कुसुम

खुशवंत सिंह की कहानियां - Khushwant Singh Short Stories

कुसुम कुमारी बहुत अच्छी लड़की थी-बहुत ही अच्छी ।

उसे अच्छा बनने की कोशिश नहीं करनी पड़ती थी

दरअसल, अच्छा होना उसके लिए ज़रूरी था।

उसकी उम्र अट्टारह वर्ष थी, पर लगती वह अट्टाईस की थी और उसका व्यवहार चालीस साल की औरत जैसा था।

कद छोटा और कुछ मोटी भी। काला, लम्बोतरा चेहरा, जिस पर चारों तरफ़ चेचक के दाग थे।

मोटी, नीचे बैठी नाक पर सुनहरी कमानी का चश्मा, जिसके भारी शीशों के भीतर से उसकी आँखें बेतहाशा फैली दिखाई देती थीं।

सिर पर बाल काफ़ी कम, कई चकत्तों में इधर-उधर ह बिखरे।

इनमें वह इतना ज़्यादा तेल चुपड़ती कि बाल खोपड़ी से चिपके रहते थे।

पीछे बालों की कसी कुसुम हुई पट्टियाँ, माथे पर उतरकर आँखों की भौंहों को घेर लेती थीं।

जहाँ तक उसकी काया का सवाल है, वह इतनी भरी-पूरी लगती थी कि पेट, छातियाँ और पीठ कुछ भी अलग नज़र नहीं आता था।

कुल मिलाकर उसका शरीर काफ़ी चौड़ा-चकला था, जिसे वह सफ़ेद साड़ी से ढके रहती थी।

इन सब कमियों की पूर्ति कुसुम अच्छा और कुशल बनकर करती थी। वह डटकर मेहनत करती और हर परीक्षा में सबसे आगे रहती थी।

उसका चश्मा और शरीर इस बात का गवाह था कि किताबों में वह कितना समय बिताती है।

उसे अनेक विषयों में प्रथम श्रेणी प्राप्त हुई थी। उसके माता-पिता को कभी उससे कोई शिकायत नहीं हुई । सवेरे वक्‍त पर उठती और साइकिल से कॉलेज जाती । शाम को समय से घर लौट आती। कहीं और नहीं जाती थी।

वह किसी को परेशान नहीं करती थी, न कोई और उसे परेशान करता था।

कुसुम के लिए आधुनिक फैशन बेकार थे और न उसे लड़कों के प्रति कोई आकर्षण था।

सेक्स से उसका कोई वास्ता नहीं था।

न उसे पाउडर-बिन्दी और मेकअप में कोई रुचि थी।

वह मानती थी कि ईश्वर ने जिसे जो रूप-रंग दिया है, उससे उसे सन्तुष्ट रहना चाहिये, भले ही चेहरे पर चेचक के दाग़ भर दिये हों।

दया-धर्म में उसका गहरा विश्वास था।

हरेक को काम करना चाहिये और नियमों का पालन करना चाहिये।

वह मानती थी कि स्त्री का स्थान रसोईधर में है।

लड़कियों को कभी अपना सिर खोलकर (उघाड़कर) नहीं चलना चाहिये। बूढ़े स्त्री-पुरुष उसे पसन्द करते थे, युवक उस पर ध्यान नहीं देते थे।

निर्दय प्रकृति ने उस पर जो ज़्यादतियाँ की थीं, उन्हें उसने स्वीकार कर लिया था।

कुसुम की उनन्‍नीसवीं सालगिरह पर कुछ लड़कियों ने उसे लिपस्टिक और रूज़ का डिब्बा भेंट में दिया।

उसे लगा कि यह उसका अपमान किया गया है। उसने उन्हें दराज़ के एक कोने में छिपाकर रख दिया और सबसे कहा कि उसने इन्हें फेंक दिया है।

उसने अपना शीशा भी दीवार की तरफ़ पलट दिया और फैसला किया कि अब वह कभी अपना मुँह नहीं देखेगी।

कुसुम शायद ही कभी हँसती हो ।

उन्‍नीसवीं सालगिरह के बाद उसने मुस्कुराना भी बन्द कर दिया।

उसने गम्भीरता अख्तियार कर ली, एकदम कठोर किस्म की गम्भीरता ।

वह जानती थी कि इससे वह और भी ज़्यादा बदसूरत लगेगी, लेकिन उसके लिए यही ठीक था।

फिर चूँकि कोई भी पुरुष उसकी तरफ़ कभी ध्यान नहीं देता था इसलिए सुन्दर दिखने का कोई अर्थ भी नहीं था और चूँकि वह बदसूरत लगती थी इसलिए कोई उस पर ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझता था।

अप्रैल के अन्त में डिग्री लेने के बाद कुसुम का यूनिवर्सिटी जीवन समाप्त हो गया।

दूसरी लड़कियाँ आज़ाद होकर मौज-मस्ती करने में लग गईं।

कोई उससे बात करने नहीं आई और कुसुम भी अपनी साइकिल लेकर घर आ गई और रोज़मर्रा के काम-काज में लग गई। दूसरी लड़कियों के सामने शादी की हलचलें तेज़ होने लगीं ।

लेकिन कुसुम के सामने ऐसा कुछ नहीं था-सिवाय उसकी मेज़ के जिस पर कोर्स की किताबें रखी थीं और बगल में शीशा रखा था।

कुसुम साइकिल पर सवार घर लौट रही थी।

उसका दिमाग़ एकदम खाली था।

सारी सड़क पर वह अकेली थी और कुछ सोचना उसके लिए ज़रूरी भी नहीं था ।

वह गलत दिशा से सड़क पार करने लगी और सँभलने की कोशिश करते-करते एक फेरीवाले से टकरा गई ।

यह लड़का-सा था और सिर पर रखे संतरे बेच रहा था । कुसुम पहले उसके ऊपर गिरी, फिर सड़क पर आगे लुढ़क गई । उसका चश्मा चकनाचूर हो गया था। साइकिल एक किनारे गिर गई ।

फेरीवाला ज़रा-सा हिलकर रह गया लेकिन उसे चोट नहीं लगी।

उसकी संतरों की डलिया भी सही-सलामत धी।

वह कुसुम की तरफ़ देखकर मुस्क॒राया ।

“मिस साब, आपको सड़क पर सही तरफ़ से चलना चाहिये ।

कुसुम को गुस्सा आ रहा था, अब फेरीवाले के रुख ने उसे और क्रोधित कर दिया। उसने चीखकर कहा-'तुम अंधे हो क्या ? किधर जा रहे हो, यह दिखाई नहीं देता ?'

फेरीवाले ने चारों तरफ़ नज़र डाली । कहीं कोई नहीं था। उसकी मुस्कुराहट शैतानियत में बदलने लगी।

"नहीं, मिस साब, मैं अंधा नहीं हूँ। हाँ, आँख एक ही है।'

यह कहकर उसने एक आँख बन्द करके दूसरी से उसे ध्यान से देखा और चुम्मा लेने की ज़ोरदार आवाज़ मारी।

कुसुम का चेहरा लाल पड़ गया। गुस्से से वह भभकने लगी । उसने साइकिल सँभालकर उठाई और उस पर तेज़ी से चढ़ी फेरीवाले की तरफ़ मुँह करके बोली, 'सुअर...गधे ।'

फेरीवाले ने इसका बुरा नहीं माना। वह इसका मज़ा ले रहा था।

“गधा ? उसने सवाल किया और उसकी तरफ़ देखकर दूसरी आँख मारी । “आपने गधा देखा है ?

यह कहकर उसने अपना दायाँ हाथ उठाया और बायें हाथ से उसे पकड़कर तेज़ी से घुमाने लगा । कुसुम भयभीत हो उठी-उसका ऐसे किसी आदमी से अभी तक साबिका नहीं पड़ा था। वह तेज़ी से घपर आई और अपने कमरे में घुसकर तकिये के नीचे सिर दबाकर लेट गई।

इस तरह कई घंटे वहीं पड़े-पड़े बहुत कुछ सोचती रही। उसका गुस्सा तो काफ़ूर हो गया, लेकिन फेरीवाले के हाव-भाव और मुस्कुराकर आँख मारना उसके दिमाग में जमकर बैठ गया । उसके साथ आज तक किसी ने ऐसा कुछ कभी नहीं किया था। क्‍या इस लड़के को वह आकर्षक लगी ?

सूरज डूब गया, चाँद निकल आया और उसकी हल्की पीली रोशनी कमरे में भीतर आकर उसकी चारपाई पर पड़ने लगी। वह उस फेरीवाले के बारे में ही सोचे जा रही थी-अब उसका भाव कोमल था और उसमें हल्का पछतावा भी था। “यही बात है”, उसने अपने से कहा, “यही बात है।'

अब वह उठी और मेज़ की दराज़ खोलकर उसके कोने में छिपाकर रखी लिपस्टिक और रूज़ का डिब्बा निकाला । डिब्बा खोलकर रूज़ अपने गालों पर धीरे-धीरे लगाई।

फिर शीशे को अपनी तरफ़ मोड़ा और लिपस्टिक लगाने के लिए अपने होंठ दबाकर आगे किये। अपने बाल खोले और झटका देकर उन्हें ढीला करने की कोशिश की।

बाल उसके कंधों पर इधर-उधर बिखर गये। गमले में से एक फूल निकाला और जूड़े में लगा लिया। फिर एक कदम पीछे हटकर शीशे में अपना मुआयना करने लगी।

'शीशे, मेरे शीशे, मुझे देखो और बताओ,

हम दोनों में से कौन ज़्यादा खूबसूरत है ?'

शीशे में देखते हुए बालों में फूल लगाये काली आँखों वाली एक सुन्दर सी लड़की उसकी तरफ़ देखकर मुस्कुरा रही थी-'मैं ही हूँ-और कौन ?