दौलत राम की मोत

खुशवंत सिंह की संपूर्ण कहानियाँ - Khushwant Singh Short Stories

जिस दिन दौलत राम की मौत हुई, कुछ ऐसी बातें घटित हुईं,

जो उनके बेटे को, जब वह उन घटनाओं को अपने दिमाग में घुमाने-फिराने लगा, काफ़ी कुछ अजीब-सी लगीं।

21 जुलाई को सवेरे रंगा को पहली चेतावनी प्राप्त हुई ।

वह एक रेस्तराँ में बैठा सवेरे की दूसरी कॉफ़ी पी रहा था।

इस रेस्तराँ में वह हर रोज़ जाता था।

यह साफ़-सुथरी अच्छी जगह थी जिसकी सजावट टीक की पट्टियों से, जिनके चारों ओर सुनहरी लाइनें खिंची थीं, की गई थी। फ़र्श की दरी और खिड़कियों पर पड़ी झालरें गहरे भूरे रंग की थीं और छत पर चमकते नीले रंग का हीरे की तरह जगमग करता फ़ानूस टँगा था।

कमरे की हवा को ठंडा किया जाता था। गर्मी के दिनों में यह शहर की सबसे शान्त और शीतल जगह थी।

आज उतनी गर्मी नहीं थी जितनी जुलाई में आमतौर पर पड़ती है। सवेरे थोड़ी-सी बारिश हुई थी। आसमान में अभी भी बादल छाये थे।

हवा में नमी होने के कारण एयर-कूलर का असर नहीं पड़ रहा था।

लोग आते, थोड़ी देर बैठते, छत की तरफ़ पंखों के लिए नज़र डालते-जो रेस्तराँ में थे ही नहीं-तो ऑर्डर वापस लेकर उठ जाते।

सिर्फ़ पड़ोस के दफ़्तरों से आने वाले लोग, जो हमेशा यहाँ आते थे, बैठे रहते। रंगा भी हमेशा आने वालों में से था।

गोवा का तीन वाद्यों का बैंड बजने लगा। रंगा समझ नहीं पाता था कि वे क्‍या बजा रहे हैं, लेकिन वह जानता था कि यह हल्का संगीत नहीं है।

यह कुछ ऐसा है जो उसे कप मेज़ पर रखकर उसे सुनने को प्रेरित करता है। उसे लगता था कि इसका कुछ विशेष महत्त्व ज़रूर है, उसने बाद में भी यही सोचा कि इसका कुछ महत्त्व होना ही चाहिये।

जैसे ही बैंड ने यह टकड़ा बजाना खत्म किया, बार के पीछे छिपा टेलीफ़ोन बज उठा।

रगा यह तो समझ नहीं पाया कि बारमैन क्या कह रहा है, लेकिन उसने यह ज़रूर देखा कि वह सिर झुकाकर और एक कान को उँगली से बन्द करके सुनने की कोशिश ज़रूर कर रहा है और शायद यह भी कह रहा है कि ज़रा ज़ोर से बोलों।

फिर उसने कागज़ का एक टुकड़ा उठाया, उस पर कुछ लिखा और फ़ोन में उसे दोहराकर सन्देश की पुष्टि की ।

फिर उसने रिसीवर रख दिया और हॉल में सिर घुमा-घुमाकर देखने लगा कि जो नक्शा फ़ोनवाले ने बताया है, उसे पूरा करने वाला आदमी कौन है। लाइट हाउस की रोशनी की तरह उसकी आँखें इधर-उधर घूमीं और रंगा पर आकर टिक गईं।

रंगा ने उसकी नज़र बरदाश्त न कर पाने के कारण अपना सिर नीचे कर लिया। बारमैन को पूरा संतोष हो गया तो वह उठकर रंगा के पास आया और कहने लगा, “आपके लिए टेलीफ़ोन है, सर ।

रंगा ने यह नहीं सोचा कि बारमैन सबसे पहले उसी के पास क्‍यों आया या यह कि उसने नाम पूछकर निश्चय क्‍यों नहीं किया और एकदम कह दिया कि आपके लिए टेलीफ़ोन है। जब बाद में उसने इस पर सोचा तो उसे याद आया कि बारमैन के उसके पास पहुँचने से पहले की वह उठकर खड़ा हो गया था और उसे यह भी याद आया कि उसने किसी तरह यह भी महसूस कर लिया कि खबर अच्छी नहीं होनी चाहिये।

यह पहली दफ़ा ऐसा नहीं हुआ था कि रेस्तराँ में उसके लिए फ़ोन आया था। उसके बहुत से दोस्त जानते थे कि वह ग्यारह बजे यहाँ आकर कॉफ़ी पीता है। वह हमेशा दफ़्तर से निकलने से पहले कहता : "मैं कॉफ़ी पीने जा रहा हूँ। कोई खास बात हो तो सन्देश भेज देना लेकिन वह समझ गया था कि यह फ़ोन न उसके किसी दोस्त का है, न दफ़्तर से आया है। उसने फ़ोन लिया तो किसी ने कहा, 'फौरन घर आ जाओ, तुम्हारे पिता बीमार हैं ।” उसने फ़ोन करने वाले का नाम भी नहीं पूछा।

बात बड़े साधारण ढंग से कही गई थी; बाद में रंगा को लगा कि कोई बूढ़ा आदमी था। रंगा घर लौट आया यह पहली बार दौलत राम अचानक बीमार नहीं हुए थे। समस्या उनकी पित्त बढ़ने की थी।

भोजन में ज़रा-सी असावधानी पेट में ज़बर्दस्त दर्द पैदा कर देती थी। तब मार्फ़िया के इंजेक्शन और दूसरी दवाएँ देकर उन पर काबू पाया जाता था।

दर्द तो बन्द हो जाता, लेकिन उन्हें दो हफ़्ते बिस्तर पर बिताने पड़ते। तब वह बड़ी शान्ति से वक्‍त बिताते और अपने घरवालों को इकट्ठा करके उन्हें समझाते कि गलत खाने से ही सब बीमारियाँ पैदा होती हैं, और अब वह बिलकुल सादा और उबला हुआ खाना ही खायेंगे और निश्चित समय पर ही खायेंगे, फिर उनकी ज़िन्दगी बड़े आराम से गुज़रेगी।

“आदमी मरता नहीं है, वही खुद को मार डालता है,' वे प्रायश्चित करने की भावना से कहते। कुछ दिन तक वे इस तरह व्यवहार करते और हिस्की के विशेष गिलास में संतरे का रस भरकर पीते।

वे अपने मेहमानों से भी ज़िद करके यही पीने के लिए कहते, जिससे उनकी प्रबल इच्छा-शक्ति प्रमाणित हो। “एक गिलास लेकर देखिये तो,' वे आग्रह करते और नई अर्जित दिव्यता का मुखौटा धारण करके बताते, 'मैंने पीना छोड़ दिया है। चालीस साल तक डटकर पीने के बाद अब छोड़ पाना आसान तो नहीं हुआ, लेकिन अब वह कमी महसूस भी नहीं होती । दरअसल अब मैं ज़्यादा स्वस्थ महसूस करता हूँ।'

इसके बाद कहीं बाहर जाने का निमन्त्रण मिलता, तब एक छोटा पैग लेते-'सिर्फ़ एक छोटा पैग, डॉक्टर कहते हैं कि इससे कोई नुकसान नहीं होता ।' फिर एक के दो हो जाते और दो के तीन । फिर उन्हें छविस्की के लिए बाहर जाने की ज़रूरत ही न होती।

वे अपने नौकर को इतने साधारण ढंग से लाने को कहते जैसे पठन-कक्ष (स्टडी-रूम) से चश्मा मँगवा रहे हों। जब पत्नी किसी काम से बाहर जाती तो एकदम गटक जाते और एक और मँगवा लेते। इसे वे आराम से इस तरह पीते जैसे पहला पी रहे हों और डिनर से पहले एक छोटा पैग कोई नुकसान नहीं करेगा की दलील देकर पी लेते।

अगर पत्नी ज़रा भी नाक भौं सिकोड़कर देखतीं तो पूछते कि हर वक्‍त टीका-टिप्पणी क्‍यों करती है। इस तरह की दलील देकर तीन या चार पैग हिस्की पी लेते, कुछ आराम से और कुछ जल्दी से गटककर, पेट में चली जाती।

फिर देर से डिनर होता तो, 'इस उबले हुए खाने से फ़लाने के यहाँ की तली हुई मछली कितनी मज़ेदार होती है। हमारा रसोइया वैसी क्‍यों नहीं बना पाता ? या 'हमें मीट और अंडे और उनके साथ गाजर मूली भी खाना चाहिये। इनमें प्रोटीन होता है।' उन्होंने भोजन के बारे में बहुत कुछ पढ़ रखा था और ए से जेड तक सब विटामिनों के बारे में जानते थे। वे तब तक इन्हें खाते चले जाते जब तक वर्णमाला के ये अक्षर उनके पेट में पत्थर बनकर उछलना-कूदना शुरू नहीं कर देते ।

इसके बाद जो ज़बर्दस्त दर्द शुरू होता और ज़ोर-ज़ोर से कराहने की आवाज़ें उठतीं, उनमें पत्नी के ये शब्द कि, 'तुम कभी मेरी तो सुनते ही नहीं,' भीतर ही डूब जाते। फिर वही नर्सों, डॉक्टरों, मार्फ़िया के इंजेक्शनों, रिश्तेदारों को तार देने का ताँता शुरू हो जाता-“भगवान न करे कि कोई अनहोनी घट जाये,

फिर आराम और हमेशा का मुहावरा, "आदमी मरता नहीं, वह खुद अपने को मारता है ।

पहली दो-तीन दफ़ा तो रंगा को ये चेतावनियाँ काफ़ी परेशान करने वाली ही लगीं। घर में पूछताछ की गई, 'ज़रा सोचकर बताओ, पापा की उम्र अब क्‍या होगी?” और 'अरे, यह तो कोई ज़्यादा नहीं है।

' इसके बाद वह कुछ निश्चिन्त हो गया। अब वह पहली बात यह कहता, 'तो फिर शुरू हो गये ।' लेकिन इस बार, जैसा मैंने पहले कहा, रंगा को लग रहा था, कि मामला गम्भीर है। बाहर का मौसम भी खराब था। सूरज काले, घुमड़ते बादलों से बेतरह लड़ रहा था, जो उसे बार-बार ढक लेते थे।

ज़रा भी ठंडी हवा नहीं चल रही थी और बगीचे के पेड़ जैसे मुँह लटकाये खड़े थे और घर भी-हालाँकि यह कहना सही नहीं लगता-विधवा की तरह दुखी दिखाई दे रहा था।

इसकी वजह घर की दीवारें थीं। इग्ज़ोरा की जो बेल चारों तरफ़ अपनी हरी-भरी पत्तियों और खिले हुए गुलाबी फूलों से लहलहाती फैली रहती थी, इस समय जगह-जगह से खुश्क और खाली नज़र आती थी और लगता था कि घर को जैसे लकवा मार गया है।

इस समय वहाँ एकदम शान्ति छाई हुई थी।

कहीं कोई दिखाई नहीं दे रहा था। ऐसा पहले कभी नहीं होता था।

सामान्यतया घर भर के बच्चे और सभी उम्रों के नाती-पोते अपनी-अपनी आयाओं के साथ इधर-उधर दौड़ लगाते दिखाई देते, और उनके साथ नौकरों के बच्चे भी मिल-जुलकर खेलते-कूदते रहते ।

हॉल के प्रवेश द्वार पर आज टेलीफ़ोन के पास बैठा चपरासी भी दिखाई नहीं दिया, टेलीफ़ोन भी मेज़ से हटा दिया गया था। सामने वाले मैदान में मिलने-जुलने वालों की गाड़ियाँ भी नहीं थीं और चपरासी इस समय शायद अपनी बीवी के पास बैठा चिलम पी रहा होगा।

लेकिन चपरासी ने शायद इस बात पर ध्यान नहीं दिया था कि भिखारी इसका फ़ायदा उठा सकते हैं। इन पर काबू करने के लिए वह ज़्यादातर अपने अलसेशियन कुत्ते, मोती, पर निर्भर करता था । मोती पोशाक से ही लोगों को पहचान लेता था। वह यूरोपियन वेशभूषा को ही पसन्द करता था और बाकी सबकी धोती या कुर्ता दाँत से खींचकर उन्हें बाहर भगा देता था।

लेकिन इस सुबह वहाँ एक भिखारी ही दिखाई दे रहा था। वह प्रवेश मार्ग के बीचोंबीच चुपचाप बैठा था। उसका सिर घुटनों के भीतर था और दोनों हाथ घुटनों को घेरे हुए थे। मोती कुछ दूर खड़ा उसका जायज़ा ले रहा था, कभी उसकी दायीं तरफ़ देखता, कभी बायीं तरफ़ और कोशिश कर रहा था कि उसकी असलियत को पहचाने.. रंगा कार से बाहर निकला, तो हमेशा की तरह उसने उसका स्वागत नहीं किया।

भिखारी पर न किसी के आने-जाने का और न कारों की आवाज़ का कोई असर पड़ रहा था।

'क्या चाहिये तुम्हें ?” रंगा ने डपटते हुए उससे पूछा। भीख माँगने के बारे में उसके विचार बड़े कठोर थे।

बूढ़े ने धीरे-धीरे अपना सिर उठाया। अस्सी से ज़्यादा का लग रहा था। भूरी कमीज़ के ऊपर मुँह से नीचे पेट पर लम्बी सफ़ेद दाढ़ी फैली हुई थी। सिर पर टीली-ढाली पगड़ी थी। जिसके भीतर से सफ़ेद बाल बाहर निकल रहे थे। आँखों पर घनी भौंहें थीं, वे भी एकदम सफ़ेद थीं। उसने रंगा को उदास नज़रों से देखा।

रंगा को अपने व्यवहार पर शर्म आने लगी। उसने मीठी आवाज़ में फिर पूछा, “आपको क्या चाहिये, बाबाजी ?”

बूढ़े ने रंगा की तरफ़ से नज़रें नहीं हटाई, और सिर हिलाया। रंगा को लगा जैसे वह तस्वीर के फ्रेम में जड़ दिया गया है। यूँ था वह भिखारी ही; विभाजन के बाद से ऐसे लोगों की जैसे बाढ़ आ गई थी। यह भी उन्हीं लाखों लोगों में एक होगा जो अपना घरबार खो चुके हैं। उसके घरवाले आम हत्याकांड में मारे गये होंगे और अब वह इतना बूढ़ा हो चुका है कि जिंदगी चलाने के लिए कुछ कर नहीं सकता। लेकिन इसके अलावा भी कोई बात थी। रंगा को लग रहा था कि उसने इस आदमी को कहीं देखा है।

“बाबाजी, आप कहाँ से आये हैं?

बूढ़े ने अपनी आँखें बन्द कर लीं, कुछ जवाब नहीं दिया। उसकी आँखों से आँसू निकल-निकलकर दाढ़ी में समाते रहे। मोती भी उसके पास आया, उसे सूँघा और रिरियाते हुए वापस लौट गया।

“आप का कोई रिश्तेदार नहीं है ? कोई बेटा-बेटी जो आपकी देखभाल करें ?

बूढ़े ने फिर सिर हिलाया। मोती फिर उसके पास आया और सूँघकर रंगा के पास जाकर खड़ा हो गया। रंगा को लगा कि ज़्यादा बात करना फ़िजूल है।

“आप रसोईघर में चले जायें, यह कहकर उसने नौकरों के क्वार्टर की तरफ़ इशारा किया। "मैं उनसे कह देता हूँ कि आप को खाना दें।'

यह कहकर रंगा आगे बढ़ा । उसे लग रहा था कि बूढ़ा उसे पीछे खींच रहा है-उसके पैर आगे ही नहीं बढ़ रहे थे। रंगा ने इसे पहले कहाँ देखा था? उसने मुड़कर देखा तो बूढ़ा पहले की तरह घुटनों में मुँह घुसाये बैठा नज़र आया। शायद वह सो गया था। वह मोती से टकराया और गिरते-गिरते बचा।

दौलत राम हमेशा की तरह परेशान थे-वे पेट पकड़े कराह रहे थे।

चारों

तरफ़ रिश्तेदार इकट्ठा हो गये थे। एक नर्स उनकी बाँह पर स्पिरिट मल रही थी। डॉक्टर इंजेक्शन के लिए सुई तैयार कर रहा था। फिर उसने सुई बाँह में गड़ाई और ज़ोर लगाकर मार्फ़िया भीतर पहुँचा दिया | दो-तीन मिनट में नशा उनके शरीर में फैल गया और वे सो गये। डॉक्टर ने बक्सा बन्द किया, नर्स को हिदायतें दीं और बाहर चले गये। रिश्तेदार अँगूठों के बल धीरे-धीरे चलते हुए वापस लौटने लगे। रंगा ने मोती को घसीटकर ज़बर्दस्ती बाहर निकाला।

बेडरूम से बाहर निकलकर रंगा को पता लगा कि उसके भाई और बहन भी वहाँ हैं। दोनों दिल्‍ली से काफ़ी दूर रहते थे और उन्हें पिता के बारे में बताना काफ़ी कठिन था। भाई ने बताया कि उसे एक एमरजेंसी में हो रही मीटिंग से निकलकर आना पड़ा । बहन सप्ताहांत की खरीदारी करने राजधानी आई थी । स्थिति गम्भीर थी। परिवार की यह परम्परा थी कि मृत्यु के समय सब रिश्तेदार इकढ्ठे हों। रंगा के परिवार में अभी तक कोई अकेला या अचानक नहीं मरा था। कोई बात होती धी जो सबको इकट्ठा कर लेती थी-कभी चिट्टियों और तारों के द्वारा, और कभी कोई आंतरिक भावना ही उन्हें एक साथ ले आती थी।

इस बात पर बहुत ज़्यादा गहराई से विचार करने की ज़रूरत नहीं है। नर्स बाहर आकर बता गई कि वे आराम से सो रहे हैं और उन्हें परेशान करने की ज़रूरत नहीं है। और मोती को बाँध दिया जाये, क्योंकि वह बार-बार भीतर जाकर पैरों के बल पलेँँग पर खड़ा हो जाता है और दौलत राम को देखने लगता है।

जब लंच दिया गया तब रंगा को बाहर बैठे भिखारी की याद आई। वह मेज़ पर बैठा भाई से बात कर रहा था। उसने दीवार की तरफ़ देखा तो उसकी नज़र अपने बाबा के ऊपर लगे फोटो पर पड़ी। “नज़र पंड़ी' कहना उचित नहीं होगा क्‍योंकि यह तस्वीर यहाँ पिछले बीस साल से लगी थी। दरअसल पहली बार रंगा ने भारी-भरकम पगड़ी के नीचे छिपी और लम्बी सफ़ेद दाढ़ी तथा घनी सफ़ेद भौंहों वाली इस शक्ल को पहचाना । बड़ी अजीब बात थी-लग रहा था कि तस्वीर में बना चेहरा भी रंगा को पहली दफ़ा देख रहा है। रंगा का चेहरा पीला पड़ गया । वह बेवकूफ़ों की तरह आँखें फाड़े उस शान्त चेहरे को देखता रहा; उसकी आँख झपकने में ही नहीं आ रही थी । हाथ में पकड़ी चम्मच से सूप मेज़ पर गिरने लगा।

क्या बात है ? भाई ने पूछा। 'लगता है, तुमने भूत देख लिया हो ...

रंगा ने चम्मच नीचे प्लेट में डाल दी और बड़बड़ाने लगा, 'वह भिखारी...वह भिखारी

“कौन-सा भिखारी ?” भाई ने परेशान होकर पूछा।

'मैं अभी वापस आता हूँ. यह कहकर रंगा उठा और मकान के बाहर भागा। बूढ़ा वहाँ नहीं था।

रंगा पहले से ज़्यादा पीला पड़कर कमरे में वापस लौटा । “वह तो गया। मोती कहाँ है ?'

'तुम कह क्‍या रहे हो ? कौन गया ?'

'मोती कहाँ है ?” रंगा फिर बोला ? “कहीं फिर बेडरूम में तो नहीं चला गया ?

“नहीं सर, नर्स ने मुँह पोंछते हुए कहा। “मैंने कमरा बन्द कर दिया है। फिर भी मैं जाकर देखती हूँ।'

सब लोग उठकर नर्स के पीछे हो लिये। बेडरूम का दरवाज़ा आधा खुला था। रंगा नर्स के पीछे अँगूठों के बल भीतर पहुँचा । दौलत राम गहरी नींद में सोते नज़र आ रहे थे। उनकी बगल में पलँग पर ही मोती भी लेटा था; वह अपराधी आँखों से सामने देख रहा था।

इन लोगों को देखकर वह रिरियाने लगा। रंगा ने देखा कि दौलत राम की साँस नहीं चल रही है। वह सुबकता हुआ बाहर आया। “वह भिखारी! वह तो गया। वह तो गया ।'