हज़ारों साल पहले वाराणसी में एक सँपेरा रहता था।
उसके पास एक साँप और एक बंदर था।
लोगों के सामने वह उनके करतब दिखा जो पैसा पाता उससे ही अपना गुजर-बसर करता था।
उन्हीं दिनों वाराणसी में सात दिनों का एक त्यौहार मनाया जा रहा था, जिससे सारे नगर में धूम मची हुई थी।
सँपेरा भी उस उत्सव में सम्मिलित होना चाहता था।
अत: उसने अपने बंदर को अपने एक मित्र के पास छोड़ दिया जिसके पास एक विशाल मक्के का खेत था।
मक्के का खेतिहर बंदर की अच्छी देखभाल करता और समय पर यथायोग्य भोजन भी कराता रहा।
सात दिनों के बाद वह सँपेरा वापिस लौटा।
उत्सव का मद और मदिरा का उन्माद उस पर अब भी छाया हुआ था।
खेतिहर से जब अपने बंदर को वापिस लेकर वह अपने घर को लौट रहा था तो अकारण ही
उस बन्दर को एक मोटे बाँस की खपची से तीन बार मारा जैसे कि वह एक ढोल हो।
घर लाकर उसने बंदर को अपने घर के पास के एक पेड़ से बाँध दिया और
मदिरा और नींद के उन्माद में पास पड़ी खाट पर बेसुध सो गया।
बंदर का बंधन ढीला था।
थोड़े ही प्रयत्न से उसने स्वयं को रस्सी से मुक्त कर लिया और पास के पेड़ पर जा बैठा।
सँपेरे की जब नींद टूटी और बंदर को उसने मुक्त पाया तो पास बुलाने के उद्देश्य से
उसने उसे पुचकारते हुए कहा, “आ जा ओ अच्छे बंदर! आ जा मेरा बंदर महान्!!”
बंदर ने तब उसके प्रत्युत्तर में कहा-“ओ सँपेरे! वृथा है तुम्हारा यह गुणगान क्योंकि बंदर होते नहीं महान्।”
फिर वह बंदर तत्काल ही वहाँ से उछलता कूदता कहीं दूर निकल गया और सँपेरा हाथ मलता ही रहा गया।