एक निर्दयी शिकारी खरगोशों को पकड़ा करता था और उनका माँस खाया करता था।
एक दिन, फिर से उसने एक खरगोश पकड़ा और उसके कान पकड़कर उसे घर ले चला।
रास्ते में उसे एक साधु मिला।
साधु ने शिकारी से कहा कि वह खरगोश को छोड़ दे और इस भलाई के बदले पुण्य कमा ले।
शिकारी ने इन्कार कर दिया।
उसने वहीं साधु के सामने ही निर्दयतापूर्वक खरगोश की गर्दन काटने का निश्चय किया।
उसने थैले से बड़ा धारदार चाकू निकाला।
वह चाकू से खरगोश को काटने ही वाला था कि चाकू फिसलकर उसी के पैर पर गिर पड़ा।
उसका पैर बुरी तरह से कट गया।
वह दर्द से चिल्लाने लगा और उसके हाथ से खरगोश छूट गया।
शिकारी को अपने पापों का दंड मिला।
उसका पैर बुरी तरह से कट गया था, इसलिए वह ठीक से चलने लायक भी नहीं रहा और न कभी दोबारा कोई शिकार कर पाया।