'चीन सियालकोट में एक बार बौद्धों का बहुत बड़ा भिक्षु संघ आया।
प्रा. इस संघ को एक ऐसे वेदपाठी ब्राह्मण के विषय में ज्ञात हुआ, जो इतना रूढ़िवादी था कि किसी अवैदिक पंडित की छाया भी स्वयं पर नहीं पड़ने देता था।
उसे सुधारने का बीड़ा एक भिक्षु ने उठाया।
अगले दिन वह अपना भिक्षा पात्र लेकर ब्राह्मण के घर पहुँच गया और पूछा, "कुछ आहार-पानी की सुविधा है ?"
उसकी बात सुनकर घर के सभी लोग मौन रहे और उसकी ओर घृणा की दृष्टि से देखा।
भिक्षु लौट आया।
दूसरे दिन फिर गया और वही प्रश्न दोहराया।
इस बार भी उसे चुप्पी और तिरस्कार का सामना करना पड़ा।
वह पुनः लौट गया। एक दिन जब वह ब्राह्मण के घर पहुँचा तो ब्राह्मण वहाँ नहीं था।
नित्य आने-जाने से ब्राह्मणी का मन पसीज गया।
वह बोली, "मैं तो तुम्हें आहार-पानी दे दूं, किंतु पंडितजी की नाराजगी के कारण विवश हूँ।"
भिक्षु ने कहा, "कोई बात नहीं बहन, मैं अपना काम करता हूँ, तुम अपना काम करो।" वापस लौटते हुए भिक्षु को ब्राह्मण मिल गया।
उसने भिक्षु को खूब खरी-खोटी सुनाई, तब भिक्षु ने कहा, "इतने दिनों तक आपके घर से कुछ नहीं मिला, किंतु आज आपकी पत्नी ने 'नहीं' दी है।
अब किसी दिन 'हाँ' भी मिल जाएगा।" ब्राह्मण थोड़ा शांत हुआ और बोला, "यह क्रम कब तक जारी रखोगे ?" भिक्षु ने उत्तर दिया, "जब तक जीवित हूँ।"
उसका धैर्य देख ब्राह्मण का अहंकार पिघल गया और उसने भिक्षु से क्षमा माँगी।
वस्तुतः धैर्य व सहिष्णुता के बल पर बड़ी से बड़ी प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदला जा सकता है।