कोनगमन तेईसवें बुद्ध माने जाते हैं।
ये भद्वकप्र (भद्र कल्प) के दूसरे बुद्ध हैं।
सोभावती के समगवती उद्यान में जन्मे कोनगमन के पिता का नाम यञ्ञदत्त था।
उत्तरा उनकी माता थी। इनकी धर्मपत्नी का नाम रुचिगत्ता था; और उनके पुत्र का नाम सत्तवाहा।
तीन हज़ार सालों तक एक गृहस्थ के रुप में रहने के बाद एक हाथी पर सवार होकर इन्होंने गृह-त्याग किया और संयास को उन्मुख हुए।
छ: महीनों के कठिन तप के बाद इन्होंने अग्गिसोमा नाम की एक ब्राह्मण कन्या के हाथों खीर ग्रहण किया।
फिर तिन्दुक नामक व्यक्ति द्वारा दी गई घास का आसन उदुम्बरा वृक्ष के नीचे
बिछा कर तब तक समाधिस्थ रहे जब तक कि मेबोधि प्राप्त नहीं की।
तत: सुदस्मन नगर के उद्यान में उनहोंने अपना पहला उपदेश दिया।
भिथ्य व उत्तर उनके प्रमुख शिष्य थे और समुद्दा व उत्तरा उनकी प्रमुख शिष्याएँ।
कोपगमन का नाम कनकगमन से विश्पत्त है क्योंकि उनके जन्म के समय समस्त जम्बूद्वीप (भारतीय उपमहाद्वीप) में सुवर्ण-वर्षा हुई थी।
इन्हीं का नाम संस्कृत परम्परा में कनक मुनि है।
इनके काल में राजगीर के वेपुल्ल पर्वत का नाम वंकक था और वहाँ के लोग रोहितस्स के नाम से जाने जाते थे।
उन दिनों बोधिसत्त मिथिला के एक क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे।
तब उनका नाम पब्बत था।
तीस हज़ार वर्ष की आयु में पब्बताराम में उनका परिनिर्वाण हुआ।
कोनगमन की कथ् केवल साहित्यिक स्रोत्रों पर ही आधारित नहीं है, उनका पुरातात्त्विक आधार भी है
क्योंकि सम्राट अशोक ने अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में कोनगमन बुद्ध के छूप को, जो उनके जन्मस्थान पर निर्मित था,
दुगुना बड़ा करवाया था।
इसके अतिरिक्त, फाहियान व ह्मवेनसांग ने भी उस छूप की चर्चा की है।