गौतम बुद्ध के पास उनका प्रिय शिष्य 'पूर्ण' पहुँचा।
बुद्ध ध्यानावस्था के में बैठे थे।
पूर्ण के पहुंचने पर उन्होंने आँखें थोड़ी सी खोली और पूर्ण से आने का कारण पूछा, तो उसने कहा, "मैं धर्म प्रचार के लिए जाना चाहता हूँ, आपकी आज्ञा चाहिए।"
बुद्ध मुसकराए और कहा, "पूर्ण, धर्म की राह बहुत मुश्किल है।
तुम लोगों को अच्छी बातें बताने जाओगे और लोग तुम पर नाराज होंगे।
हो सकता है कि अपशब्द भी कहें।
" इस पर पूर्ण ने कहा, "कोई बात नहीं, मैं यह सोचकर उनकी बातों पर ध्यान नहीं दूंगा कि उन्होंने अपशब्द ही कहे, पिटाई तो नहीं की।"
बुद्ध बोले, "हो सकता है कि कुछ लोग हाथ उठा दें।"
पूर्ण ने कहा, "तब मैं यह सोचकर उन्हें क्षमा कर दूंगा कि उन्होंने मुझ पर शस्त्रों से प्रहार तो नहीं किया।"
बुद्ध फिर बोले, "हे पूर्ण! हो सकता है कि कुछ लोग तुमपर शस्त्रों का भी उपयोग करें।"
पूर्ण ने उत्तर दिया, "तब मैं यह सोचकर उनके प्रति कोई प्रतिकार की भावना नहीं रखूगा कि उन्होंने मुझे मारा, पर जान से तो नहीं मार डाला।
मुझे जीवित छोड़ दिया।"
बुद्ध ने फिर कहा, "और यदि तुम्हारे प्राण ही ले लिये तब ?
पूर्ण ने तत्क्षण सिर झुकाकर कहा, "तब मैं उनका आभारी रहूँगा कि उन्होंने धर्म के मार्ग पर मेरे प्राणों का उत्सर्ग करने में मेरी सहायता की।
मैं उनके प्रति कृतज्ञ रहूँगा।" तब बुद्ध ने आँखें खोली और आशीर्वाद देकर अनुमति दी तथा पूर्ण से कहा, "अब तुम धर्म प्रचार करने के पात्र हो।
जो किसी में भी कोई दोष न देखे, वही सच्चा है।"
अच्छाई के मार्ग पर चलना बहुत मुश्किल काम है।जो इस राह पर चलता है, उसके मार्ग में अनेक बाधाएँ आती हैं।
लेकिन जो व्यक्ति किसी में भी दोष न देखे, वही बाधाओं को सहजता से पार कर अपने लक्ष्य को पूरा कर पाता है।