन की यात्रा के बाद शाम के समय वे लोग बुखारा के किले के बाहर जा पहुंचे।

किले का पहरेदार अभी फाटक बंद कर ही रहा था कि व्यापारियों का सरदार जोर से चिललाया - “ठहरो।

किले का फाटक बंद मत करना।” यह कह कर उसने सिक्‍कों से भरी एक थेली हाथ ऊंचा करके उसे दिखाई।

रुपयों के लालच में पहरेदार ने पूरा फाटक खोल दिया।

काफिले के साथ-साथ ख्रोजा भी जल्दी से किले में दाखिल हो गया।

फाटक के पास एक मोटा-सा मुंशी एक रजिस्टर लिए बैठा था।

व्यापारियों ने उस आदमी को कर चुकाया और ऊंटों की नकेल थामे आगे बढ़ गए, लेकिन सिपाहियों ने खोजा को रोक लिया।

“नगर में आने का कर चुकाओ!” मोटे मुंशी ने आदेश दिया।

“कैसा कर भाई ?

मैं इस नगर में पहली बार थोड़े ही आया हूं।

पहले तो यहां शहर में आने पर कोई कर नहीं था।

” खोजा बोला- “और फिर मैं यहां हमेशा के लिए रहने थोड़ी ही आया हूं।

“बेकार की दलीलें मत दो।

” मोटा बोला, “जब तुम नगर में आए हो तो कर तो चुकाना ही पड़ेगा।

यही बादशाह का आदेश है।"

मन मार कर खोजा ने कर चुकाया, और गधे की ओर मुड़ा तो मोटा फिर बोल पड़ा, “इस गधे का कर कोन चुकाएगा ?

इस गधे को नगर में लाने का भी कर चुकाओ।

नहीं तो मैं फाटक खुलवा कर अभी बाहर कर दुंगा।

” खून के घूंट पीकर खोजा को गधे का कर भी चुकाना पड़ा।

अब उसके सामने समस्या थी भोजन और रात को ठहरने की।

एक जगह आगे जाने पर उसे एक सराय दिखाई दी। गधे को थपथपा कर वह सराय में घुस गया।

उसने सराय वाले को कुछ रुपये दिए और अपने भोजन तथा गधे के लिए घास लाने को कह दिया। सराय के मालिक ने दोनों चीजों का इंतजाम कर दिया। भरपेट भोजन करने के बाद खोजा ऐसा सोया

कि फिर अगले दिन सूरज निकलने पर ही उसकी आंखें खुलीं।

वह उठा और गधे पर बैठ कर अपने पुश्तैनी घर की ओर चल पड़ा।

जब वह अपने घर के बाहर पहुंचा तो यह देखकर उसका दिल रो पड़ा कि उसका शानदार घर खंडहर हो चुका है।

समूचे आंगन में खर-पतवार उग आई थी।

एक कमरा शेष था जिसमें खट-खट की आवाज आ रही थी।

खोजा उस कमरे में गया तो वहां एक लुहार लोहे की चीजें तैयार करता मिला।

खोजा के पूछने पर उसने बताया कि यह घर उसे एक काजी ने दिया था, जो अब नये बादशाह के हुक्म से शहर-बदर किया जा चुका है।

खोजा के पूछने पर उसी लुहार ने बताया कि इस मकान में रहने वाले पुराने बाशिंदे मर-खप चुके हैं।

सुना है कि नसरुद्दीन खोजा नाम का उनका एक वारिस था जो अब भी लापता है।”

अपने परिवार, पिता और पत्नी की ऐसी दर्दनाक हालत की खबर सुनकर खोजा का मन रो उठा पर वह चुप रहा।

चुपचाप अपने गधे पर बैठा और वापस उसी सराय की ओर चल पड़ा जहां उसने रात गुजारी थी।

उस दिन से उसने नियम बना लिया।

वह हर रोज बादशाह के दरबार में जाता और कोशिश करता कि नया बादशाह उसे पहचान ले।

खोजा की मेहनत एक दिन रंग लाई।

एक दिन जब वह दरबार में आगे को पंक्ति में बैठा हुआ था तो उसने देखा कि नया बादशाह उसे गौर से देख रहा है।

दरबार की बर्खास्तगी के बाद जैसे ही ख़ोजा जाने के लिए उठा, बादशाह ने उंगली के संकेत से उसे अपने पास बुलाया।

डरता-झिझकता सा खोजा बादशाह के पास पहुंचा और झुककर उसे बंदगी की।

“तुम खोजा हो ?

नसरुद्दीन ख़ोजा ?

” बादशाह ने पूछा। “जी आलमपनाह! ” खोजा ने विनग्रता से उत्तर दिया।

“अरे भाई, कहां रहे इतने दिन तक ?” क्‍या किसी दूसरे मुल्क में चल गए थे ?”

“हां आलमपनाह! मैं कई देशों की सैर करने चला गया था।" खोजा ने कहा।

“तुम कल शाम को हमारे महल में आना। तुम कहां-कहां घूम कर आए हो, यह हमें बताना।” बादशाह ने कहा।

अगले दिन निर्धारित वक्‍त पर स्व्रोजा बादशाह के महल में पहुंच गया।

बादशाह एक ऊंचे सिंहासन पर विराजमान हो गया और खोजा एक छोटी कुर्सी पर बेठा।

बादशाह ने पूछा, “हमें तुम्हारी यात्रा के बारे में जानने की दिलचस्पी है।

हम जानना चाहते हैं कि तुम किन-किन मुल्कों में गए ?

लेकिन यह सब जानने से पहले हम यह जानना चाहते हैं कि क्या तुम हमारे सलाहकार बनना चाहोगे, जैसे कि पहले अब्बा हुजूर के सलाहकार के रूप में काम करते थे ?”

“जरूर आलमपनाह! यदि आप मुझे अपने डोरे साया लेते हैं तो आपको खिदमत करके मुझे बहुत खुशी होगी ?” ख़ोजा बोला।

“तो समझ लो कि आज से तुर्म सरकारी मुलाजिम बन गए। तुम्हारे रहने और खाने का इंतजाम राज्य की भोर-से कर दिया जाएगा।”

खोजा को मन मांगी मुराद मिल गई। यही तो वह चाहता था। अगले दिन से ही वह बादशाह की सेवा में पहुंच गया।

बादशाह जटिल समस्याओं पर उससे परामर्श लेने लगा, साथ ही ख़ोजा के हास्य का आनंद लेने लगा। दिन गुजरते चले गए।

एक दिन बादशाह ने खोजा से कहा, “कल हम दूर एक जंगल में शिकार खेलने के लिए जा रहे हैं। क्या हमारे साथ चलना चाहोगे, खोजा ?”

“बखूबी बादशाह सलामत! आपके अब्बा हुजूर के साथ मैं पहले भी कई बार शिकार पर जा चुका हूं। वे जब भी शिकार करने जाते थे, मुझे ही साथ ले जाते थे।”

तब फिर तैयार रहना। हम दोनों ही चलेंगे। कहते हुए बादशाह उठ खड़ा हुआ। खोजा भी एक फर्शी सलाम करके कक्ष के बाहर निकल आया ओर अपने निवास स्थान पर चला गया।

अगले दिन बहुत सवेरे दोनों अस्त्र-शस्त्र साथ लेकर अपने घोडों पर बैठ जंगल की ओर चल पडे। फासला दूर का था अत: दोनों ने घोड़ों की गति तेज कर दी।

दोपहर होने से कुछ ही पहले दोनों जंगल में जा पहुंचे।

दोपहर ढलने तक दोनों भटकते रहे, किंतु शिकार के नाम पर एक चिटडडिया भी हाथ न लगी।

दोनों ही थक चुके थे अत: एक तालाब के किनारे घने वृक्ष की छांव में बैठ कर आराम करने लगे।

घोड़ों को खुला छोड़ दिया गया ताकि वे भी पानी पीकर घास चरने लगें।

अभी उन्हें बेठे हुए ज्यादा देर न हुई थी कि जंगल में से काली-काली आकृतियां प्रगट होने लगीं।

ये जंगल में रहने वाले आदिवासी थे।

इनके हाथों में भाले और तीर कमान थे।

उनमें से दो आदिवासियों ने बादशाह और खोजा के घोड़े पकड़े और कूदकर उन पर सवार हो गए।

घोड़ों की पीठ पर उन्होंने डंडे जमाए तो घोडे हवा से बातें करने लगे।

शेष आदिवासी तेजी से घोड़ों के पीछे भागने लगे। जब तक बादशाह और खोजा संभलते, आदिवासी जंगल में विलुप्त हो गए।

बादशाह और खोजा के चेहरे फीके पड़ गए। फिर बादशाह गुस्से से मुट्ठियां भींच कर बोला, “जरा महल में पहुंच जाऊं।

फौज भेज कर सारे जंगल की नाकेबंदी करवा दूंगा।

चुन-चुन कर मरवाऊंगा इन नालायकों को। बस्तियां जलवा दूंगा।

“वह तो बाद की बात है, जहांपनाह! सूरज डूबने का समय हो रहा है, अब तो यहां से निकलने की फिक्र कीजिए।” खोजा ने कहा।

दोनों उठे और वापस शहर की दिशा में चल पड़े।

कुछ आगे चलकर बादशाह बोला, “ऐसे चुपचाप चलने पर तो रास्ता मिलेगा नहीं।

तुम विदेशों में घूम कर आए हो। वहां की कोई बात सुनाओ।

कुछ न हो तो कोई दिलचस्प कहानी ही सुना दो।

मुझे मालूम है तुम्हें बहुत से किस्से याद हैं। मैं जब छोटा था, तब तुम अब्बाजान को कहानियां सुनाते थे।

“यही ठीक भी रहेगा, हुजूर! लीजिए, वक्‍त गुजारने के लिए मैं आपको एक कहानी सुनाता हूं, जो मैंने ईरान के बुजुर्ग से तब सुनी थी, जब मैं कुछ दिन उसके यहां ठहरा था।”