अनोखी इच्छा

एक लकड़हारा की कहानी - जातक कहानी

किसी गांव में एक लकड़हारा रहता था।

वह प्रतिदिन सूखी लकड़ियां काटकर शहर में बेचने जाता था।

यही उसका जीवनयापन का सहारा था।

अकेला होने के कारण वह उदास रहता था |

इसलिए वह सारा दिन काम करता था, इससे उसका मन लगा रहता था।

एक दिन वह लकड़ियां बेचकर घर वापस आ रहा था|

तो उसे रास्ते में एक मुसाफिर मिला जो कि पैदल ही गांव की ओर जा रहा था, लकड़हारे की बैलगाड़ी देखकर मुसाफिर ने उससे पूछा-“अरे भाई!

क्या आप मुझे गांव तक ले चलेंगे ?

लकड़हारे ने हंसते हुए उत्तर दिया-“अवश्य ले चलूंगा ।

दूसरों की सहायता करना तो मनुष्य का कर्त्तव्य है|”

ऐसा कहकर उसने मुसफिर को अपनी बैलगाड़ी में बैठा लिया।

वे दोनों रास्ते में बातें करते रहे फिर अच्छे मित्र बन गये।

लकड़हारे के कहने पर मुसाफिर उस रात उसी के घर पर रहा ।

दोनों ने साथ-साथ भोजन किया।

इस तरह दोनों की मित्रता बढ़ गई ।

लकड़हारा जब भी शहर जाता तो अपने मित्र से अवश्य मिलता था और मुसाफिर जब भी गांव आता तो अपने मित्र से अवश्य मिलना नहीं भूलता था |

दोनों मिलकर एक साथ बैठते थे और घण्टों तक बातें करते रहते थे |

एक बार लकड़हारा लकड़ियां बेचकर वापस आना चाहता था, किन्तु रात काफी होने के कारण उसके मित्र ने उससे कहा-मित्र!

रात बहुत हो गई है| रास्ते में घना जंगल पड़ता है और जंगली जानवर भी रहते हैं ।

इसलिए आज की रात तुम मेरे घर पर ही बिताओ |”

लकड़हारे ने अपने मित्र की बात मान ली और शहर में ही रहने का निर्णय किया।

रात्रि में भोजन करने के पश्चात्‌ दोनों ने घूमने का फैसला किया।

चलते-चलते उन्होंने राजमहल के पास काफी भीड़ देखी, और वहां आंखों को चकाचौंध करने वाला प्रकाश देखा |

लकड़हारे ने अपने मित्र से पूछा-“अरे मित्र! यहां भीड़ कैसी है ?”

“यही तो बताने जा रहा था तुम्हें, मैं कह रहा था, भाई!

यह हमारे राजा के खजांची का महल है और यह महल राजा के महल से भी बड़ा है।

तुम्हें तो मालूम ही है कि राजा के खजाने का अध्यक्ष कोई मामूली आदमी तो होता नहीं |” मित्र ने बताया |

लकड़हारे ने उत्तर दिया-*हां, मित्र जानता हूं |

उसके मित्र ने फिर कहा-“लेकिन भाई! तुम इस खजाची के ऐशो-आराम के बारे में नहीं जानते |

मैं आज तुम्हें ऐसा दृश्य दिखाऊंगा जिसकी तुमने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की होगी | देखकर दंग रह जाओगे |”

लकड़हारे ने हैरान होकर पूछा-"ऐसी कौन-सी बात है ? जिसे देखकर मैं दंग रह जाऊगा ?”

उसके मित्र ने उत्तर दिया-”भाई! आज यह खजांची जब रात्रि में भोजन .. करेगा तो हजारों लोग उसके दर्शन करेंगे |”

लकड़हारे ने सोचने के अन्दाज से अपने मित्र की ओर देखा और पूछा--“अरे मित्र! लोग किसी को भोजन करते हुए क्यों देख़ना चाहते हैं ?”

उसके मित्र ने उसे समझाते हुए कहा-“अरे भाई! हमारे खजांची का खाना देखने योग्य होता है।

उनका कहना है कि यह जीवन ईश्वर ने ठाठ से जीने के लिए दिया है।

अत: वह दिल खोलकर धन खर्च करता है।

उसका यही मानना है कि धन जमा करने के लिए नहीं होता |”

"अच्छा। ऐसी बात है!”

उसके मित्र ने स्पष्ट करते हुए कहा-“खाली विचारों से ही नहीं, वे कर्मों से भी ऊंचे हैं ।

उनका कहना है कि मरने से पहले सारे धन का प्रयोग कर लेना चाहिए।

यही बात है कि खजांचीजी खूब ऐशो आराम से रहते हैं ।

वह जिस कमरे के बाहर बैठकर भोजन करते हैं, उसका सारा फर्श सोने का बना हुआ है।

कहा जाता है कि इस फर्श को बनाने में उन्होंने पूरी एक लाख सोने की मोहरें खर्च की हैं।

“यही नहीं, वे जिन बर्तनों में भोजन करते हैं, वे भी सोने के बने हैं और जिन बर्तनों में भोजन तैयार किया जाता है वह भी सोने के ही हैं |

मित्र यह अदृभूत दृश्य केवल पूर्णिमा की रात्रि को ही देखने के -लिए मिलता है।

जब पूर्णिमा के चांद की सोने की जैसी किरणें सोने के फर्श पर पड़ती हैं, तो उसे देखकर ऐसा लगता है कि जैसे पृथ्वी पर एक और चांद उतर आया हो |

खजाची सोने के फर्श पर बैठकर सोने के बर्तनों में खाने में तल्लीन हुआ रहता है, तो आप-पास खड़ी जनता उसकी जय-जयकार करने लगती है |”

अपने मित्र की यह बातें सुनकर्र लकड़हारा उस दृश्य को देखने के लिए लालायित हो उठा।

उसने ऐसी विचित्र प्रवृत्ति का व्यक्ति नहीं देखा था|

अपने मित्र के कहने पर लकड़हारा उसके साथ चल दिया।

दोनों एक विशाल वृक्ष पर बैठकर खजांची के घर की ओर देखने, लगे |

उसके महल के अन्दर हजारों लोग इस दृश्य को देखने के लिए उपस्थित थे ।

सभी सोच रहे थे कि कितना भाग्यशाली है यह खजांची, जो कि अनकों प्रकार कै पदार्थ सोने के बर्तनों में खाएगा |

चारों और लोग यही चर्चा कर रहे थे ।

सबकी निगाह चमकते हुए सोने के फर्श पर लगी हुई थी ।

आकाश में पूर्णिमा का. चांद मुस्करा रहा था| सभी लोग उसके भोजन पर बैठने की बड़ी बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहे थे ।

उसके चेहरे से अभिमान का भाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था|

वह जानता था कि उसे देखने के लिए हजारों लोग एकत्रित हुए हैं ।

'खाओ-पीओ, सुख से रहो, इतना ही हाथ आता है |

अन्त में सभी खाली हाथ इस दुनिया से चले जाते हैं ' यही सिद्धान्त था खजांची के जीवन का, वह अधिक-से-अधिक आनन्द प्राप्त कर लेना चाहता था और खाने-पीने का वह बड़ा ही शौकीन था ।

उसके रसोइए तरह-तरह के पकवान बना रहे थे | उनकी सुगन्ध दूर-दूर तक फैल रही थी | खजांची महोदय खुशी में डूबे हुए वहीं पर इधर-उधर टहल रहे थे ।

वह कभी कुछ गुनगुनाने लगता, कभी अपने सेवकों से कुछ कहता, कभी मुस्कराता और कभी अपने-आप जौर-जोर से 'हा-हा' करता हुआ हंसने लगता। उसे देखकर ऐसा लगता था, मानो दुःख या गम नाम की उसकी जिन्दगी में कोई चीज ही न हो; बस, सुख-ही-सुख हों-खुशियां ही खुशियां |

उनके जीवन को देख कुछ लोगों को बड़ी प्रसन्नता होती, कुछ कुढ़ते, कोई उससे ईरर्ष्पी करता और कोई मन-ही-मन भगवान से प्रार्थना करता कि उन्हें अगले जन्म में ऐसे ही सुख मिलें |

भोजन बनकर तैयार हो गया था | सेवकों ने उससे निवेदन किया-“भोजन तैयार है स्वामी! चलिए हम भोजन लगाते हैं |

"बहुत अच्छा, चलो हम चलते हैं ।* खजांची ने कहा | सेवकों ने चौकी लगा 'दी। एक सेवक परात ले आया। दूसरे ने जल से उसमें खजांची के हाथ धुलाए। तीसरे ने हाथ पौंछने के लिए कपड़ा दे दिया।

खजांची भोजन करने बैठा |

चमचमाते-हुए सोने के फर्श पर चन्द्रमा की किरणें एक अजीब दृश्य पैदा कर रही थीं |

फर्श से लौटकर आती चंचल किरणें उसके चेहरे पर पड़तीं, तो ऐसा लगता मानो किसी दूसरे ही.लोक में पहुंच गए हों, जहां सब कुछ सोने का बना हो |

सभी के मुंह से आश्चर्य में निकल उठा-'वाह-वाह' 'वाह-वाह' |

बड़े पुण्य किये होंगे पिछले जन्म में” कुछ लोग कह रहे थे “और नहीं तो क्या, ऐसे भाग्य सबके हो जाते हैं ।

इसी प्रकार की चर्चाएं करते हुए लोग खजांची को भोजन करता हुआ देखने लगे ।

सब उसके गुण गा रहे थे।

लकड़हारे का मित्र एकटक खजांची को देखे जा रहा था।

तभी लकड़हारे को न. जाने क्‍या सूझा वह उसके कंधे पकड़कर झिंझोड़ता हुआ बोला-“मित्र सुनो-सुनो!

क्या बात है भाई ?” मित्र ने कहा ।

देखो भाई! इसी तरह की पूर्णिमा की रात्रि में इस खजांची के घर में मैं भी एक बार भोऊन .करना चाहता हूं ।

“अरे यार! तुम भी क्या बात करते हो ?”

"चाहे तुम कुछ भी कहो मैं ऐसा जरूर करूंगा | बिना अपनी इस इच्छा को पूरी किए मुझे चैन नहीं मिलेगा |”

“क्या बेकार की बात करते हो | इस तरह का पागलपन ठीक नहीं है | कहां राजा भोज कहां गंगू तेली ?”

"ऐसा न कहो मित्र! मैं ऐसा जरूर करूगा |”

"ऐसा कैसे होगा! मुझे तो यह असंग्भव लगता है |”

न "तुम मेरे सच्चे मित्र हो । इस कार्य में तुम ही मेरी कूछ मदद कर सकते ।

मैं! लेकिन मैं क्या कर सकता हूं इसमें ?

“चाहे कुछ भी करो मित्र! तुम उस खर्जाची से मिलो, शायद कुछ बात बन जाए |

“उससे मिलकर क्या होगा ?”

“कोशिश करने में कया हर्ज है? मेरे लिए एक बार तुम उससे मिलकर तो देख लो | यदि मेरी यह इच्छा पूरी न हुई, तो मैं पागल हो जाऊंगा |

“ऐसी जिद को मैं तो केवल एक पागलपन ही कहूंगा। मेरा कहना मानो इस ख्याल को ही अपने दिल से निकाल दो | चुपचाप अपने घर चले जाओ । ख्याली पुलाव बनाना छोड़ दो | हवा में महल नहीं बनाया करते हैं |”

“मुझे तुमसे ऐसी आशा नहीं थी मित्र! चाहे तुम मेरी मदद न करो, पर मेरा निश्चय अटल है। जब तक मेरी यह इच्छा पूरी नहीं होगी, मैं लौटकर घर नहीं जांऊगा |

“मित्र! तुम बड़े जिद्दी हो। मैं तुम्हारा सच्चा मित्र हूं। अतः: तुम्हारी मदद करना मेरा कर्त्तव्य है | मैं खजाची के पास अवश्य जाऊंगा | पर फिर भी कहता

'हूं कि तुम्हारा यह ख्याल कोई समझदारी का काम नेहीं है।

“मित्र तो कहते हो | मेरा यह ख्याल एक पागलपन ही है, परं॑ मैं भी यों ही हार मानने वाला नहीं हूं। यदि तुम इसमें मेरी मदद कर सकों तो, मैं जीवन भर तुम्हारा आभारी रहूंगा।”

अच्छा, भगवान से प्रार्थना करो ।

तुम्हारी इच्छा पूरी हो | मैं अवश्य कोशिश करूंगा ।” इतना कह लकड़हारे का मित्र चुप हो गया।

किन्तु उसके मेन॑ से रह-रहकर तरह-तरह के विचार आ रहे थे | वह सोचता-मनुष्य की बुद्धि का भी क्या, कहना ?

कंहां यह दरिद्र लकड़हारा जो लकड़ियां काटकर अपना पेट भरता है और कहां राजा का खजांची जिसके पास कमी नाम की कोई चीज ही नहीं है।

इस. लकड़हारे के मन॑ में आखिर ऐसी ब्रात क्यों आई ?

कहीं इसका बुरा समय तो नहीं आ रहा है।

इसका यह विचार तो ऐसा ही है-जैसे एक बौना आकाश के तारे तोड़ना चाहे ।

कया इसे अपनी हालत का आभास नहीं है ?

क्या खंजाची इसकी इच्छा पूरी करेगा ?

विश्वास तो नहीं होता परन्तु मुझे तो मित्र का फर्ज पूरा करना ही है, चाहे इसके लिए मेरी गर्दन ही क्यों न उड़ा दी जाए! क्या इस लकड़हारे के साथ भोजन करने में खजांची का अपमान नहीं होगा ?

किसी ने ठीक ही कहा है कि नादान मित्र से समझदार दुश्मन अच्छा होता है। यही बात मेरे साथ भी लागू होती है।

न इस मूर्ख लकड़हारे से मेरी मित्रता होती और न मैं इस मुसीबत में फंसता | मैं क्या करूं ?

तभी खजांची के सेवक कहने लगे-'मित्रों!

थोड़ी देर में हमारे राजा के खजांची महोदय भोजन करेंगे ।

आप जानते ही हैं कि इस भवन का फर्श सोने का है ।

उनके बर्तन भी सोने के हैं ।

यही नहीं जिन बर्तनों में भोजन बनता है, वे भी शुद्ध सोने के ही बने हुए हैं ।

उनके लिए छत्तींस प्रकार के व्यंजन बनाये जाते हैं ।

उनका भोजन दुनिया के किसी अन्य व्यक्ति से श्रेष्ठ होता है।

खजांची महोदय मानते हैं कि मनुष्य को. यह शरीर सुख भोगनें के लिए मिलता है | अतः इससे अधिक-से-अधिक सुख भोगनें चाहिएं । न जाने यह कब साथ छोड़ दे ?”

सभी लोग खजाची की ओर देखने लगे, लकड़हारा फिर ख्यालों में खो गया |

वह मानो सासें रोककर यह सब देख रहा था।

वह भी राज-खजांची के महल के सोने के फर्श की चकाचौंध को देखता, कभी उसके बर्तनों की जगमगाहट को, तो कभी उसके सामने रखे विभिन्‍न पकवानों को |

वह कल्पना करने लगा-

वह सुन्दर वस्त्रों में सजा-धजा उस फंर्श पर बैठा है।

आकाश में पूर्णिमा का चांद मुस्करा रहा है ।

उसकी किरणें फर्श से टकराकर आंखों को चौंघियां रही हैं ।

उसके सामने विभिन्‍न प्रकार के पकवान रखे हैं ।

सेवक उसके सामने हाथ जोडे खड़े हैं ।

वह उन्हें आज्ञा दे रहा है कि उसे फलां पकवान दिया जाए, वह बर्तन उठा लिया जाए।

उसकी कल्पना इससे भी आगे निकल गई।

वह कल्पना में ही विभिन्‍न प्रकार के पकवानों का स्वाद लेने लगा ।

खट्टे-मीठे, चरपरे, विभिन्‍न प्रकार की मिठाइयां, सुगंधित व्यड्जन। न जाने किन-किन पकवानों के स्वाद ले डाले उसने |

एका एक वह अपनी अंगुलियां चाटने लगा।

तभी उसका ध्यान टूट गया |

वह वास्तविकता के धरातल पर आ गया।

उसे बड़ी मायूसी हुई ।

खजांची के साथ भोजन करने की इच्छा ने उसे बेचैन कर दिया।

“वाह रे मेरा भाग्य”-उसके मुहं से निकल पड़ा |

“क्या बात है मित्र?” उसका मित्र साथी बोला।

“बात तो तुम जानते ही हो। मित्र! जैसे भी हो तुम मेरी यह इच्छा पूरी करो | नहीं तो शायद, मैं जी भी नहीं पाऊगा |”

मित्र समझ गया कि खजाची के समान जीने के लिए लकड़हारे की इच्छाएं पागलपन की सीमा तक जा पहुंची हैं ।

इसके लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा |

शायद यह सहज में पतला भी नहीं छोड़ेगा |

मैं खजांची के पास जांऊगा | क्या पता इसकी इच्छा पूरी हो जाए? आगे राम जाने |

तब तक खजांची भोजन कर चुका था | भोजन करने के बाद जब वह उठ खड़ा हुआ तो लोग उसकी जय-जयकार करने लगे । लकड़हारा उसे एकटक देखे जा रहा था | उसके मित्र ने सोचा कि खजांची से कैसे मिला जाएं ?

सहसा उसे ख्याल आया कि उसका एक मित्र राज खजांची के रसोईघर में काम करता है। उसे कूछ आशा बंधी।

शायद कुछ काम बन जाए। डूबते को तिनके का सहारा सहारा होता है ।

इसी आशा से वह उस मित्र को खोजने लगा | किसी तरह वह इहारे को लेकर उसके पास पहुंचा |

रसोइये ने उससे पूछा--“कहो मित्र! कैसे हो ? आज यहां आने का कष्ट कैसे किया? क्या कोई विशेष काम है |

लकड़हारे के मित्र ने कहा--“क्या बताऊं भई एक बहुत बड़ी समस्या आन पड़ी है।

बड़ी आशा से तुम्हारे पास आया हूं |”

"मैं तुम्हारी क्या सेवा कर सकता हूं ?

यदि तुम्हारे किसी काम आ सका, तो मुझे बहुत खुशी होगी |”

"मुझे तुमसे यही आशा थी मित्र! मुझे राजा के खजांची से.मिलना है |” कहते हुए उसने लकड़हारे की इच्छा के बारे में रसोइए को संब कुछ बता दिया ।

“मित्र! तुम्हारी समस्या बड़ी विचित्र है | तुम्हारा काम बनेगा या नहीं, यह तो मैं नहीं कह सकता, हां, तुम्हें अपने स्वामी से मिला सकता हूं ।”

"ठीक है मित्र, तुम हमें अपने स्वामी कें पास ले चलो । शायद बात बन _ जाए। कोशिश करने में कया जाता है ?”

“अच्छी बात है चलो |”

इतना कह रसोइया दोनों को राजखजांची के पास ले गया। खजांची महोदय भोजन करने के बाद आराम कर रहे थे।

अपने रसोइये के साथ दो अपरिचित व्यक्तियों को देखकर उन्हें कुछ आश्चर्य जैसा हुआ |

वहं बोले-”“कहो कया बात है ? ये व्यक्ति कौन हैं ? क्या कोई खास बात है ?”

“ये मेरे मित्र हैं मालिक! आपके पास किसी विशेष काम के लिए आए हैं |"

“विशेष काम! कैसा विशेष काम ?”

मित्र ने कहा-“महाराज! मेरे इस मित्र को एक विचित्र सनक सवार हों गई है|

लगता है इसका दिमाग कुछ फिर गया है|”

“क्या बात हैं ? साफ-साफ बताओ |”

“महाराज! छोटा मुंह बड़ी बात। यदि आप कहने की आज्ञा दें तो मुह खोलूं |”

क्या खजाची इसकी इच्छा पूरी करेगा ?

विश्वास तो नहीं होता परन्तु मुझे तो मित्र का फर्ज पूरा करना ही है, चाहे इसके लिए मेरी गर्दन ही क्यों न उड़ा दी जाए!

क्या इस लकड़हारे के साथ भोजन करने में खजांची का अपमान नहीं होगा ?

किसी ने ठीक ही कहा है कि नादान मित्र से समझदार दुश्मन अच्छा होता है | यही बात मेरे साथ भी लांगू होती है । न इस मूर्ख लकड़हारे से मेरी मित्रता होती और न मैं इस मुसीबत में फसता | मैं क्या करूं ?

तभी खजांची के सेवक कहने लगे-मित्रों! थोड़ी देर में हमारे राजा के खजांची महोदय भोजन करेंगे ।

आप जानते ही हैं कि इस भवन का फर्श सोने का है । उनके बर्तन भी सोने के हैं ।

यही नहीं जिन बर्तनों में भोजन बनता है, वे भी शुद्ध सोने के ही बने हुए हैं। उनके लिए छत्तींस प्रकार के व्यंजन बनाये जाते हैं ।

उनका भोजन दुनिया के किसी अन्य व्यक्ति से श्रेष्ठ होता है ।

खजांची महोदय मानते हैं कि मनुष्य को यह शरीर सुख भोगनें के लिए मिलता है ।

अतः इससे अधिक-से-अधिक सुख भोगनें चाहिएं। न जाने यह कब साथ छोड़ दे ?”

सभी लोग खजाची की ओर देखने लगे, लकड़हारा फिर ख्यालों में खो गया ।

वह मानो सासें रोककर यह सब देख रहा था| वह भी राज-खजांची के महल के सोने के फर्श की चकाचौंध को देखता, कभी उसके बर्तनों की जगमगाहट को, तो कभी उसके सामने रखे विभिन्‍न पकवानों को |

वह कल्पना करने लगा

वह सुन्दर वस्त्रों में सजा-धजा उस फर्श पर बैठा है। आकाश में पूर्णिमा का चांद मुस्करा रहा है । उसकी किरणें फर्श से टकराकर आंखों को चौंधियां रही हैं । उसके सामने विभिन्‍न प्रकार के पकवान रखे हैं । सेवक उसके सामने हाथ जोड़े खड़े हैं । वह उन्हें आज्ञा दे रहा है कि उसे फलां पकवान दिया जाए, वह बर्तन उठा लिया जाए।

उसकी कल्पना इससे भी आगे निकल गई। वह कल्पना में ही विभिन्‍न प्रकार के पकवानों का स्वाद लेने लगा | खट्टे-मीठे, चरपरे, विभिन्‍न प्रकार की मिठाइयां, सुगंधित व्य्जन। न जाने किन-किन पकवानों के स्वाद ले डाले उसने |

एकाएक वह अपनी अंगुलियां चाटने लगा। तभी उसका ध्यान टूट गया। वह वास्तविकता के धरातल पर आ गया। उसे बड़ी मायूसी हुई । खजांची के साथ भोजन करने की इच्छा ने उसे बेचैन कर दिया।

“वाह रे मेरा भाग्य”-उसके मुह से निकल पड़ा |

“क्या बात है मित्र?” उसका मित्र साथी बोला ।

“बात तो तुम जानते ही हो । मित्र! जैसे भी हो तुम मेरी यह इच्छा पूरी

“यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो तुम्हें इसके लिए तीन वर्षों तक मेरे खेत में कारये करना होगा । बोलो, क्या तुम्हे रवीकार है ?

हा महाराज! मुझे स्वीकार है | बस, मुझे एक बार आपका जैसा भोजन मिल जाए | मैं इसके लिए कुछ भी करने को तैयार हूं।* खजांची के पांव छूता हुआ लकड़हारा बोला |

“बड़े हठी मालूम पड़ते हो | देखो-कहना और बात है परन्तु करके दिखाना दूसरी बात है| अभी मौका है ऐसा हठ मत करो |”

“नहीं, नहीं महाराज! यह हठ नहीं है मेरी इच्छा है | मैं आपके खेतों में कार्य करूंगा और अवश्य करूंगा । अपनी इस इच्छा को पूरी करने के लिए मुझे कुछ भी करना स्वीकार है | बस, केवल एक बार आपका जैसा भोजन मिल जाए |”

लकड़हारे के शब्दों को सुनकर खजांची को कुछ भी कहना न आया | वह आश्चर्य से सोच में डूब गया | वह सोचने लगा कि यह कैसा इंसान है जो कि एक बार के भोजन के लिए इतनी कठोर मेहनत करने के लिए भी सहमत हो गया है | कहीं यह सचमुच पागल तो नहीं है।

कुछ देर तक यों ही विचारों के समुद्र में डूबता-उततराता खजांची लकड़हारे के मुंह को देखता रहा | अब भी उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि यह आदमी ऐसा कर पाएगा | उसने फिर कहा-'“देखो, जिद न करो | कहीं तुम बीच में ही भाग खड़े हुए तो |”

नहीं, नहीं महाराज! ऐसा कभी नहीं होगा । मैं अपनी इच्छा पूर्ण करने के लिए तीन साल क्या तीन जन्म तक आपके खेतों में काम कर सकता हूं |

लकड़हारे के इन शब्दों ने खजांची का मुंह बन्द कर दिया | अब उसके सामने न करने के लिए कोई रास्ता नहीं था | ऐसा हठी मनुष्य उसने पहली बार देखा था | वह मन-ही-मन लकड़हारे की मूर्खता पर हंस भी रहा था | किन्तु वह वचन दे चुका था ।

अत: बात पक्की हो गई । लकड़हारा उसी समय से उसके खेतों में काम करने के लिए चला गया | पूरे तीन वर्ष के लिए उसकी कठोर परीक्षा प्रारम्भ हो गई | वह रात-दिन कठोर मेहनत करता; किन्तु उसे थकान का भान भी न रहता | दिन-रात कांम-ही-काम | उसके सामने तो बस एक ही लक्ष्य था-खजांची के सोने के फर्श पर सोने के बर्तनों में भोजन करना | वह इसी लक्ष्य को सामने रखकर सदा काम करता रहता।

खजांची के खेती में और भी लोग काम करते थे, किन्तु वे इतनी मेहनत न करते, जितनी लकड़ंहारा करता। उसे अन्य किसी से बोलने की भी सुध न रहती | वह सदा विचारों में खोया रहता | न किसी से बात, न चीत | बस केवल काम |

लकडहारे की मेहनत रंग लाई । साल भर बाद जब फसल पककर तैयार हुई तो खजांची के आश्चर्य की सीमा न रही।

इस साल पहले की तुलना में दुगना अनाज हुआ था। खजाची अत्यन्त प्रसन्न हुआ | उसे विश्वास होने लगा कि लकड़हारा वास्तव में एक योग्य और मेहनती व्यक्ति है। यदि उसे उचित अवसर और माहौल मिला होता, तो निश्चय ही वह एक बहुत बड़ा आदमी होता | उसे लकड़हारे के वे शब्द याद आने लगे जो उसने उससे कहे थे-'”नहीं, नहीं महाराज! यह हठ नहीं है मेरी इच्छा है| मैं आपके खेतों में कार्य करूंगा और अवश्य करूंगा । अपनी इस इच्छा को पूंरी करने के लिए मुझे कुछ भी करना स्वीकार है| बस, केवल एक बार आपका जैसा भोजन मिल जाए।”

धीरे-धीरे तीन वर्ष बीत गए | लकड़हारे ,का परीक्षा-काल समाप्त हुआ । जब वह परीक्षा के बाद वापस खजांची के महल में जाने लगा, तो उसके साथ काम करने वाले अन्य लोग दुःखी हो गए | उसकी मेहनत और मधुर व्यवहार ने उन सबका दिल जीत .लिया था| उसके कारण उन लोगों को बड़ा आराम मिला था | उसके जाते समय वे लोग आपस में चर्चा करने लगे-”कैसा भलामानुष था|” एक बोला |

“काम से जी चुराना तो जानता ही न था ।” दूसरे ने कहा।

“ऐसी कठोर मेहनत करने वाला आदमी तो हमने देखा ही न था|”

“बड़ा सीधा था बेचारा |”

“सीधा नहीं मूर्ख भी था |”

“नहीं नहीं मूर्ख नहीं, भई, हटी था |”

“ऐसा भी क्‍या हठ जो अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारे? इसे हठ नहीं सनक कहना चाहिए |”

“इसके बदले में उसे मिला ही क्या? बस एक बार खजांची के महल में _ भोजन ही तोन ”

“न जाने इसके पीछे उसकी क्या इच्छा हो?”

“जो भी हो आदमी भला था। ऐसे आदमी संसार में कम ही मिलते हैं । भगवान उसका भला करे |”

मित्रों से विदा होने के बाद लकड़हारा खजांची के पास पहुंचा। वह .बोला-'मेरा प्रणाम स्वीकार करें महाराज! मैंने परिश्रम करने में कभी कोई कमी नहीं की । भगवान ने मेरी लाज रख ली | अब मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूं ।”

“शाबाश युवक! तुम वास्तव में एक मेहनती व्यक्ति हो, पहले तो मैं समझा था कि तुम एक सनकी ही हो ।” खजांची बोला | “हां महाराज! आप सच कहते हैं । मेरी बात सुनकर कोई भी व्यक्ति ऐसा ही समझता |”

“मैं तुम्हारे इस कार्य की प्रशंसा करता हूं। तुम वास्तव में एक कर्मठ व्यक्ति हो | भाग्य से तुम एक निर्धन परिवार में जन्मे | यदि तुम किसी धनवान व्यक्ति के घर जन्म लेते, तो बहुत बड़े आदमी बनते |”

"यह आपकी महानता है महाराज! आपने मुझे सेवा का अवसर दिया, इसके लिए मैं आपका आभारी हूं” हाथ जोड़कर लकड़हारे ने कहा।

"नहीं, इसमें आभार मानने की कोई बात नहीं | तुम अपनी परीक्षा में सफल हो गए हो | तुमने अपने परिश्रम से हमें बहुत लाभ भी पहुंचाया है |“

"यह तो मेरा फर्ज था महाराज!”

"खैर, जो भी हो | संयोग से कल ही पूर्णिमा भी है | कल तुम्हें तुम्हारी परीक्षा का परिणाम मिल जाएगा; कल तुम मेरे महल में, मेरे सोने के बर्तनों में भोजन करोगे |

“आपकी बड़ी कृपा महाराज! सौभाग्य से मेरी इच्छा पूरी हो जाएगी |” "युवक, क्या तुम जानते हो कि तुमने कितना परिश्रम किया? तुमने मेरे खेतों में जो परिश्रम किया, उससे मुझे तीन वर्षों में तीन हजार सोने की मोहरें मिली हैं |”

“महाराज! इसमें मेरा क्या? मैंने तो केवल मेहनत भर की | खेत तो आपके ही थे |”

"फिर भी इतनी मेहनत करके तुम आराम से अपनी जिन्दगी गुजार सकते थे। जो भी है, कल तुम मेरे महल में भोजन तो करोगे ही । इसके साथ ही |

“इसके साथ ही क्या महाराज ?” “वह यह कि एक दिन के लिए तुम मेरे घर के मालिक भी रहोगे | मेरे कहने _ का मतलब यह है कि कल तुम यहां भोजन तो करोगे ही इसके साथ ही इस घर में तुम, जो कुछ करना चाहो, कर सकते हो |”

"हैं। यह आप क्या कहते हैं महाराज? मैं एक गरीब लकड़हारा भला आपके घर का मालिक कैसे हो सकता हूं?” आश्चर्य से खजांची का मुंह ताकता हुआ लकड़हारा बोला |

“हां, यह सत्य है। कल तुम इस घर के मालिक भी रहोगे |” -

“मेरी ऐसी औकात कहां महाराज? ऐसा न कहिए महाराज! मैंने तो आपसे केवल एक दिन के भोजन की ही शर्त रखी थी |”

“परिश्रम का कोई मूल्य नहीं होता युवक! हम हर परिश्रमी व्यक्ति का सम्मान करना जानते हैं। अतः हम जो कुछ भी कह रहे हैं, * _ ' काफी सोच-समझकर कह रहे हैं । यह तुम्हारे परिश्रम का पुरस्कार है। कल प्रात: से पूरे एक दिन और एक रात के लिए तुम इस महल के स्वामी हो। यहां हर व्यक्ति तुम्हारी आज्ञा मानेगा। तुम जो चाहो भोजन करो, जिसे चाहो आज्ञा दो, .. जितना चाहो दान-पुण्य आदि करो | इसमें हमें कोई आपत्ति न होगी |”

“नहीं ' नहीं महाराज! ऐसा न कहिए। मैं इस योग्य कहां? मुझे लज्जित न करें | मुझसे यह न हो सकेगा |”

“तुमसे यह अवश्य होगा | मैंने जो कह दिया, कह दिया । मैं अपनी कही हुई बात कभी वापस नहीं लेता । यह मेरा आखिरी फैसला है |”

लकड़हारे के मुंह से एक भी शब्द नहीं निकल सका। वह टुकर-टुकर खजजांची का मुंह देखता रहा | उसे सहसा उसकी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था।

"क्या सोचने लगे? कल सुबह से चौबीस घण्टे के लिए तुम इस घर के मालिक रहोगे, यही नहीं राजा कोष पर भी तुम्हारा पूरा अधिकार रहेगा । लो, यह चाबियां पकड़ो ।”* यह कहकर खजांची ने राजकोष की चाबियां लकड़हारे को पकड़ा दीं ।

मन्त्रमुग्ध से लकड़हारे ने चाबियां ले लीं। मानो उसकी जीभ ही तालू से चिपक गई हो; उसके मुंह से एक भी शब्द नहीं निकल सका। उसे खजांची के निर्णय पर भारी आश्चर्य हो रहा था |

होता भी क्यों नहीं, फैसला था ही ऐसा कि उस पर सहसा कोई विश्वास नहीं कर सकता था, किन्तु फैसला हो चुका था। वह चौबीस घण्टों के लिए खजांची के महल और राजकोष का स्वामी बन चुका था।

दूसरे दिन प्रात: लकड़हारा उठा । आज.वह राजा का खजांची था | उसने राजसी वस्त्र पहने और रथ में बैठकर घूमने निकला | नये राज खजांची को देखकर लोगों को आश्चर्य हुआ।

सभी उसे प्रणाम करने लगे । उसे देखकर कोई यह अनुमान भी नहीं लगा सकता था कि वह एक मामूली लकड़हारा है | उसका वह मित्र भी उसके साथ बैठा हुआ था।

'उसका मन बल्लियों उछल रहा था | उसने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि वह कभी शाही रथ में बैठकर घूमेगा | उसने तो. केवल खजांची के समान भोजन की इच्छा की थी ।

धीरे-धीरे सांझ हुई | जिस कार्य के लिए उसने तीन वर्ष तक कठोर परिश्रम किया था, वह समय पास आ गँया।

रात्रि हुई, पूर्णिमा का चन्द्रमा आकाश में मुस्कराने लगा । उसकी दूधिया किरणों से सारी धरती नहा उठी । ठंडी हवा बहने लगी। खजांची का महल चन्द्रमा की किरणों में जगमगाने लगा ।

रसोइए उसके लिए अनेक प्रकार के पकवान तैयार .कर रहे थे। कुछ देर बाद उन्होंने भोजन तैयार कर लिया। भोजन का समय हुआ | रसोइयों ने सोने के बर्तनों में सोने के ही फर्श पर खाना सज़ा दिया। चन्द्रमा की किरणों से सोने का फर्श और बर्तन जगमगाने लगे। जिस पल के लिए लकड़हारे ने तीन वर्षों तक परिश्रम किया था, वह आ गया.|

भोजन को सामने देखकर लकड़हारा ईश्वर को याद करने लगा-कि हे ईश्वर! तू बड़ा दयालु है तूने मेरी इच्छा पूर्ण की | मुझे यह सम्मान मिला | मैं तुझे प्रणाम करता हूं।

वह इन्हीं विचारों में डूबा हुआ था कि उसके भोजन प्रारम्भ करने रे पहले ही वहां एक बौद्ध-भिक्षु आ पहुंचा | भिक्षु भूखा था | उसके सामने भोजन के थाल सजे देख उसकी (भिक्षु) की भूख और भी बढ़ गयी | वह बोला-“बहुत भूखा हूं; भोजन दें महाराज!”

इन शब्दों को सुनते-ही लकड़हारे का भोजन की ओर बढ़ता हाथ रुक गया | उसने भिक्षु की ओर देखा | तभी उसे अतिथि धर्म याद आ गया | अतिथि को देवता माना गया है-“अतिथि देवो भव” शब्द बार-बार उसके कानों में टकराने लगे । जो बिना कोई सूचना दिये आ जाए, उसें 'अतिथि कहते हैं | भारतीय संस्कृति में अतिथि को भोजन कराना, अतिथि यज्ञ 'कहा जाता है, तथा प्रतिदिन अतिथि यज्ञ -करने-को कहा गया है । लकड़हारा भले ही पढ़ा-लिखा नहीं था, परन्तु उसने अपने -बड़े-बूढ़ों से इस विषय में सुना था भिक्षु को देख वह उठ खड़ा हुआ और बोला--'प्रणाम अतिथि देवता! हां, क्यों नहीं; लीजिए इस भोजन को ले लीजिंए। मैं भूख़ा.भी रह गया तो क्या हुआ, अतिथि भूखा न रहे | अब यह भोजन आपका है|”

इतना कह उसने सारा भोजन भिक्षु को दे दिया और स्वयं पानी पीकर रह रह गया। भिक्षु भोजन करने लगा ।

उधर राजा का खजांची राजा के पास चला गया था| उसने लकड़हारे की सारी बात राजा को बतायी। लकड़हारा बहुत अच्छे ढंग से सब कार्य करता रहा |

राजा और उसका खजांची वेश बदूलकर उसी महल में छिपकर देख रहे थे कि लकड़हारा क्या करता हैं? जब उसने मना स पना सारा भोजन बौद्ध-भिक्षु को दे दिया, तो दोनों के आश्चर्य की कोई सीमा | उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं 'ही रहा था कि यह लकड़हारा कोई मनुष्य है या कोई महान त्यागी महात्मा | वे उसके प्रति श्रद्धा से भर उठे। वे दोनों उसके सामने आ गये और राजा बोल उठा-'“युवक! महान आश्चर्य है, तीन वर्ष की कड़ी मेहनत ,के बाद तुम्हें इस प्रकार का भोजन करने का अवसर मिला, किन्तु तुमने उसे इस प्रकार भिक्षु को दे दिया।

इसके बाद महाराज ने लकड़हारे की ईमानदारी और उदारता से प्रसन्न: होकर लकड़हारे को खजांची बना दिया । यह देखकर लकड़हारा बहुत चकित हुआ | और प्रसन्नता से लकड़हारे का गला भर आया । वह बोला-“अन्नदाता! मैं आपके चरणों की धूल ' था | आपने मुझे इतना बड़ा पद दिया। इसके लिए मैं आपका किनः शब्दों में आभार प्रकट करूं... ' |”

वह सब ठीक है, कोषाध्यक्ष हमें पूरा विश्वास है कि तुम पूरी ईमानदारी से इस पद पर कार्य करोगे।

मुझे आशीर्वाद दें अन्नदात! मैं पूरी योग्यता से आपकी सेवा कर सकूं । गरीब लकड़हारा अपनी विचित्र इच्छा से खजांची बन गया।