मीठी बोली बोलो प्यारे

बहुत पुरानी बात है, एक राजा था, नाम था 'शुभकर्म' ।

महाराज शुभकर्म बड़े ही दयालु न्यायी और प्रजा प्रेमी राजा थे।

उनके राज्य में प्रजा बड़ी सुखी थी ।

न्याय के सामने छोटा-बड़ा, धनी - निर्धन सभी समान समझे जाते थे अन्याय का नामोनिशान नहीं था।

सभी लोग महाराज शुभकर्म को पिता के समान समझते थे ।

महाराज भी अपनी प्रजा को अपनी सन्तान के समान समझते थे ।

प्रजा का दुःख दर्द उनका अपना दुःख दर्द था ।

यों तो प्रजा सभी प्रकार से सुखी

थी, किन्तु स्वयं महाराज शुभकर्म का दुःख उनकी प्रजा से नहीं देखा जाता था ।

महाराज को यह दुःख उनकी सन्तान न होने के कारण था ।

भला ऐसे न्यायी और दयालु राजा का दुःख प्रजा कैसे देख पाती, किन्तु उसके वश में था भी क्या ।

कहा जाता है कि निर्बल के बलराम होते हैं ।

अतः मनुष्य सभी प्रयत्न करने पर भी जब हार जाता है, तो उसके सामने केवल भगवान का ही सहारा रह जाता है।

प्रजा अपने भगवान से प्रार्थना करती कि महाराज को पुत्र दे ।

प्राप्ति के लिए जिसने जो कहा, वही किया ।

पुराणों : महाराज शुभकर्म ने पुत्र प्राप्ति की कथाएं की, देवी देवताओं की अनेक प्रकार की पूजा की, साधु-सन्तों, योगियों,

महात्माओं की चरण - वन्दना की भूखों को भोजन कराया, ब्राह्मणों-निर्धनों "

को दान दिया तथा अनेक प्रकार के यज्ञ-अनुष्ठान कराये।

इन कार्यों को करते हुए एक लम्बा समय बीत गया, परन्तु महाराज ने धीरज नहीं छोड़ा।

इसके बाद वह तीर्थों की यात्रा पर निकल पड़े।

साल भर बाद जब वह तीर्थ यात्रा से लौटे, तो उनकी प्रजा प्रसन्नता से पागल हो उठी।

नारों और जय-जयकार से आकाश गूंज उठा

'महाराज शुभकर्म की जय 'महाराज का यश अमर रहे ।

'महाराज शीघ्र पुत्र का मुंह देखें ।

'हमारे महाराज को शीघ्र पुत्र लाभ हो ।

कहते हैं भगवान बड़ा दयालु है।

उसके यहां देर भले ही हो जाए, परन्तु अन्धेर नहीं होता।

यह राजा या प्रजा की प्रार्थनाओं का प्रभाव था अथवा संयोग कि प्रजा को शीघ्र ही एक शुभ सूचना सुनने को मिली - महारानी मां बनने वाली हैं ।

इस समाचार का मिलना था कि प्रजा की खुशी का कोई ठिकाना न रहा।

मारे खुशी के वह नाचने लगी ।

नाचती और नारे लगाती वह राजमहल पहुंची।

प्रजा का अपने प्रति प्रेम देखकर महाराज गद्गद् हो उठे।

वह प्रजा का अभिवादन स्वीकार करने के लिए बाहर आये ।

जनता नारे लगाने लगी

'महाराज की जय ऽ ऽ ऽ ऽ'

'हमारे भावी राजकुमार चिरंजीवी हों

'हमारे राजकुमार ।'

महाराज ने अपनी जनता को सम्बोधित करते हुए कहा- "प्रजाजनों! हम आपकी शुभकामनाएं प्रसन्नता के साथ स्वीकार करते हैं।

यह ईश्वर की कृपा और आपकी शुभकामनाओं का ही परिणाम है कि हमें हमारे वंश को आगे चलाने वाला पुत्र प्राप्त होगा।

हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हमारा भावी राजकुमार प्रजा के हितों का ध्यान रखने वाला, न्यायी और दयालु हो।

इसके बाद प्रजा अपने घरों को लौट गई।

धीरे-धीरे समय बीता ।

यथासमय रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया।

उस अवसर पर सारे राज्य में खुशियां मनाने गई।

महाराज ने दान देने के लिए अपने खजाने का मुंह खोल दिया।

कई दिनों तक सभी लोगों के लिए मुफ्त भोजन की व्यवस्था की गई।

मंत्रियों, कर्मचारियों आदि को अनेक प्रकार के पुरस्कार दिए गए।

राजमहल में बधाई देने वालों का ताता लग गया।

अनेक प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान किए गए।

लगता था, जैसे सारा राज्य खुशी के समुद्र में हिलोरे ले रहा हो ।

उचित समय पर राजकुमार का नामकरण संस्कार किया गया।

धीरे-धीरे राजकुमार बड़ा होने लगा।

राजा और प्रजा सभी उस दिन की प्रतीक्षा करने लगे, जिस दिन राजकुमार का युवराज पद पर अभिषेक होता ।

जब राजकुमार कुछ बड़ा हुआ तो उसके अध्ययन के लिए विद्वान आचार्यों की नियुक्ति की गई यथासमय राजकुमार का अध्ययन सम्पूर्ण हुआ।

वह वेद शास्त्र आदि के साथ ही युद्ध विद्या में भी निपुण हो गया ।

राजकुमार को बढ़ता देखकर राजा-रानी तथा सभी प्रजा फूली न समाती ।

उन्हें आशा थी कि राजकुमार अपने पिता के समान ही दयालु, परोपकारी और न्याय परायण होगा।

किन्तु उनकी ये सभी आशाएं धूल में मिलती नजर आने लगी।

राजकुमार अत्यन्त कठोर स्वभाव का और हठी हो गया ।

वह अपनी हठ के आगे किसी को कुछ न समझता ।

उसे किसी के अपमान की चिन्ता न रहती।

किसी से मधुर व्यवहार करना तो उसने सीखा ही नहीं था ।

एक बार एक विचित्र घटना घट गई ।

प्रधानमंत्री असहाय, दरिद्र प्रजा की फरियाद सुन रहा था।

लोग उसे घेर कर खड़े थे।

सभी अपनी-अपनी समस्याएं उनके सामने रखते।

प्रधान मंत्री उन्हें ध्यानपूर्वक सुनते और उनकी समस्याओं के समाधान का उपाय सुझाते।

तभी राजकुमार घोड़े पर सवार होकर वहां से निकला।

सभी ने उसे प्रणाम किया, किन्तु राजकुमार ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया।

वह प्रधानमंत्री से पूछने लगा- "प्रधानमंत्रीजी ! यह क्या हो रहा है ?"

"युवराज ! ये लोग असहाय हैं।

दुखियों की सहायता करना प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है और हमारे महाराज की भी यही आज्ञा है कि यदि कोई भी दुःखी व्यक्ति मिले, तो उसकी अवश्य सहायता की जाए।

राजदरबार में आकर कोई भी निराश न जाने पाए ।

प्रधानमंत्री ने कहा ।

" प्रधानमंत्रीजी ! इन मूर्खो की सहायता करना व्यर्थ है।

यदि इसी प्रकार इनकी सहायता की गई, तो राज्य का सारा धन समाप्त हो जाएगा।"

"किन्तु राजकुमार ! दुखियों की सहायता करने से राजा का कल्याण होता है और मैं यह सब महाराज की ही आज्ञा से कर रहा हूं।"

"रहने दीजिए प्रधानमंत्रीजी ! हमें कुछ नहीं सुनना ।

लगता हैं, आप राजकोष को खाली कराकर ही दम लेंगे।

भगाओ इन लोगों को यहां से और कह दो कि फिर कभी न आएं।"

राजकुमार की इन बातों को सुनकर सभी लोग वहां से चले गए।

यह देखकर प्रधानमंत्रीजी को भारी दुःख हुआ।

यह सूचना राजा के पास पहुंची, इससे राजा को अत्यन्त चिन्ता हुई ।

वह नहीं चाहते थे कि उनका राजकुमार इस तरह का कठोर ओर संकीर्ण विचारों का हो।

उन्हें बड़ी निराशा होने लगी।

इसके बाद राजकुमार को कठोरता को घटनाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगीं।

प्रजा राजकुमार से घृणा करने लगी थी।

राजा निश्चित नहीं कर पा रहे थे कि उन्हें क्या करना चाहिए ।

अतः उन्होंने इस विषय में अपने मंत्रियों की सलाह ली और उनकी सलाह पर बड़े-बड़े विद्वानोंः, साधुओं, महात्माओं आदि को बुलाया गया।

महाराज ने उन सबके सामने अपनी समस्या रखी और कहा "हम आप सभी लोगों से प्रार्थना करते हैं कि हमें बदनाम होने से बचा लो।

हमें यह आशा नहीं थी कि हमारा उत्तराधिकारी हमारी प्रजा को दुःखी करेगा।

इस विषय में जो भी व्यक्ति कुछ कहना चाहे, बिना किसी भय, संकोच के कह सकता है।"

सारे दरबार में सन्नाटा छा गया।

लोग एक दूसरे के चेहरे देखने लगे।

किसी में इतना साहस नहीं था कि वह कठोर और घमंड़ी राजकुमार को सही रास्ते पर ला सके ।

इससे राजा को और भी अधिक निराशा हुई।

ठंडी सांस लेते हुए वह बोले- "तो क्या इसका अर्थ हम यह समझें कि हमारे राज्य में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है,

जो राजकुमार को सही रास्ते पर ला सके; हमें बदनाम होने से बचा ले, हमारे राज्य को नष्ट होने से बचा लें क्या सचमुच पृथ्वी विद्वानों से हीन हो गई है ?"

फिर भी कहीं से कोई आवाज नहीं आई।

लोग उसी प्रकार एक दूसरे की ओर देखते और सिर नीचा कर लेंते ।

निराशा में डूबे हुए महाराज ने फिर कहना प्रारम्भ किया- "कोई बात नहीं, हम इसे अपने भाग्य का ही दोष समझेंगे।

किसी अन्य को दोष देने से क्या लाभ । शायद ईश्वर को यही स्वीकार हो ।

उसकी इच्छा के आगे किसी की क्या चल सकती है।

अच्छा, आप लोगों का बहुत-बहुत धन्यवाद

तभी वहां उपस्थित एक साधु बोला- "राजन् ! मैं कुछ कहना चाहता हूं।"

“कहिए साधु महाराज ! आप जो चाहें, निःसंकोच कहें।

राजा ने कहा।

“महाराज! आप निराश न हो ।

निराशा पराजय का दूसरा नाम है।

यदि आप कहें तो मैं राजकुमार को सही रास्ते पर ला सकता हूं।" “भगवन्! आप

“हां राजन्! मैं राजकुमार की आदतें सुधार सकता हूं।"

"यदि आपने ऐसा कर दिया, तो मै आपका यह उपकार जन्म-जन्मान्तर तक नहीं भूलंगा।"

"तो ठीक है राजन् ! राजकुमार को संत् शिक्षा देना मेरा काम रहा।"

“धन्यवाद! भगवन्! इसके लिए मुझे क्या करना होगा ?

आज्ञा दीजिए।

मैं आपकी हर आज्ञा मानने के लिए तैयार हूं।"

“राजन् ! इसके लिए आपको कुछ नहीं करना है जो कुछ करना होगा, मैं स्वंय कर लूंगा। बस आप देखते जाइये ।"

"फिर भी भगवन् ! मुझे जानने की बड़ी उत्सुकता है।"

"यदि आपको उत्सुकता ही है, तो सुनिए - नित्य की तरह कल जब राजकुमार मृगया (शिकार) के लिए वन को जाएंगे तो मैं उनसे पहले ही वहां पहुंच जाऊंगा। इसके आगे की बात आपको मालूम हो जाएगी।"

"आप राजकुमार को किस तरह शिक्षा देंगे ?"

"राजन्! आप धैर्य रखे और मुझ पर विश्वास करें राजकुमार का कुछ भी अहित नहीं होगा।

इसके बाद आप देखेंगे कि अब के राजकुमार और तब के राजकुमार में धरती तथा आकाश का अन्तर होगा।

बस आप देखते जाइये।

"धन्यवाद भगवन् ! मुझे पूरा विश्वास है कि आपको अपने कार्य में अवश्य सफलता मिलेगी।

आप डूबते हुए मेरे यश को बचा लेंगे।"

योजना के अनुसार दूसरे दिन प्रातःकाल जब राजकुमार घोड़े पर सवार होकर वन को चल दिया, तो साधु भी एक दूसरे मार्ग से शीघ्र ही जंगल में पहुंच गए।

वह एक स्थान पर जाकर बैठ गए।

साधु को बैठा देखकर राजकुमार ने उन्हें प्रणाम किया।

साधु बोले- "चिरंजीव राजकुमार! तुम्हारा यश दूर-दूर तक फैले।

तुम सुखी रहो।

साधुओं की सेवा करना राजाओं और राजपुत्रों का धर्म है।

क्या तुम मेरा एक कार्य करोगे ?"

"हां क्यों नहीं भगवन्! आज्ञा करें।" राजकुमार ने कहा।

"देखो राजकुमार ! मुझे भगवान् की पूजा करनी है इसके लिए सामने उस पेड़ के पत्ते ले आओ।

पहले पत्तों को चबाकर देख लेना ।

यदि वे कड़वे हों तो मत लाना।"

"ठीक है भगवन् !" कहता हुआ राजकुमार पत्ते लाने के लिए चल पड़ा।

उसने-जाते ही कुछ पत्तियां तोड़ कर मुंह में डाली ।

पत्तियां एकदम कडुवी थीं।

उसने उन्हें तुरन्त थूक दिया ।

उसका सारा मुंह कड़वा हो गया ।

अतः वह सीधे साधु के पास आया और बोला- भगवन् । पत्तियां बहुत कड़वी है।'

"राजकुमार! तुमने उन्हें थूक क्यों दिया ?" साधु बोले ।

“भगवन्! इतनी कड़वी पत्तियों को भला कौन मुंह में रख सकता है ?

" साधु बोले- "बेटा! सत्य कहते हो । कड़वी चीज से सभी घृणा करते हैं और उससे दूर ही रहते हैं।"

"भगवन्! आप क्या कहना चाहते हैं ?"

"बेटे ! यही जीवन की भी सच्चाई है। तुम अभी इस सच्चाई को नहीं जानते हो ।

अपना कड़वा व्यवहार छोड़ो और सबसे मीठी बोली बोलो ।

इसी से तुम्हारी प्रजा तुमसे प्रेम करेगी और तुम एक सफल राजा बनोगे।"

राजकुमार अपने घर लौट आया।

उसी दिन से सबने देखा कि उसका व्यवहार पूर्णतया बदल गया था ।

वह सभी से मधुर व्यवहार करने लगा और प्रजा भी उसे चाहने लगी ।