मागध राज्य का राजकुमार श्रोण बेहद उदंड था।
उसको दूसरों के अपमान में आनंद की अनुभूति होती थी।
दूसरों को अपमानित करने में वह उम्र का खयाल भी नहीं करता था।
जब माता-पिता उसकी हरकतों से बहुत परेशान हो गए तो उन्होंने अपने महल में भगवान् बुद्ध को आमंत्रित किया।
बुद्ध जब महल में आए तो उन्होंने राजकुमार के विषय में सभी बातें सुनीं।
उन्होंने राजा से राजकुमार को प्रवचन में लाने के लिए कहा।
श्रोण अपने पिता के साथ आया और प्रवचन की समाप्ति पर वह बुद्ध के चरणों में लोट गया।
बुद्ध के वचनों से प्रभावित होकर वह बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गया।
उसका जीवन पूर्णतः बदल गया।
कुछ समय बाद उसने प्रायश्चित्त करने के लिए अन्न-जल का त्याग कर दिया।
उसके इस कठोर प्रण के विषय में जब भगवान् बुद्ध को ज्ञात हुआ तो वे उसे देखने आए।
उन्होंने स्नेहपूर्वक उसके मस्तक पर हाथ रखा और बोले, "श्रोण, अन्न-जल के त्याग के चलते तुम्हारा स्वास्थ्य गिरता जा रहा है।
तुम संगीत के जानकार हो, अतः उससे जुड़े मेरे एक प्रश्न का उत्तर दो, क्या वीणा के तार ढीले करने पर उससे स्वर-लहरी फूटती है ?
श्रोण ने जवाब दिया, "नहीं भगवान्।"
बुद्ध ने पुनः प्रश्न किया, "तब तो तारों को खूब कसना पड़ता होगा ?
श्रोण बोला, "नहीं, अधिक कसने से तार टूट सकते हैं।"
तब तथागत बोले, “वीणा से मधुर संगीत निकालने के लिए उसके तारों को न तो अधिक ढीला रखना चाहिए और न ही अधिक कसना चाहिए।
इसी प्रकार, हमारा जीवन भी एक वीणा की तरह ही है, जिसे भली-भाँति चलाने के लिए सभी वस्तुओं का पूर्ण त्याग उचित नहीं है।
श्रोण ने कठोर प्रतिज्ञा से मुक्ति ले ली और सहज जीवन जीने लगा।
यह कथा जीवन को नैसर्गिक तरीके से जीने पर बल देती है, जिसमें उचित आवश्यकताओं की पूर्ति और अतिरिक्त इच्छाओं पर नियंत्रण का संदेश शामिल है।
यदि जीवन को आवश्यकता, पूर्ति और संयम के संयोन ।
से संचालित किया जाए, तो परम शांति प्रदायक होता है।