एक राजा पहली बार गौतम बुद्ध के दर्शन करने अपने पास का एक अमूल्य स्वर्णाभूषण लेकर आया था।
गौतम बुद्ध उस अमूल्य भेंट को स्वीकार करेंगे, इस बारे में उसे शंका थी।
सो, अपने दूसरे हाथ में वह एक सुंदर गुलाब का फूल भी ले आया था।
उसे लगा भगवान् बुद्ध इसे अस्वीकार. नहीं करेंगे।
गौतम बुद्ध से मिलने पर जैसे ही उसने अपने हाथ में रखा रत्नजड़ित आभूषण आगे बढ़ाया तो मुसकराकर बुद्ध ने कहा, "इसे नीचे फेंक दो।"
राजा को बुरा लगा।
फिर भी उसने वह आभूषण फेंककर दूसरे हाथ में पकड़ा हुआ गुलाब का फूल बुद्ध को अर्पण किया, यह सोचकर कि गुलाब में कुछ आध्यात्मिकता, कुछ प्राकृतिक सौंदर्य भी शामिल है।
बुद्ध इसे अस्वीकार नहीं करेंगे।
लेकिन फूल देने के लिए राजा ने जैसे ही अपने हाथ आगे बढ़ाए, बुद्ध ने फिर कहा, “इसे नीचे गिरा दो।"
राजा परेशान हुआ। वह बुद्ध को कुछ देना चाहता था, पर अब उसके पास देने के लिए कुछ भी बचा नहीं था।
तभी उसे स्वयं का खयाल आया। उसने सोचा, वस्तुएँ भेंट करने से बेहतर है कि मैं अपने आपको ही भेंट कर दूँ।
खयाल आते ही उसने अपनेआपको बुद्ध को भेंट करना चाहा।
बुद्ध ने फिर कहा, "नीचे गिरा दो।"
गौतम के जो शिष्य वहाँ मौजूद थे, वे राजा की स्थिति देखकर हँसने लगे।
तभी राजा को बोध हुआ, "मैं अपने-आपको समर्पित करता हूँ।'
कहना कितना अहंकारपूर्ण है। मैं अपने को समर्पित करता हूँ।'
यह कहने में समर्पण नहीं हो सकता, क्योंकि 'मैं' तो बना हुआ है।
वह समर्पण कहाँ हुआ।" इस बोध के साथ राजा स्वयं बुद्ध के पैरों पर गिर पड़ा।