हिमवंत के वन में कभी एक जंगली भैंसा रहता था।
कीचड़ से सना, काला और बदबूदार।
किंतु वह एक शीलवान भैंसा था।
उसी वन में एक नटखट बंदर भी रहा करता था।
शरारत करने में उसे बहुत आनंद आता था।
मगर उससे भी अधिक आनंद उसे दूसरों को चिढ़ाने और परेशान करने में आता था।
अत: स्वभावत: वह भैंसा को भी परेशान करता रहता था।
कभी वह सोते में उसके ऊपर कूद पड़ता; कभी उसे घास चरने से रोकता तो कभी उसके सींगों को पकड़ कर
कूदता हुआ नीचे उतर जाता तो कभी उसके ऊपर यमराज की तरह एक छड़ी लेकर सवारी कर लेता।
भारतीय मिथक परम्पराओं में यमराज की सवारी भैंसा बतलाई जाती है।
उसी वन के एक वृक्ष पर एक यक्ष रहता था।
उसे बंदन की छेड़खानी बिल्कुल पसन्द न थी।
उसने कई बार बंदर को दंडित करने के लिए भैंसा को प्रेरित किया क्योंकि वह बलवान और बलिष्ठ भी था।
किंतु भैंसा ऐसा मानता था कि किसी भी प्राणी को चोट पहुँचाना शीलत्व नहीं है; और दूसरों को चोट पहुँचाना सच्चे सुख का अवरोधक भी है।
वह यह भी मानता था कि कोई भी प्राणी अपने कर्मों से मुक्त नहीं हो सकता।
कर्मों का फल तो सदा मिलता ही है।
अत: बंदर भी अपने बुरे कर्मों का फल एक दिन अवश्य पाएगा।
और एक दिन ऐसा ही हुआ जबकि वह भैंसा घास चरता हुआ दूर किसी दूसरे वन में चला गया।
संयोगवश उसी दिन एक दूसरा भैंसा पहले भैंसा के स्थान पर आकर चरने लगा।
तभी उछलता कूदता बंदर भी उधर आ पहुँचा।
बंदर ने आव देखी न ताव।
पूर्ववत् वह दूसरे भैंसा के ऊपर चढ़ने की वैसी ही धृष्टता कर बैठा।
किंतु दूसरे भैंसा ने बंदर की शरारत को सहन नहीं किया और उसी तत्काल जमीन पर
पटक कर उसकी छाती में सींग घुसेड़ दिये और पैरों से उसे रौंद डाला ।
क्षण मात्र में ही बंदर के प्राण पखेरु उड़ गये।