खोजा नसरुद्दीन आए दिन किसी न किसी गरीब आदमी की फरियाद लेकर बादशाह के दरबार में हाजिर होता रहता था।
इससे जहां मुल्क के काजियों की जान सांसत में रहती थी, वहीं बादशाह भी खोजा की इस आदत से मन ही मन आजिज आ चुका था।
उसे भी लगता था कि खोजा आए दिन दरबार में आकर उसे उलझन में डाल देता है।
खोजा की वजह से बादशाह को देर तक दरबार में मौजूद रहना पड़ता था।
सैर-सपाटे पर जाने में देरी हो जाती थी।
यों तो बादशाह खोजा को आए दिन दरबार में आने से रोक भी नहीं सकता था।
टाल-मटोल कर सकता था, लेकिन वह ऐसा करता नहीं था।
चूंकि खोजा हमेशा गरीबों के मामले लेकर आता था, इसलिए बादशाह सोचता था कि यदि उसने खोजा को टरकाया तो आम जनता में उसकी छवि धूमिल होगी।
दूसरे बादशाह को खोजा की फरियादें सुनने में कष्ट होता रहा हो, लेकिन वह जानता था कि इसी बहाने उसे अपनी जनता के बारे में सही-सही खबरें भी मिलती रहती हैं।
इन सबके बावजूद बादशाह खोजा से था बेहद दुखी और नाराज भी।
इसीलिए वह जब भी मौका मिलता था, खोजा की खिल्ली उड़ाने से बाज नहीं आता था, उधर खोजा भी कुछ कम नहीं था। उसे न तो
किसी सेठ-साहूकार का भय था, न काज़ी या बादशाह का।
सही और खरी बात कहना खोजा की आदत थी, जो हर काल में जस की तस बनी हुई थी।
अब एक दिन की बात ही ले लीजिए।
बादशाह और वजीर खोजा के साथ जंगल में शिकार खेलने गये। दोपहर का समय था।
सूरज अंगारे बरसा रहा था।
गर्मी के मारे बादशाह और वजीर दोनों ने अपने-अपने कपड़े उतार कर खोजा के कंधे पर लाद दिए।
एक तो सूखी गर्मी, जिस पर चिलचिलाती धूप, फिर बदन पर बुद के कपड़ों के अलावा दो-दो लोगों के कपड़े भी टंगे होने से खोजा पसीने से तरबतर हो गया।
खोजा की दुर्गति देखकर बादशाह मन ही मन खुश हो रहा था।
वह शिकार पर कम और खोजा की दुर्गति पर ज्यादा ध्यान दे रहा था।
इस फेर में उसके हाथ कोई शिकार नहीं लग रहा था।
इस बीच वजीर दो जानवरों को ढेर कर चुका था।
इससे बादशाह बेहद मायूस हुआ।
उसे लगा कि वजीर ने शिकार करने में कामयाबी हासिल कर उसकी खिल्ली उड़ाई है।
आखिर बादशाह से ज्यादा देर चुप नहीं रहा गया।
शिकार पर हाथ साफ न कर पाने के कारण अपनी झेंप मिटाने के लिए उसने खोजा की हंसी उड़ाते हुए चुटकी ली, "ओह, खोजा!
तुम्हारे कंधों पर तो कम से कम एक गधे का बोझ जरूर है।'
खोजा ने संशोधन किया, एक नहीं, दो गधों का बोझ है, जहांपनाह।