बुद्ध की मूर्ति

चीन के चांग चू नामक प्रदेश में एक मठ था, जहाँ के महंत काफी ज्ञानी और कर्मठ थे।

एक दिन उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाकर मठ के लिए भगवान् बुद्ध की एक मूर्ति बनवाने की इच्छा प्रकट की।

महंत बोले, "इस कार्य के लिए आप घर-घर जाकर धन संग्रह कीजिए।

किसी से बलपूर्वक धन मत लीजिए।

जो इच्छा व खुशी से दे, उसी से लीजिए। शुभ कार्य हेतु धन संग्रह भी शुद्ध तरीके से होना चाहिए।"

सभी शिष्य अलग-अलग दिशाओं में धन संग्रह हेतु रवाना हो गए।

इसी प्रक्रिया में एक शिष्य को तिन नू नाम की एक बालिका मिली।

उसके पास एक सिक्का था।

जब उसे भगवान् बुद्ध की प्रतिमा निर्माण के विषय में चल रहे धन संग्रह के बारे में पता चला तो उसने श्रद्धावश वह एकमात्र सिक्का दान करना चाहा, किंतु शिष्य ने सिक्के को अति तुच्छ समझकर लेने से इनकार कर दिया।

कुछ दिन बाद सभी शिष्य धनराशि लेकर मठ में एकत्रित हुए।

महंत ने मूर्ति का निर्माण आरंभ करवाया, किंतु अथक प्रयास के बाद भी मूर्ति संपूर्ण नहीं हो पा रही थी।

कोई-न-कोई कमी रह जाती। इस पर महंत को संदेह हुआ।

उन्होंने शिष्यों से धन संग्रह के बारे में पूछा।

सभी ने बारीबारी से अपने अनुभव सुनाए। इसी क्रम में जब तिन नू का प्रसंग आया तो महंत पूरी बात समझ गए।

उनके आदेश से वह शिष्य उस बालिका के पास गया और क्षमा माँगते हुए उसके एकमात्र सिक्के को आदरपूर्वक ले लिया।

धातुओं के घोल में उस सिक्के को आदरपूर्वक ले लिया।

धातुओं - के घोल में उस सिक्के को मिला देने पर सहज ही एक सुंदरतम मूर्ति का निर्माण हो गया।

यह कथा श्रद्धापूर्ण दान की महत्ता को प्रस्थापित करती है।

दान भले ही अल्प मात्रा में किया जाए, किंतु यदि वह संपूर्ण श्रद्धा भाव से किया गया तो जरूर सार्थक रूप में प्रतिफलित होता है और असीम पुण्यों का सृजन भी करता है।