परिश्रम ही पूजा है

बात उस समय की है, जब भगवान बुद्ध के शिष्य गांव-गांव घूमकर धर्म का प्रचार किया करते थे |

किसी गांव में एक अत्यन्त निर्धन किसान रहता था|

जो नाम का तो किसान था, किन्तु खेती से उसे कूछ भी प्राप्त नहीं होता था |

घर में दो ही प्राणी थे--एक स्वयं किसान दूसरी उसकी पत्नी |

किसान बेचारा नित्य मेहनत-मजदूरी करता और जो भी मिलता, उससे अपना और अपनी पत्नी का पेट भरता |

एक दिन वह प्रात: सूर्य निकलते ही घर से निकल पड़ा कि कहीं कुछ काम मिल जाए, तो घर का गुजारा हो |

वह चला जा रहा था कि उसने एक स्थान पर लोगों से घिरे अपने गांव के प्रधान को देखा |

ग्रामवासी गांव की सफाई करने में व्यस्त थे |

प्रधान उन्हें काम बता रहा था कि ऐसा करो, ऐसा न करो।

किसान ने उन लोगों को देखा। उसकी कुछ भी समझ में नहीं आया।

आखिर क्या बात हैं ? यह जानने के लिए वह उन लोगों के पास पहुंचा |

वहां जाने पर उसने सुना, ग्राम प्रधान एक व्यक्ति से कह रहा था-“हां भई, मैंने तुम्हारा नाम लिख लिया है।

तुमने बीस आदमी कहा था न ?”

“जी हां, प्रधानजी!” वह व्यक्ति बोला ।

अच्छा अब तुम जाओ, ठीक से प्रबन्ध कर लेना । ठीक है ना ?” अच्छा जी, बिल्कुल ठीक है।

इसी प्रकार ग्राम प्रधान ने एक-एक कर कई व्यक्तियों को बुलाया।

लोग उसके पास जातें ।

वंह उनका नाम लिखता और उनके कहे अनुसार आदमियों की संख्या लिखता, किसी के नाम दस, किसी के बीस, तीस या चालीस-पचास तथा लोग हामी भर कर लौट जाते |

गरीब किसान खड़ा होकर यह सब देख रहा था।

उसकी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा हैं ?

वह चुपचाप खड़ा रहा |

तभी ग्राम प्रधान की नजर उस पर पड़ी तो वह उससे बोला-“अरे! तुम कब से खड़े हो ?

मैंने तो देखा ही नहीं, कहो क्या तुम्हारा नाम भी लिख दूं ?

कहो कितने आदमी लिखूं ?

“मैं कछ समझा नहीं प्रधानजी! कैसा नाम ? कैसे आदमी ?

कृपया साफ-साफ बताएं कि आप नाम क्यों लिखना चाहते हैं _ ?” किसान ने कहा, “अरे, कया तुंम्हें _ मालूम नहीं, स्वामी कश्यप अपने एक हजार शिष्यों के साथ पधार रहे हैं।

स्वामीजी भगवान गौतम बुद्ध के सबसे प्रमुख शिष्य हैं ।

देश-विदेश में उनकी ख्याति फैल चुकी है ।

यह हमारे गांव का सौभाग्य है कि वह इस गांव में आ रहे हैं। ऐसे महात्माओं के दर्शन बड़े पुण्य से होते हैं |

"हां प्रधानजी! आपका कहना बिल्कुल सत्य है। स्वामी कश्यप बौद्ध धर्म के एक बहुत बडे भिक्षु हैं ।

बौद्ध धर्म में भगवान गौतम बुद्ध के बाद उन्हीं का नाम लिया जाता है। उनके दर्शन पाकर हमारा गांव धन्य हो जाएगा |”

“सुनो, स्वामीजी के एक हजार शिष्यों के लिए भजन की व्यवस्था करनी है।

यह काम कोई एक आदमी नहीं कर सकता, इसलिएं हमने निर्णय लिया है कि सब लोग मिल-जुल कर इस पुण्य के कार्य में हाथ बटाएं |

गांव के सभी व्यक्ति भिक्षुओं को अपने-अपने घरों में भोजन कराएंगे।

जिसे जितनी शक्ति और सामर्थ्य है, वह पांच, दस, बीस, तीस, चालीस या इससे अधिक भिक्षुओं को अपने घर में भोजन कराएगा। इसी लिए लोग अपने नाम लिखा रहे हैं |

"आप ठीक कहते हैं प्रधानजी! इस पुण्य के काम में सभी को हाथ बंटाना ही चाहिए |”

“तो बताओ, तुम कितने भिक्षुओं को भोजन करा सकते हो ? कितने लोगों का नाम लिखूं तुम्हारे नाम पर ?”

"प्रधानजी! आप तो मेरी हालत जानते ही हैं । काश! मैं इस शुभ कार्य में हाथ बंटा पाता | मुझे तो खुद खाने के लाले पड़े हैं| मेरी सारी खेती महाजन के पास गिरवी पड़ी हुई है ।”

“तो क्‍या तुम एक भी भिक्षु को भोजन नहीं कराओगे ?”

“मैं बहुत शर्मिन्दा हूं महाराज! मुझे और अधिक लज्जित न करें| मेरी दरिद्रता आपसे छिपी नहीं है |”

“सुनो भई! मैं साफ बात कहना ठीक समझता हूं।

अपनी इस दशा के लिए तुम स्वयं जिम्मेदार हो |”

“मैं जिम्मेदार हूं! वह कैसे प्रधानजी ?”

"जानना चाहते हो तो सुनो-किन्तु दुःखी न होना और नाराज भी नहीं |”

"सुनाइए महाराज! मैं भला क्यों नाराज होने लगा ?”

“सुनना ही चाहते हो तो सुनो-जो मनुष्य सदा अपने ही लिए सोचता है और कार्य करता है, वह सुखी नहीं रह सकता |

स्वार्थ सभी दुःखों की जड़ है। यों तो मनुष्य जनम से ही स्वार्थी होता है, किन्तु वह कभी दूसरों की भलाई का कार्य भी करता है। एक तुम हो जो कभी कोई परोपकार नहीं करते |

“क्या मैं सबसे बड़ा स्वार्थी हूं महाराज. ?”

“हां भई, बात तो ऐसी ही है। जो मनुष्य सदा अपने ही विषय में सोचता है, न कभी कोई दान करता है, न पुण्य करता है और न कभी किसी का कुछ भी भला करता है, उसे स्वार्थी ही तों कहा जाएगा |”

“आप ठीक कहते हैं प्रधानजी!' मैंने अभी तक सदा अपना और परिवार का ही पेट भरा है।

कभी किसी को एक मुट्ठी अनाज भी नहीं दिया । शायद यही मेरी दरिद्रता का कारण है।

कृपया मेरे नाम पर भी एक भिक्षु का भोजन लिख दीजिए । आप तो जानते ही हैं इससे अधिक मैं नहीं कर सकता |”

“तभी गाव का महाजन वहां आया और प्रधान से बोला-“प्रधान जी!

मैं सौ भिक्षुओ को भोजन कराऊंगा। मेरे नाम पर सौ भिक्षुओं का नाम लिख दो !”

महाजन की बात सुनकर गरीब किसान के दिल पर क्या बीती यह तो राम ही जाने, किन्तु वह सोचने लगा कि गरीबी से मृत्यु अच्छी है|

मृत्यु तो एक ही बार होती है। किन्तु गरीब रोज-रोज मरता रहता है।

गरीबी सचमुच एक बहुत बड़ा अभिशाप है । काश! वह भी धनवान होता |

इसी प्रकार मन में विचार करता हुआ किसान अपने घर पंहुचा | घर जाकर उसने अपनी पत्नी से कहा-”कल स्वामी कश्यप एक हजार शिष्यों के साथ हमारे गांव आ रहे हैं |

गांव के सभी लोग भिक्षुओं को अपने घर भोजन करोयेंगे, इसलिए मैंने भी प्रधानंजी के यहां लिखा दिया है कि मैं भी एक भिक्षु को अपने यहां भोजन कराऊंगा |”

पति की बात सुनकर उसकी पत्नी अत्यन्त प्रसन्न हुई और बोली-“स्वामी यह तो आपने बहुत ही शुभ कार्य किया। सनतों, महात्माओं को भोजन कराना बड़े पुण्य का काम है। भगवान बुद्ध के शिष्य तो बुद्ध का ही दूसरा रूप होते हैं, किन्तु घर में तो कुछ भी नहीं है '|”

“हां, घर में कुछ नहीं है। क्या हम एक दिन भूखे नहीं रह सकते ?”

“आप ठीक कहते हैं । हम एक दिन भूखे रह लेंगे । आज हम दोनों मजदूरी करेंगे ताकि भिक्षु को अच्छे-से-अच्छा भोजन करा सकें ।

हमारी दरिद्रता तो रोज की है। कभी तो कोई अच्छा कार्य करना ही चाहिए। हम एक दिन भूखे ही रह लेंगे। किन्तु इसका किसी को पता नहीं लगने देंगे |”

पत्नी की बातें सुनकर किसान अत्यन्त प्रसन्न हुआ उसके मन से एक बहुत भारी बोझ दूर हो गया।

वह अभी तक मन-ही-मन सोच रहा था कि कहीं उसकी पत्नी उसके इस कार्य से नाराज न हों जाए |

पक्का निश्चय कर कहीं मेहनत-मजदूरी करने के लिए पति-पत्नी दोनों घर से निकल पड़े | दोनों मन-ही-मन भगवान से प्रार्थना कर रहे थे कि आज उन्हें कहीं कोई अच्छा काम मिल जाए, ताकि वे अपने अतिथि का अच्छी तरह स्वागत कर सकें |

चलते-चलते दोनों गांव के महाजन के घर से गुजर रहे थे। तभी उन्हें सुनाई पड़ा कि “अरे भई रुको!” जिन) और उसकी पत्नी रुक गए। उन्होंने देखा कि गांव का महाजन उन्हें ही रहा था।

"कहिए, क्या आज्ञा है महाराज?” किसान ने पूछा |

"देखो भई, कल मेरे घर एक सौ अतिथि भोजन करेंगे। इसके लिए मुझे तुम्हारी जरुरत है ।” महाजन ने कहा।

"मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हू ?”

“बात यह है कि भोजन के लिए मेरे घर में सभी कुछ सामग्री तैयार है किन्तु लकड़ियां नहीं हैं। क्या तुम लकड़ियों का प्रबन्ध कर सकते हो ?”

“हां महाराज! क्यों नहीं ?”

"अच्छी तरह समझ लो । एक सौ आदमियों के लिए भोजन बनना है |”

"आप चिता न करे महाराज!”

“तो इस बात का ध्यान रखना कि लकड़ियां आज शाम तक कट जाएं | तुम मजदूरी की चिंता मत करना। तुम्हें काम के अनुसार पर्याप्त मजदूरी मिल जाएगी |”

“बहुत-बहुत धन्यवाद महाराज! मैं शाम तक लकड़ियां काट लूंगा। आपको कोई शिकायत नहीं रहेगी |”

किसान को तो जैसे मनचाही मुराद मिल गई थी | वह मन-ही-मन सोचने लगा कि ईश्वर बड़ा दयालु है । अब वह आराम से अपने अतिथि को भोजन करा सकेगा | उसे यह भी पता था कि एक सौ आदमियों के भोजन के लिए शाम तक लकड़ियां काटना कोई आसान काम नहीं है, लेकिन क्या करता और कोई चारा भी नहीं था।

किसान ने अपनी पत्नी को घर भेजा ताकि वह घर की सफाई कर सके, और स्वयं कुल्हाड़ा लेकर लकड़ियां काटने जंगल की ओर चल पड़ा |

जंगल में पहुंचकर किसान बड़ी मेहनत के साथ कड़कती धूप में परिश्रम से लकड़ियां काटता रहा, उसके हाथ में छाले पड़ गये और बहुत थक जाने के बाद भी वह अतिथि के भोजन-सत्कार को ध्यान करता तो सब भूलकर और तेजी से काम करता रहा । अपनी मेहनत से पूरी कटी हुई लकड़ियों के ढेर को देखकर उसे भारी सन्तोष हुआ और थोड़ा विश्राम करने के लिए लेट गया।

महाजन दिन में किसान .को लकड़ियां काटते देख चुका था। उसके परिश्रम को देखकर वह मन-ही-मन उसकी प्रशसा कर रहा था | शाम को जब किसान उसके घर आया, तो बोला--“महाराज! मैंने लकड़ियां काट ली हैं । पूरी आशा है कि कम नहीं पड़ेंगी । आप चाहें तो देख लें ।”

“देखने की कोई आवश्यकता नहीं | मैं पहले ही देख चुका हूं। तुम वास्तव में बहुत परिश्रमी हो | तुमने जितना काम एक दिन में कर दिखाया | उतना दस आदमी भी नहीं कर सकते | मैं तुम्हारे काम. से बहुत खुश हूं |

“धन्यवाद महाराजा!”

“धन्यवाद तो मुझे कहना चाहिए । तुमने मेरी बहुत बड़ी समस्या हल कर दी | तुम्हें इसकी मजदूरी एक टोकरी भरकर चावल मिलेंगे। इससे तुम अपने अतिथि को अच्छी तरह भोजन करा सकते हो। और साथ स्वयं भी कई दिन भोजन करोगे |”

इतना कह महाराज ने अपने एक सेवक को आज्ञा दी-”जाओ, एक बड़ी टोकरी चावल ले जाओ |”

"जी अच्छा ।* कहता हुआ सेवक अन्दर गया और थोड़ी देर में एक टोकरी भर चावल और सब्जियां आदि लेकर बाहर आया |

तब महाजन किसान से बोला-“यह लो किसान! यह तुम्हारी मजदूरी है | इतना कह उसने वह चावल, सब्जियां आदि किसान को दे दीं |

इतने अधिक चावल देखकर किसान ठगा-सा रह गया। वह सदा मजदूरी करता था, किन्तु अभी तक उसे इतना परिश्रम कभी नहीं मिला था, जितना महाजन ने दिया था।

किसान को चुप खड़ा देख महाजन बोला-“क्या सोचने लगे ? ले लो तुमने मेहनत की है। उसी की मजदूरी दे रहे हैं |"

“किन्तु महाराज! यह तो बहुत अधिक है |”

"ले लो तुमने मेहनत की है हम अपनी खुशी से दे रहे हैं । कल तुम भी भिक्षु को भोजन करा रहे हो । किसी प्रकार की कमी न हो |”

"फिर भी महाराज ?”

“फिर-विर कुछ भी नहीं । समझ लो कि जिन भिक्षु को तुम भोजन करा रहे हो | यह उसी के भाग्य का है क्योंकि दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता है |”

किसान ने टोकरी सिर पर रखी और सब्जियों आदि की पोटली बांधी और घर की ओर चल पड़ा | अब उसकी सारी चिन्ता मिट चुकी थी | वह मन-ही-मन सोचने लगा कि कल मेरे यहां भिक्षु अतिथि बनकर भोजन करेगा और भोजन की प्रशंसा करेगा | इत्यादि-इत्यादि |

सारा समान लेकर जब वह घर पहुंचा तो उसे देखकर उसकी पत्नी की प्रसन्नता की सीमा न रही । वह भी अभी तक इसी चिंता में डूबी थी कि कल अतिथि के भोजन का क्या होगा? क्योंकि वह भी अतिथि को भगवान का रूप ही समझती थी |

इतने सारे चावल देखकर उसकी सारी चिंता दूर हो गई | पति के सिर से चावलों की टोकरी और पोटली उतारकर वह उसका पसीना पोंछकर पंखा झलने लगी | कुछ देर बाद वह पति से बोली-“बहुत मेहनत करनी पड़ी न? थक गए होंगे । अरे! तुम्हारे हाथों में तो छाले पड़े हैं |”

“नहीं, कोई बात नहीं। थकान और छालों की चिंता मत करो। वह तो एक-दो-दिन में ठीक हो जाएंगे। भगवान को लाख-लाख धन्यवाद दो कि उसने हमारी लाज रख ली | लोग तो सौ-सौ अतिथियों को भोजन करा रहे हैं । हमारे घर तो केवल एक ही अतिथि आएगा ।

यदि हम उसे भी भोजन नहीं करा पाते तो किसे मुंह दिखाते ? भगवान जो कुछ भी करता है, भले के लिए ही करता है। अब अतिथि के भोजन की चिंता करो | भोजन में किसी प्रकार की कमी नहीं रहनी चाहिए | बस, भोजन करने के बाद अतिथि खुश हो जाए | इससे मेरी सारी मेहनत सफल हो जाएगी ।” किसान ने कहा।

“आप चिंता न करें स्वामी! यह सब देखना मेरा काम है । आप थक गए हैं।

सुबह से कुछ खाया भी नहीं है | चलिए, भोजन कर लीजिए और सब कामों के बारे में सुबह साचेंगे । समान तो जुट ही गया है, रहा भोजन तैयार करना, वह मैं कर लूंगी |"

भोजन करने के बाद दोनों पति-पत्नी सो गए। दूसरे दिन प्रातः जब वे दोनों उठे तो देखा कि एक व्यक्ति बाहर खड़ा है। उसने किसान को प्रणाम किया | किसान ने प्रणाम का उत्तर दिया और बोला-“भैया! क्षमा करना, मैंने आपको पहचाना नहीं |

“मैं पास के ही गांव में रहता हूं और एक कुशल रसोइया हूं। मेरे बनाए भोजन से किसी की कोई शिकायत नहीं रहती | मुझे मालूम हुआ है कि आज आपके घर कोई विशिष्ट अतिथि आने वाले हैं | मैंने सोचा आपको रसोइए की आवश्यकता होगी | इसलिए मैं चला आया ” रसोइए ने कहा |

“किन्तु भैया! हम बहुत गरीब हैं | तुम्हें शायद गलतफहमी हो गई है | हमारी इतनी हैसियत नहीं कि हम रसोइया रख सकें । हम दोनों पति-पत्नी स्वयं भोजन बना लेंगे और फिर हमें भोजन ही कितना बनाना है, केवल एक ही अतिथि के लिए न |”

"तो कोई बात नहीं, आप पुण्य का कार्य कर रहे हैं | मैं आपसे कोई पैसा नहीं लूंगा ।”

“नहीं '' नहीं ' ' ऐसा नहीं हो सकता | बिना मजदूरी दिए किसी से काम कराना पाप है |”

"ऐसा न कहिए, मुझे अपना सेवक ही समझिए। समझ लीजिए कि मैं इस पुण्य के काम में आपकी सहायता कर रहा हूं। इस शुभ काम में हाथ बंटाने से मुझे न रोकिए |”

दोनों पति-पत्नी मना करते रहे, किन्तु उस व्यक्ति ने उनकी एक न सुनी और स्वयं रसोईघार में चला गया। किसान और उसकी पत्नी देखते-ही रह गए | वह रसोईघार में जाकर भोजन बनाने की तैयारी करने लगा।

किसान ग्राम प्रधान के घर की ओर चल पड़ा, क्योंकि उसे वहां से अतिथि को लाना था। प्रधान के .घर पर बहुत भीड़ थी। सभी लोग अपनी-अपनी लिखाई संख्या के अनुसार भिक्षुओं को अपने-अपने घर ले जा रहे थे |

भीड़ को चीरता हुआ किसान मुखिया के समाने पहुंचा और बोला-“प्रणाम महाराज! मैं अपने अतिथि को लेने आया हूं ।”

यह सुन प्रधान अपनी पंजिका में किसान का नाम देखने लगा । कई पृष्ठ पलटने पर भी उसे किसान का नाम कहीं न मिला। वह बड़े पशोपेश में पड़ गया और बोला-*“अरे भई! तुम्हारा नाम तो... |”

"हां हां मेरा नाम महाराज! कहिए क्या बात है ?”

"भैया! क्या बताऊं, तुम्हारा नाम तो मैं लिखना ही भूल गया |”

"ऐसा कैसे हो सकता है प्रधानजी? आप ठीक से देखिए |

"देख चुका भई! तुम्हारा नाम है ही नहीं |

"बडी विचित्र बात है प्रधानजी। कल मैंने स्वयं अपना नाम लिखाया था | आज आप कहते हैं, सूची में मेरा नाम ही नहीं है |”

"हा भई! तुम सच कहते हो, मैंने ही तो तुम्हें नाम लिखाने की सलाह दी थी, किन्तु ऐसा कैसे हो गया ?”

अब क्या होगा प्रधान जी! मुझे एक भिक्षु दे ही दीजिए | मैं भोजन की तैयारी कर चुका हूं ?

क्षमा करना भई! अब कुछ नहीं हो सकता | सभी लोग या तो भिक्षुओं को ले जा चुके हैं या ले जाने के लिए खड़े हैं । बताओ इसमें मैं कर ही क्या सकता हू ?

किसान की सारी आशाओं पर पानी फिर गया | उसने बड़ी दयनीय निगाहों से फिर प्रधान की ओर देखा । उसकी आंखों में आंसू छलछला आये | वह रुंधे गले से बोला-“मुझ पर दया करा प्रधानजी!”

“मैं क्या करूं भई! मैं भी भी विवश हूं। शायद तुम्हारे भाग्य में अतिथि को भोजन कराना नहीं लिखा था| यही समझ कर सन्तोष कर लो |”

इस अन्तिम उत्तर को सुन किसान पूरी तरह निराशा हो गया। अतः: वह हारे हुए जुआरी की तरह वहां से लौट पड़ा | कुछ दूर चलने के बाद उसे एक तेजस्वी पुरुष दिखाई दिए जो लोगों को उपदेश दे रहे थे, किसान के दिल में उस तेजस्वी पुरुष को भोजन कराने की इच्छा हुई ।

दृढ़ निश्चय कर वह चल पड़ा और सीधे जाकर उसने भिक्षु के पांव पकड़ लिए । उसका यह व्यवहार देखकर भिक्षु को बड़ा आश्चर्य हुआ | भिक्षु बोला-'तुम्हें क्या दुख है प्राणी ?

भगवान! मेरा दुख आप ही दूर कर सकते हैं | मैं बड़ी आशा से आपके पास आया हूं।* इतना कह वह बिलख-बिलख कर रोने लगा।

रोओ मत, बताओ तुम्हें क्या दुख हैं? यदि सम्भव हुआ तो मैं तुम्हारा दुख दूर करने का प्रयन्त करूंगा |

मेरा दुख बहुत बड़ा है यदि आप कृपा करें तो वह दूर हो जाएगा । यदि आपने भी मेरी उपेक्षा कर दी, तो मैं कहीं का नहीं रहूंगा ।

ऐसे अशुभ शब्द मुंह से मत निकालो | अपना दुख बताओ | मैं वचन देता हूं, यदि मेरे वश में हुआ तो मैं तुम्हारा दुख अवश्य दूर करूंगा |

भगवन! मैं केवल इतना भर चाहता हू... |

हां-हां कहो, रुक क्यों गए ?

"भगवन! आप मेरे घर भोजन कर मुझे कृतार्थ करें |”

“बस केवल इतनी-सी. बात। इसमें रोने की -कौन-सी बात है ?” अपनी करूणा पूर्ण वाणी में भिक्षु बोला |

"हा भगवन!”

"ठीक है, हम तुम्हारे घर भोजन करेंगे । चलो, हम अभी तुम्हारे घर चलते हैं। इतना कह भिक्षु ने उपदेश देना बन्द कर उसके साथ चल पड़ा | भिक्षु की इस उदारता के लिए लोग उसे धन्य-धन्य कहने लगे।

यह देख सभा में उपस्थित सभी व्यक्तियों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि एक दरिद्र किसान के लिए भिक्षु ने अपना भाषण भी बन्द कर दिया और उसके साथ चल पड़ा | भिक्षु की इस उदारता के लिए लोग उसे धन्य-धन्य कहने लगे।

यह भिक्षु और कोई नहीं, भगवान गौतम बुद्ध के सबसे प्रिय शिष्य स्वामी स्थिविर थे | उन्हें अपने घर भोजन कराना बड़े गौरव की बात थी | लोग किसान के भाग्य को सराहने लगे, क्योंकि स्वामी स्थिविर ने ग्राम प्रधान के यहां भोजन का निमन्त्रण अस्वीकार कर दिया था। कहां एक दरिद्र किसान और उसकी टूटी-फूटी कुटिया, कहां स्वामी स्थिविर ?

स्वामी स्थिविर किसान के घर पहुंचे । किसान और उसकी पत्नी ने श्रद्धा और भक्ति के साथ उन्हें आसन पर बैठाया | भोजन की तैयारी हो गई | रसोइया स्थिविर के सामने भोजन परोसने लगा। यह देखकर लोगों को और भी महान आश्चर्य हुआ | वे परस्पर कहने लगे-

“आश्चर्य! महान आश्चर्य! हमें तो अपनी आंखों पर ही विश्वास नहीं होता | कहां दरिद्र किसान, जो स्वयं आपने लिए भी भोजन नहीं जुटा पाता था| कहां इसके घर में रसोइया! प्रभु की यह कैसी विचित्र लीला हैं ? फिर यह रसोइया कौन है और कहां से आया हैं? इसे तो किसी ने कभी देखा भी नहीं |

अभी तक उन्हें यह विश्वास भी न था कि स्वामी स्थिविर उस दरिद्र किसान के घर भोजन करेंगे. किन्तु प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या ?

सभी ने देखा कि किसान और उसकी पत्नी स्वामीजी के चरण धो रहे हैं । उसके बाद वह भोजन करने लगे ।

जब स्वामी स्थिविर भोजन कर चुके, तो किसान हाथ जोड़कर बोला-“भगवन्‌! आपने मुझ दरिद्र 'कें घर में भोजन करके जो उपकार किया है, इसके लिए मैं जन्म-जन्म तक आपका ऋणी रहूंगा। मेरी समझ में नहीं आता कि मैं किन शब्दों में आपका आभार प्रकट करूं ?”

“किसान! सच तो यह है कि छोटा या बड़ा कोई नहीं होता | छोटे-बड़े का भेद तो अज्ञानी मनुष्यों का बनाया हुआ है |

“यह तो आपकी उदारता है भगवन्‌! नहीं तो मैं तो एक अधम प्राणी हूं ।”

“नहीं, तुम अधम नहीं हो | तुम महान हो । जिसका मन पवित्र है, वह मनुष्य कभी अधम नहीं हो सकता । हम ऐसे प्राणी को श्रेष्ठ समझते हैं । जो परिश्रम करता है, वह हमारी दृष्टि में महान है जो परिश्रम नहीं करता, उसे हम नीच

समझते हैं | तुमने जो परिश्रम किया, उसे चाहे दुनिया देखे या न देखे, किन्तु भगवान ने देखा है |”

” किसान कुछ भी न कह सका।

"क्या तुम जानते हो, तुम्हारा यह रसोइया. |”

"स्वामी जी कुछ कहते, इससे पहले ही किसान उनके पास बैठ बहुत दीन होकर कहने लगा-आपने हम पर बहुत कृपा की है |

थोड़ी देर में सबको पता चला कि जो रसोई का काम कर रहे थे स्वयं भगवान इन्द्र थे । इस प्रकार का चमत्कार देखकर लोग चकित हो गये।

थोड़ी देर बाद आकाश में घटाएं घिर आयीं लेकिन घटाओं से पानी के बजाए | केवल उस किसान के घर में ही हीरे, ज्वाहारात, रत्न इत्यादि की वर्षा हो रही है | किसान बहुत खुश हुआ और सभी गंववाले किसान की जय-जयकार करने लगे |

स्वामीजी किसान की ईमानदारी से बहुत प्रसन्न हुए और किसान की पीठ पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया | किसान बहुत ही खुश हुआ । तथा सभी लोग प्रेमपूर्वक रहने लगे |

गांव के लोग तो हक्के-बकके जैसे रह गए । कोई इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता था कि ऐसा दरिद्र, किसान जिसे भर पेट भोजन मिलना भी मुश्किल था । एक दिन इतना बड़ा धनवान हो जाएगा ।

सभी गांववासी उसकी गरीबी के कारण उससे घृणा कंरते थे, किन्तु आज की घटना देखकर उन सबकी आंखें फटी-की-फटी रह गयीं |

ग्राम प्रधान जो कल तक उससे सीधे. मुंह बात भी नहीं करता था, उसने उसे गले लगा लिया और बोला-“तुम्हारी भक्ति सच्ची थी किसान! लगता है हम सब दिखावा करते थे |

तुम्हारी भक्ति के सामने हम सब बौने हो गए हैं| तुम जीते, हम हार गये | यह सब स्वामी स्थिविर की कृपा का ही परिणाम है। अब तो तुम राजा हो गए हो | शायद ही इतना धन किसी राजा के पास हो |

किसान अब तक धन के ही बार में सोच रहा था | अब उसे स्वामीजी का ख्याल आया | वह स्वामीजी के चरणों में गिर पड़ा |

उसकी आंखों से आंसुओं की धारा बह रही थी और मुंह से एक भी शब्द नहीं निकल पा रहा था। वह स्वामीजी के चरणों में एक बच्चे की तरह लोटने लगा ।

स्वामीजी ने मुस्कराते हुए उसके सिर पर स्नेह भरा हाथ रखा ।