अरे तुम्हारा क्या ख़याल है, यह भारत सरकार कैसे काम करती है ? कैसे करती है ?'
सुंदर सिंह ने टाइपिस्टों के कमरे में, जहाँ उसके दो साथी उसके सामने बैठे थे, अचानक यह सवाल दाग़ा।
बंगाल से आये घोष बाबू ने मुँह में भरी पान की पीक अपनी धोती के छोर से पोंछी और छोटा-सा जवाब दिया, 'ठीक कहते हो।'
“और तुम, मद्रासी बाबू ।' सुंदर सिंह ने साम्बमूर्ति की तरफ़ घूरकर पूछा।
(सुंदर सिंह की अपने देश के बारे में जानकारी पूरी तरह पंजाबी थी ।
उसके लिए बम्बई से नीचे का हर आदमी मद्रासी था ) 'क्या कहते साम्बमूर्ति ने भी इतने आह महत्त्वपूर्ण सवाल का जल्दबाजी में जवाब देने से बचने की कोशिश की ।
उसने अपने टाइप राइटर की कुंजियों में लगी धूल साफ़ की और आँखें फाड़कर अपने उत्तेजित सिख साथी पर नज़र डाली।
तुसी की कैन्दे ओ ?' सुंदर सिंह ने उसी लहज़े में पूछा।
उसने अपना सिर इधर-उधर हिलाया और अपने साथी के जवाब में एक और शब्द जोड़कर कहा, “आप ठीक कहते हो ।
मैं ठीक ही कहता हूँ सुंदर सिंह उठकर दहाड़ा और हाथ हिलाते
हुए कहने लगा, 'मैं कहता हूँ, ये लोग काम के बारे में जानते हैं | जानते ही क्या हैं - ये सेक्रेटरीज़ एडीशनल सेक्रेटरीज़, ज्वाइंट सेक्रेटरीज़, डिप्टी सेक्रेटरीज़, अंडर 'सेक्रेटरीज़ और भगवान ही जाने कितने और फ़ैक्टरीज़ ” वह अपने इस नये मज़ाक पर ज़ोर से हँसा और कहता रहा, “ये मीटिंगें करने के अलावा और क्या करते हैं, चाय के कप खाली करते रहते हैं, दो-चार मीमो लिखवाते हैं और शाम को अपनी मेम साहबों के पास अपने को बहुत थका हुआ दिखाते हुए घर पहुँच जाते हैं।कहते हैं आज बड़ा बिज़ी रहा! वाह! बिज़ी रहे! हम जानते हैं कितने बिज़ी रहे। नहीं जानते क्या ?
सब सहमत थे कि वे जानते हैं।
और आप यह बात हलके में नहीं ले सकते क्योंकि वे भारत सरकार में काम करते थे और उसके काम करने के ढंग से परिचित थे।
जो ढंग बाहरी लोगों को रेड टेप की एक-दूसरे में उलझी कारगुज़ारियाँ लगता था, वह इन तीनों के लिए बिल्ली की उछल-कूद थी।
वे सरकारी नौकरशाही के नियम और कानूनों को आगे-पीछे चारों तरफ़ से जानते थे; रिपोर्ट, नोट्स और मीमोज़ के महत्त्व को बखूबी समझते थे और फाइलों की एक-से-दूसरी मेज़ पर आवाजाही को, जो कभी खत्म होने में नहीं आती थी और हर अफ़सर की समझ और उसूलों के अनुसार-जो शासन नामक कपड़े को बुनने वाले सीधे और उल्टे धागे थे-बदलते रहते थे ।
उनका विश्लेषण सरल था और अनुभव पर आधारित था। अगर टाइपिस्ट और स्टेनो मीटिंगों के मिनिट्स को क्रम और अर्थ नहीं देते-जो दोनों उनमें एकदम नदारद होते थे, तो इन बड़े अधिकारियों द्वारा लिये गये निर्णय किसी की समझ में भी नहीं आते ।
अगर वे ज़रूरी कागज़ अफ़सरों के दस्तखत के लिए उनके सामने न रखते, तो सब कामकाज एकदम ठप पड़ जाता।
कौन-सा बड़ा अफ़सर नियमों और कार्य पद्धति को उतनी अच्छी तरह जानता था जितनी कि वे जानते थे और कौन किसी भी फाइल को चुपचाप गुम कर देने और फिर उन्हें उसी तरह चुपचाप दूँढ़ निकालने की तरकीबें जानता था ?
इसलिए क्या यह ताज्जुब की बात नहीं थी कि भारत सरकार के सेक्रेटेरिएट नामक इस 50 हज़ार बरों के छत्ते की तरह दूर-दूर तक फैले बड़े-बड़े दफ़्तरों में सुंदर सिंह, साम्बमूर्ति और घोष की यह तिकड़ी ही वह आधार थी जो यह सारा भार अपने कन्धों पर सँभाले थी।
वे जानते थे कि जो बड़े-बड़े निर्णय लिये जाते हैं और जिन्हें लागू करने के लिए दूसरों पर छोड़ दिया जाता है, वे दो तीन लोगों के दिमाग़ की ही उपज होते हैं और ये लोग कभी इस व्यवस्था में सबसे ऊपर भी नहीं होते।
अपने महत्त्व की यह बात तीनों ने एकमत से स्वीकार कर ली, तो सुंदर सिंह ने घंटी बजाई ।
एक चपरासी ने दरवाज़ा खोला और यह जानने के लिए कि क्या बात है, तीनों की तरफ़ देखा।
चाय मँगारऊँ या कॉफ़ी ?” सुंदर सिंह ने साथियों से प्रश्न किया, फिर स्वयं ही उत्तर भी दिया, 'दों चाय और मद्रासी बाबू के लिए कॉफ़ी, फौरन! कुछ बिस्किट-शिस्कुट नहीं ?
अच्छा। दो चाय एक कॉफ़ी। और फौरन!” यह कहकर उसने चुटकी बजाकर भी 'फटाफट' का इशारा किया।
“आज पहली दफ़ा मुझे आने में देर हुई है,' सुंदर सिंह ने तीसरी बार यह बात कही-जो उसका पारा गरम होने का कारण थी।
'वह आदमी मुझसे कहता है, 'सुंदर सिंह, देर से आये हो!
इसी तरह सब लोग देर करके दफ़्तर आयें तो भारत सरकार कैसे चलेगी ?-तुम्हारा क्या खयाल है ?' मैं यह कहना चाहता था, 'तुम तो यह मत कहो, मिस्टर तुम कभी बजे से पहले दफ़्तर नहीं आते।
आज पहली दफ़ा तुम सही वक्त पर आये हो और मुझे किसी वजह से पाँच मिनट की देर हो गई है, तो तुम मुझे यह भाषण पिला रहे हो। लेकिन तुम लोग जानते हो, मैं कैसा आदमी हूँ।
मैंने सोचा, यह मामूली आदमी कल का बच्चा है यह, इसके लिए क्यों अपनी ज़बान खराब करूँ ?
इसलिए मैंने यही कहा, 'सॉरी, सर। कोई चिट्ठी लिखनी है ?” तो वह कहता है, 'नहीं, अभी मेरे पास वक्त नहीं है। बाद में बुलाऊँगा।
लेकिन इस तरह देर से आना मुझे पसन्द नहीं है। हाँ ।' सुंदर सिंह फट पड़ा। फिर उसकी नकल करते हुए कहने लगा, 'मुझे इस तरह देर से आना पसन्द नहीं है।...की कैन्दे ओ, घोष बाबू ?
“इस दुनिया में न्याय तो है ही नहीं,” घोष ने दार्शनिकता दिखाते हुए कहा।
“बिलकुल नहीं है,” साम्बमूर्ति ने जोड़ा।
चाय और कॉफ़ी आ गई। तीनों स्टेनो अपनी मेज़ और टाइप राइटर छोड़कर उठे और कमरे के बीच में कुर्सियाँ डाल लीं और इनके बीच एक और कुर्सी ट्रे रखने के लिए रख ली। सुंदर सिंह ने चाय और कॉफ़ी कपों में डाली और तीनों आधे घंटे का आराम करने लगे।
“यूरोप में,” घोष बाबू ने बहुत सी किताबें पढ़ी थीं, कहना शुरू किया, “चाय कॉफ़ी या कोको के लिए ग्यारह बजे सब लोग काम बन्द कर देते हैं, कोई शराब भी लेता है। इसे वे “इलेविन्सेज़” कहते हैं,
“बहुत समझदार हैं,” साम्बमूर्ति बोला। “अंग्रेज़ी में कहावत है न कि “ऑल वर्क एण्ड नो प्ले, मैक्स जैक ए डल बॉय” ” साम्बमूर्ति अंग्रेज़ी कहावतें और जुमले अक्सर बोला करता था।
लेकिन” सुंदर सिंह ने विरोध किया, “यह खेल तो है नहीं। तुम हमेशा गलत समझते हो। यह काम के बाद आराम है। अच्छा, घोष बाबू, इलेविन्सेज़ के लिए कितना वक्त दिया जाता है ?
“यही करीब आधा घंटा,' घोष ने अधिकारपूर्वक कहा ।'बात यह है कि वहाँ चपरासी, बैरे, कुक और नौकर वगैरह तो होते नहीं। अपनी चाय या कॉफ़ी खुद बनानी होती है या होटल, रेस्तराँ में जाना पड़ता है।
'तो काम तो बिलकुल रुक जाता होगा? सुंदर सिंह ने पूछा।
“बिलकुल !'
अच्छा, वाह!
हमें एलेविन्सेज़ के लिए ज़रा भी टाइम नहीं मिलता। हमें क्लर्कों की एसोसिएशन में यह बात रखनी चाहिये ।
हाँ, हमें भी आधे घंटे की छुट्टी मिलनी चाहिये । अच्छा, देखते हैं ।” यह कहकर सुंदर सिंह ने घड़ी देखी और कहा, “इस वक्त पौने ग्यारह हैं। तो पौने ग्यारह से सवा ग्यारह तक ।
“यह पापुलर माँग होगी,' साम्बमूर्ति ने उत्साह से कहा। "मैं प्रस्ताव पेश करूँगा ।'
इस फ़ैसले से सबके चेहरे खिल उठे। वे आराम से सुड़क-सुड़ककर चाय पीने लगे। जब प्याले खाली हो गये तो सुंदर सिंह ने चपरासी के लिए घंटी बजाई। चपरासी दरवाज़े से भीतर आया तो तीनों ने अपने-अपने पर्स जेबों से निकाले और कहने लगे-
“नहीं, नहीं, आज मेरी बारी है।'
“नहीं, नहीं, मेरी बारी है। तुमने कल दिया था।
हमेशा की तरह ज़्यादा ताकतवर सिख विजयी हुआ । उसने सबके पर्स जेबों में वापस डलवा दिये, ट्रे में ज़बर्दस्ती पैसे रख दिये और चपरासी को बाहर भेज दिया। फिर अपनी-अपनी कुर्सियाँ उठाकर वे मेज़ों पर चले गये।
इस वक्त सवा ग्यारह बजे थे-गैर-सरकारी इलेविन्सेज़ खत्म हो गया था।
अच्छा, नई खबरें क्या हैं ?” साम्बमूर्ति नें टाइप राइटर खड़खड़ाते हुए पूछा।
सुंदर सिंह ने घंटी बजाई। चपरासी फिर आ खड़ा हुआ।
“ओए, जाओ और मिनिस्ट्री की लायब्रेरी से आज के अखबार ले आओ। कह देना, बड़े साहब ने आधे घंटे के लिए मँगाये हैं।
पाँच मिनट बाद चपरासी अखबारों का बंडल ले आया और सूबों के हिसाब से तीनों में बाँट दिये।
तीनों नज़रें गड़ाकर पढ़ने में लग गये। घोष बाबू की राजनीति में रुचि थी और वह जानना चाहता था कि दुनिया में क्या हो रहा है। वह अपना यह कर्तव्य भी समझता था कि अपने साथियों को भी वह सब बताये जिससे उनकी दृष्टि
विकसित हो । उसने खास-खास खबरें चुन लीं और उन्हें ज़ोर-ज़ोर से पढ़कर सुनाने लगा-साथ में वह टीका-टिप्पणी भी करता जाता था। उनकी उत्सुकता जगाने के लिए वह बीच-बीच में 'अरे बाबा' या 'बाप रे बाप” भी कहता जाता था।
साम्बमूर्ति को अपने प्रदेश की खबरें अच्छी लगतीं और वह 'अये, अये अये' की भूमिका बाँधकर उनके आपसी झगड़ों पर भी रोशनी डालता जाता था । सुंदर सिंह आखिरी पन्ने से शुरू करता और बीच के पन्ने से आगे नहीं बढ़ पाता था।
'वाह रे वाह' वह इन दोनों के यह बताने से पहले कि पूर्व-पश्चिम संकट में आज की स्थिति क्या रही या ब्राह्मणों और अब्राह्मणों की लड़ाई का क्या नतीजा निकला, बोल पड़ता, 'होम मिनिस्ट्री ने डिफेंस के खिलाफ़ वाला मैच जीत लिया है। अब लंच के बाद वे हमारे साथ खेलेंगे । मुझे अपनी टीम को खबर देनी चाहिये ।'
सुंदर सिंह फ़ोन करने में उलम गया। खबर सबको मिल गई थी लेकिन मैच पर टीका-टिप्पणी नहीं हो सकी थी और यह कि अगले मैच में कया होगा।
सुंदर सिंह जब-जब रिसीवर रखता, उसके मुँह से यही शब्द निकलते, 'हम उन्हें इतनी ज़बर्दस्त शिकस्त देंगे, कि उन्हें ज़िंदगी भर याद रहेगी ।'
उसने अपने साथियों से भी कहा, 'तुम लोग भी ज़रूर आना। मज़ा आयेगा ।
घोष बाबू ने अखबार टाइप राइटर पर रख दिया। “अगर बहुत देर न हुई तो। पता नहीं चलता, कब ये साहब लोग लंच करके वापस आ जायें।'
“अरे, तीन बजे से पहले कभी नहीं आते। नहीं जानते, बिज़ी दिखने का नाटक कैसे करते हैं ? भले ही करने को कुछ न हो, हमेशा लंच के लिए लेट जायेंगे, जिससे कम से कम बीवी तो यही समझे कि कितना काम रहता है।'
साम्बमूर्ति तैयार हो गया । हालाँकि खेलों में उसे रुचि नहीं थी, लेकिन अपनी मिनिस्ट्री का उत्साह बढ़ाना वह अपना कर्तव्य समझता था-खासतौर से अपने साथी का, जो टीम का खास खिलाड़ी था।
वे काम करने लगे। इस वक्त पौने बारह बजे थे।
सुंदर सिंह ने स्पोर्ट्स का पेज खत्म किया और दूसरे महत्त्वपूर्ण विषय, विवाह, का पेज खोला । इसमें शादी के विज्ञापन भरे पड़े थे और वह आँखें चमका-चमकाकर उन्हें पढ़ता रहा । फिर बोला, 'घोष बाबू, यह आपके लिए बढ़िया है : एक निस्संतान कुँवारी विधवा के लिए वर चाहिये-लेकिन इसका मतलब क्या हुआ ? जो कुँवारी है वह निस्संतान तो होगी ही ।'
साम्बमूर्ति ने दाँत निपोरकर कहा, “अगर वह पंजाबी हुई तो कहा नहीं जा सकता । ऐसी लड़कियाँ हमारे साउथ में नहीं होतीं। यह ठीक ही लगता है । इसके
बाद उसने एक साउथ का विज्ञापन ज़ोर-ज़ोर से पढ़ा फिर बोला, 'सरदार साहब, अगर आप शादीशुदा न होते तो ट्राई कर सकते थे । खैर, कुंडली तो भेज ही दीजिए । इससे उन्हें पता नहीं चलेगा कि आपके दाढ़ी भी है-और उन्हें डर नहीं लगेगा ।
'तुसी कुंडली क्यों माँगते हो, फोटो क्यों नहीं माँगते ? उसमें कया होता है ?” सुंदर सिंह ने सवाल दाग़ा।
साम्बमूर्ति ने शान्ति से जवाब दिया, “खूबसूरती ज़्यादा दिन नहीं चलती । अच्छा भाग्य हमेशा साथ देता है।'
'तुसी सारे अंधविश्वासी हो,' सुंदर सिंह ने हमला किया। तरह-तरह की जातियाँ और उनकी भी शाखाएँ और सबमें लिखा है, “सी एण्ड डी नो बार” इसका मतलब पता है? यानी जाति या दहेज की रोक नहीं ।
तीनों दोस्त देर तक अपने-अपने प्रदेशों की शादी के रीति-रिवाज़ों की चर्चा करते रहे और बहस करते रहे, लेकिन सभी शादीशुदा थे और उनके कई-कई बच्चे भी थे। दरअसल रोज़ यही सब बातें होती थीं-इसलिए लगता था कि इसमें सभी की गहरी रुचि है। यह याराना, गपशप दोपहर तक चलती रही।
सुंदर सिंह ने अपना कोट उतारा और कुर्सी के ऊपर दीवार में लगी कील पर टाँग दिया। फिर दो शीट कागज़ के निकाले, उनके बीच कार्बन पेपर लगाकर मशीन में डाला और टाइप करना शुरू किया : 'डियर सर, रेफ़रेन्स योर लेटर नंबर...,' और अधूरा छोड़ दिया।
'मुझे जल्दी लंच कर लेना चाहिये, नहीं तो अच्छा खेल नहीं सकूँगा। तुम लोग अपना खाना वॉलीबॉल ग्राउंड पर ही ले आना ?
घोष और साम्बमूर्ति ने सिर हिलाये।
उसने घंटी बजाई। “देखो,” चपरासी से उसने षड़्यन्त्र जैसे लहज़े में कहा; अगर साहब साढ़े बारह से पहले मेरे लिए फ़ोन करें तो कह देना अभी कहीं किसी काम से गया हूँ-बाथरूम या और कुछ । कहना, मेरा कोट यहीं टँगा है और मेज़ पर भी कागज़ वगैरह पड़े हैं। अगर इसके बाद आये तो कहना कि अभी लंच करने गये हैं।'
चपरासी मुस्कुराया।
तुसी हँसदे क्यों हो ?” सुंदर सिंह ने पूछा, 'हम भी तो तुम्हारे लिए यही करते हैं ?
सुंदर सिंह उठा और नीचे कैंटीन की तरफ़ चला गया । कई सब्ज़ियाँ, दाल तड़केवाली, कई रोटियाँ और बाद में आइसक्रीम का ऑर्डर दिया। डटकर धीरे-धीरे खाया और गरम चाय के प्याले से सब माल पेट में जमाया। फिर कैंटीन-मैनेजर के साथ पान चबाते हुए दफ़्तरी गप-शंप करने में लग गया।
'सरदार साहब, आप मुझे यह बताओ कि आजकल आपकी हॉबीज़ क्या चल रही हैं?' कैंटीन मैनेजर ने, जो खुद भी पंजाबी था, पूछा।
'हॉबीज़ ?” सुंदर सिंह ने गर्मी दिखाते हुए कहा। 'हॉबी-शॉबी के लिए वक्त ही कहाँ मिलता है? सवेरे से लेकर रात तक इस बहन...दफ़्तर में पिलना पड़ता है। जब शाम को घर लौटते हैं, ताक़त ही कहाँ बचती है। यह भी कोई ज़िन्दगी है ?
'सुंदर सिंह जी, काम भी तो किसी को करना ही पड़ेगा और आप से अच्छा करेगा भी कौन? मैनेजर ने समझौता करते हुए कहा।
सुंदर सिंह ने खुश होकर अपनी तारीफ़ स्वीकार कर ली, लेकिन वह मैनेजर को ज़रा भी शक-शुबहा नहीं होने देना चाहता था-क्योंकि ये लोग ही दफ़्तर की अफ़वाहों के केन्द्र होते हैं।
“बहुत से लोग तनख्वाह से मिलने वाली रकम के अलावा अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए प्राइवेट बिज़नेस भी चलाते हैं। पता नहीं, उन्हें इसके लिए वक्त कैसे मिल जाता है ? मुझे तो टेबिल से सिर उठाने की भी फुर्सत नहीं मिलती। आमदनी तो मैं भी बढ़ाना चाहता हूँ। बीवी है और कई बच्चे भी हैं-लेकिन वक्त ही कहाँ है ?
“इसके अलावा आपके और मेरे जैसे लोग तो ये सब कर ही नहीं सकते,' मैनेजर ने बहस में शामिल होते हुए कहा। 'सरकार हमें तनख्वाह देती है-वह जैसी जो कुछ भी क्यों न हो दफ़्तर में बैठकर काम करने के लिए देती है, निजी बिज़नेस के लिए तो नहीं देतीं। यह अच्छी बात नहीं है। है न ?”
“हरगिज़ नहीं है। और फिर दफ़्तर की सिरखपाई के बाद ताकत भी कहाँ रहती है ?”
लोग लंच के लिए आने लगे और चर्चा में बाधा पड़ने लगी। सुंदर सिंह ने मैनेजर से हाथ मिलाया और चला गया। सवा बज गया था। पन्द्रह मिनट बाद मैच शुरू होना था।
वह बाहर खुले में आया और सेक्रेटेरिएट के बगल वाले मैदान की ओर चल पड़ा । क्लर्क लोग छोटे-छोटे ग्रुप बनाये बैठे थे और टिफिन में लाया खाना मिल-बॉटकर खा रहे थे। दूसरे लोग फल, मिठाई और चाट की रेहड़ियों के इर्द-गिर्द जमे थे।
लॉन के बीचोंबीच दो बाँस गाड़कर वॉलीबॉल का जाल (नेट) लटकाया जा रहा था और उसके इर्द-गिर्द खेल में भाग लेने वाले युवक तैयारी कर रहें थे।
सुंदर सिंह का 'हलो' और कन्धे थपथपाकर ज़ोरदार स्वागत किया गया ।
आखिरकार वह अपनी मिनिस्ट्री का सबसे लोकप्रिय कर्मचारी होने के साथ-साथ टीम का सबसे महत्त्वपूर्ण खिलाड़ी भी था और आज मैच का सेमीफाइनल होना था।
अगर वह जीत जाता है तो फाइनल का खेल बहुत शानदार होगा जिसमें कोई मन्त्री या बड़ा अफ़सर इनाम बाँटने आयेगा।
सुंदर सिंह ने अपनी पगड़ी उतारी, बालों का जूड़ा बनाकर उन्हें रूमाल से बाँध दिया और साथियों के साथ बैठकर खेल की बातें करने लगा-कि जीतने के लिए क्या करना है।
डेढ़ बजे मैच शुरू हुआ और सैकड़ों क्लर्क, टाइपिस्ट और सामान्य वर्ग के कर्मचारी चिल्ला-चिल्लाकर अपने-अपने खिलाड़ियों का स्वागत करने लगे। घोष बाबू और साम्बमूर्ति भी इनमें शामिल थे।
लोगों का उत्साह उमड़ा पड़ रहा था। दफ़्तर से जल्दी उठ आने का उनमें जो थोड़ा-बहुत संकोच था, वह भी समाप्त हो गया था। साहब लोग लंच के लिए ज़रा देर से ही निकलते हैं और आराम करने के बाद तीन से चार बजे तक वापस लौटते हैं।
मैच में बराबरी की टक्कर थी और दो पारी खेलने के बाद वह जैसे रुक सा गया।
फिर थोड़ी देर आराम करके पाँचवीं और अंतिम पारी शुरू हुई जिसमें भारत सरकार के दो प्रमुख मन्त्रालयों की प्रतिष्ठा दाँव पर लगी थी।
सुंदर सिंह चारों पारियों में अच्छा खेला था और इसमें तो उसने ज़बर्दस्त कौशल दिखाना शुरू किया। वह चीते की तरह बॉल पर लपकता और बन्दूक की तरह उसे इस तरह मारता कि वह तेज़ी से उछलती नेट के उस पार जाकर ही गिरती।
गृह मन्त्रालय की रक्षा पंक्ति उसके हमलों के सामने हरहराकर गिर पड़ी और सुंदर सिंह की टीम की विजय घोषित हुई, जिसके तुमुलनगाद को सुनकर सचिवालय के आराम से सो रहे कर्मचारी भी खिड़कियों पर यह देखने आ खड़े हुए कि क्या हो रहा है। विजेताओं का भी हीरो कौन था, यह साफ़ था।
यद्यपि वह पसीने से नहा उठा था, सबने उसे गले लगाया और उसकी दाढ़ी को भी चूमा। थकान से चूर वह ज़मीन पर लेट गया।
दोनों टीमों के खिलाड़ियों को सोडा वाटर पिलाया गया, सुंदर सिंह के मित्रों ने उसे मिठाई खिलाने की ज़िद की। उसने स्वीकार कर लिया क्योंकि वह उनकी भावनाओं को चोट नहीं पहुँचाना चाहता था। लेकिन उसके दिमाग में घड़ी की टिक-टिक जारी थी, जिससे उसे परेशानी हो रही थी।
पौने चार बजे वह अपने प्रशंसकों के बीच से निकला और दफ़्तर की ओर बढ़ा। दरवाज़े में घुसते ही उसने दूसरे लोगों की तरह कर्मचारी की मुद्रा अख्तियार कर ली।
घोष बाबू और साम्बमूर्ति पहले ही अपनी कुर्सियों पर पहुँच गये थे। उन्होंने उत्साह से उसका स्वागत किया और उसके खेल की प्रशंसा की।
उन्होंने बताया कि बड़ी देर से टेलीफ़ोन बजता ही जा रहा है और हर कोई उसे बधाई देना चाहता है। सुंदर सिंह को यह सही नहीं लगा कि वह मित्रों को बता दे कि वह दफ़्तर वापस आ गया है।
कुछ ही मिनटों में उसके कमरे में क्लकों और टाइपिस्टों की भीड़ लग गई, जो उसे थपथपा रहे थे और उससे हाथ मिला रहे थे। जब वे वापस लौटे, चार बज गये थे। सुंदर सिंह ज़रा परेशान हुआ।
'क्या साहब या किसी और ने इस बीच मुझे बुलवाया या कोई आया ?
“नहीं, नहीं, सब एकदम ठीक है। साहब किसी और मीटिंग में हैं। चपरासी मिनिट्स लिखने के लिए किसी और स्टेनो को वहाँ पहुँचा आया ।' ह सुंदर सिंह को यह सुनकर तसल्ली हुई।
“इस जीत के लिए हमें तुमको चाय पिलानी चाहिये,' घोष और साम्बमूर्ति ने एक साथ कहा।घंटी बजाई गई और चपरासी को दो चाय और एक कॉफ़ी लाने को कहा गया। चार बज गये थे और अंग्रेज़ों ने भारतीयों को जो सिखाया था और जिसे उन्होंने उत्साह से सीख भी लिया था, वह था शाम की चाय को औपचारिक महत्त्व देना। इस वक्त बड़े से बड़ा अफ़सर भी छोटे-से-छोटे क्लर्क के चायपान में बाधा डालने से परहेज़ करता था।
शाम की इस चाय के समय नियुक्तियों, उन्नतियों और स्थानांतरणों तथा दफ़्तरी राजनीति पर चर्चा करना आम रिवाज़ था, लेकिन सुंदर सिंह का दिमाग़ खेल में हुई जीत से इतना सराबोर था कि अपने पिछले बॉस की अपने विरुद्ध दी गई रिपोर्ट या वर्तमान बॉस की कुत्तेवाली नीति की चर्चा करना उसके लिए सम्भव नहीं हुआ-इस बॉस द्वारा उसके खिलाफ़ रिपोर्ट देने के बावजूद जब उसने किसी और काम पर भेजे जाने की अर्ज़ी दी, उसे अलग करने से इनकार कर दिया था। सफलता से द्वेष समाप्त होता है और हरेक के प्रति सदूभावना उत्पन्न होती है।
आज के खेल में उसे जो सफलता प्राप्त हुई थी, उसने सुंदर सिंह को हर अफ़सर के प्रति उदार बना दिया था और उसके साथियों का भी यह मानना था कि सफलता का मार्ग अनेक कठिनाइयों से भरा है।
'मि. सिंह, साम्बमूर्ति ने कॉफ़ी का घूँट लेते हुए कहा, "जैसा मैंने पहले भी कहा है, सरकारी नौकरी में सफलता पाना बहुत आसान है। तुम अपने से ऊपर वाले की हाजिरी बजाओ और बाकी सबको भूल जाओ ।
इसका काम या योग्यता या और किसी चीज़ से कोई लेना-देना नहीं है। वह जो भी कहे, उससे “यस सर”; “यस सर” कहो, त्योहारों पर उसके लिए फूल और उसके परिवार के लिए मिठाई लेकर जाओ; उसके बच्चों के साथ, अगर हों तो, खेलो, उसकी बीवी के हुकुम बजा लाओ, घर के छोटे-मोटे काम करो, जैसे बढ़ई या बिजलीवाले को बुलाकर काम करवाना--और तुम्हें हमेशा सबसे ऊपर रखा जायेगा।
फिर तुम्हें कोई हाथ नहीं लेगा सकता । तुम्हारा प्रोमोशन पर प्रोमोशन होता चला जायेगा । तुम अंडर सेक्रेटरी तक पहुँच सकते हो और अंडर सेक्रेटरी का पद स्टेनोग्राफर की महत्त्वाकांक्षा का सर्वोच्च स्थान होता है।'
“लेकिन, मिस्टर मद्रासी, यह सब मैं हरगिज़ नहीं कर सकता,” उसने घमंड दिखाते हुए कहा-और यह वह एकदम भूल गया कि ऐसा उसने कई बार किया था और अपने साथियों के मशवरे से ही किया था।
उसने अपने सीने पर हाथ फिराते हुए दोबारा यह बात दोहराई, 'हरगिज़ नहीं, तुम लोग मुझे काम जितना भी ज़्यादा करने को कहो-रात-दिन काम करवाओ-मैं करूँगा, लेकिन किसी के जूते चाटने का काम तो कभी नहीं। की कैन्दे ओ, घोष बाबू ?
घोष बाबू मान गये कि वे तीनों और लोगों की तरह आगे बढ़ने के लिए किसी की चमचागिरी कभी नहीं कर सकते । अगर योग्यता और मेहनत ही अन्तिम निर्णायक है, तो वे दुनिया भर में किसी के भी साथ मुकाबला करने को तैयार हैं। इस आम सहमति के बाद तीनों ने हाथ मिलाये और दफ़्तर से निकले।
पाँच बज गये थे-दफ़्तर बन्द होने का समय।
सेक्रेटेरिएट की इमारतों से दूर-दूर बसी नई बस्तियों की तरफ़ ले जानेवाली अनेक चौड़ी-चौड़ी सड़कों पर हज़ारों साइकिलों पर जानेवाले कर्मचारियों में, जो इन नौकरियों से मिलने वाली मामूली तनख्वाहों पर अपने बड़े-बड़े परिवारों में किसी तरह गुज़र-बसर करते थे, सुंदर सिंह भी एक था। ये सब इस वक्त काफ़ी थके-माँदे होते और आज सुंदर सिंह इन सबसे ज़्यादा थका नज़र आता था।
वह आम तौर पर रास्तों के किनारे रेहड़ियाँ लगाये दुकानदारों से सब्जी वगैरह खरीदता और साइकिल के कैरियर पर लटकाकर घर ले जाता, पर आज वह धीरे-धीरे किसी तरह घर की तरफ़ बढ़ता रहा।
हमेशा की तरह घर पर उसका स्वागत किया गया। उसका पाँच साल का बेटा दौड़मर आया और साइकिल की सवारी के लिए लपका, लेकिन सुंदर सिंह ने उसे झटक दिया और पत्नी से भी बिना कुछ बात किए आँगन में पड़ी चारपाई पर लेट गया।
उसकी तीन साल की बच्ची रोज़ की तरह कूदकर उसके पेट पर सवार हो गई, लेकिन सुंदर सिंह ने उसे उतार दिया। दोनों बच्चे डर से गये और माँ के पास रसोईघर में घुस गये।
पत्नी निकलकर आई और पूछने लगी, क्या आज बहुत थक गये हो? बहुत ज़्यादा काम करना पड़ा ?
रोज़ ही करना पड़ता है। तुम औरतें क्या जानो, हमारे मुल्क की सरकार कैसे चलती है!