दो हंसों की कहानी

मानसरोवर, आज जो चीन में स्थित है, कभी ठमानस-सरोवर' के नाम से विश्वविख्यात था

और उसमें रहने वाले हंस तो नीले आकाश में सफेद बादलों की छटा से भी अधिक मनोरम थे।

उनके कलरव सुन्दर नर्तकियों की नुपुर ध्वनियों से भी अधिक सुमधुर थे।

उन्हीं सफेद हंसों के बीच दो स्वर्ण हंस भी रहते थे।

दोनों हंस बिल्कुल एक जैसे दिखते थे और दोनों का आकार भी अन्य हंसों की तुलना में थोड़ा बड़ा था।

दोनों समान रुप से गुणवान और शीलवान भी थे।

फर्क था तो बस इतना कि उनमें एक राजा था और दूसरा उसका वफादार सेनापति।

राजा का नाम धृतराष्ट्र था और सेनापति का नाम सुमुख।

दोनों हंसों की चर्चा देवों, नागों, यक्षों और विद्याधर ललनाओं के बीच अक्सर हुआ करती थी।

कालान्तर में मनुष्य योनि के लोगों को भी उनके गुण-सौन्दर्य का ज्ञान होने लगा।

वाराणसी नरेश ने जब उनके विषय में सुना तो उस के मन में उन हंसों को पाने की प्रबल इच्छा जागृत हुई।

तत्काल उसने अपने राज्य में मानस-सदृश एक मनोरम-सरोवर का निर्माण करवाया,

जिसमें हर प्रकार के आकर्षक जलीय पौधे और विभिन्न प्रकार के कमल जैसे पद्म, उत्पल, कुमुद, पुण्डरीक, सौगन्धिक, तमरस और कहलर विकसित करवाये।

मत्स्य और जलीय पक्षियों की सुंदर प्रजातियाँ भी वहाँ बसायी गयीं।

साथ ही राजा ने वहाँ बसने वाले सभी पक्षियों की पूर्ण सुरक्षा की भी घोषणा करवायी, जिससे दूर-दूर से आने वाले पंछी स्वच्छंद भाव से वहाँ विचरण करने लगे।

एक बार, वर्षा काल के बाद जब हेमन्त ॠतु प्रारम्भ हुआ और आसमान का रंग बिल्कुल नीला होने लगा तब मानस के दो हंस वाराणसी के ऊपर से उड़ते हुए जा रहे थे।

तभी उनकी दृष्टि राजा द्वारा निर्मित सरोवर पर पड़ी।

सरोवर की सुन्दरता और उसमें तैरते रमणीक पक्षियों की स्वच्छंदता उन्हें सहज ही आकर्षित कर गयी।

तत्काल वे नीचे उतर आये और महीनों तक वहाँ की सुरक्षा, सुंदरता और स्वच्छंदता का आनंद लेते रहे।

अन्ततोगत्वा वर्षा ॠतु के प्रारंभ होने से पूर्व वे फिर मानस को प्रस्थान कर गये।

मानस पहुँच कर उन्होंने अपने साथियों के बीच वाराणसी के कृत्रिम सरोवर की इतनी प्रशंसा की कि सारे के सारे हंस वर्षा के बाद वाराणसी जाने को तत्पर हो उठे।

हंसों के राजा युधिष्ठिर और उसके सेनापति सुमुख ने अन्य हंसों की इस योजना को समुचित नहीं माना।

युधिष्ठिर ने उनके प्रस्ताव का अनुमोदन न करते हुए, यह कहा कि, पंछी और जानवरों की एक प्रवृत्ति होती है।

वे अपनी संवेदनाओं को अपनी चीखों से प्रकट करते हैं।

किन्तु जन्तु जो कहलाता है "मानव" बड़ी चतुराई से करता है अपनी भंगिमाओं को प्रस्तुत जो होता है उनके भावों के ठीक विपरीत।

फिर भी कुछ दिनों के बाद हंस-राज को हंसों की ज़िद के आगे झुकना पड़ा और

वह वर्षा ॠतु के बाद मानस के समस्त हंसों के साथ वाराणसी को प्रस्थान कर गया।

जब मानस के हंसों का आगमन वाराणसी के सरोवर में हुआ और राजा को इसकी सूचना मिली तो उसने अपने एक निषाद को उन दो विशिष्ट हंसों को पकड़ने के लिए नियुक्त किया।

एक दिन युधिष्ठिर जब सरोवर की तट पर स्वच्छंद भ्रमण कर रहा था तभी उसके पैर निषाद द्वारा बिछाये गये जाल पर पड़े।

अपने पकड़े जाने की चिंता छोड़ उसने अपनी तीव्र चीखों से अपने साथी-हंसों को तत्काल

वहाँ से प्रस्थान करने को कहा जिससे मानस के सारे हंस वहाँ से क्षण मात्र में अंतर्धान हो गये।

रह गया तो केवल उसका एकमात्र वफादार हमशक्ल सेनापति-सुमुख।

हंसराज ने अपने सेनापति को भी उड़ जाने की आज्ञा दी मगर वह दृढ़ता के साथ अपने राजा के पास ही जीना मरना उचित समझा।

निषाद जब उन हंसों के करीब पहुँचा तो वह आश्चर्यचकित रह गया क्योंकि पकड़ा तो उसने एक ही हंस था फिर भी दूसरा उसके सामने निर्भीक खड़ा था।

निषाद ने जब दूसरे हंस से इसका कारण पूछा तो वह और भी चकित हो गया,

क्योंकि दूसरे हंस ने उसे यह बताया कि उसके जीवन से बढ़कर उसकी वफादारी और स्वामि-भक्ति है।

एक पक्षी के मुख से ऐसी बात सुनकर निषाद का हृदय परिवर्तन हो गया।

वह एक मानव था; किन्तु मानव-धर्म के लिए वफादार नहीं था।

उसने हिंसा का मार्ग अपनाया था और प्राणातिपात से अपना जीवन निर्वाह करता था।

शीघ्र ही उस निषाद ने अपनी जागृत मानवता के प्रभाव में आकर दोनों ही हंसों को मुक्त कर दिया।

दोनों हंस कोई साधारण हंस तो थे नहीं।

उन्होंने अपनी दूरदृष्टि से यह जान लिया था कि वह निषाद निस्सन्देह राजा के कोप का भागी बनेगा।

अगर निषाद ने उनकी जान बख़शी थी तो उन्हें भी निषाद की जान बचानी थी।

अत: तत्काल वे निषाद के कंधे पर सवार हो गये और उसे राजा के पास चलने को कहा।

निषाद के कंधों पर सवार जब वे दोनों हंस राज-दरबार पहुँचे तो समस्त दरबारीगण चकित हो गये।

जिन हंसों को पकड़ने के लिए राजा ने इतना प्रयत्न किया था वे स्वयं ही उसके पास आ गये थे।

विस्मित राजा ने जब उनकी कहानी सुनी तो उसने तत्काल ही निषाद को राज-दण्ड से मुक्त कर पुरस्कृत किया।

उसने फिर उन ज्ञानी हंसों को आतिथ्य प्रदान किया तथा उनकी देशनाओं को राजदरबार में सादर सुनता रहा।

इस प्रकार कुछ दिनों तक राजा का आतिथ्य स्वीकार कर दोनों ही हंस पुन: मानस को वापिस लौट गये।