हिमालय के घने वन में सिलवा नाम का एक हाथी रहता था।
उसका शरीर चांदी की तरह चमकीला और सफेद था।
उसकी आंखें हीरे की तरह चमकदार थी।
उसकी सूंड सुहागा लगे सोने के समान कांतिमय थी।
उसके चारों पैर तो मानो लाख के बने हुए थे।
वह 80000 गजों का राजा भी था।
वन में विचरण करते हुए एक दिन सिलवा ने एक व्यक्ति को विलाप करते हुए देखा।
उसकी भंगिमा से यह स्पष्ट था कि वह उस निर्जन वन में अपना मार्ग भूल बैठा था।
सिलवा को उस व्यक्ति की दशा पर दया आई।
वह उसकी सहायता के लिए आगे बढ़ा मगर व्यक्ति ने समझा कि हाथी उसे मारने आ रहा था।
अतः वह दौड़ कर भागने लगा।
उसके भय दूर करने के लिए सिलवा बड़ी शालीनता से अपने स्थान पर खड़ा हो गया,जिससे भागता आदमी भी थम गया।
सिलवा ने जो ही पैर फिर आगे बढ़ाया वह आदमी फिर भाग खड़ा हुआ
और जैसे ही सिलवा मैं अपने पैर रोके वह आदमी भी रुक गया।
तीन बार जब सिलवा ने अपने उपक्रम को वैसे ही दोहराया तो भागते आदमी का भय भी भाग गया।
वह समझ गया कि सिल्वर कोई खतरनाक हाथी नहीं था तब वह आदमी निर्भीक होकर अपने स्थान पर स्थिर हो गया।
सिलवा ने तब उसके पास पहुंच कर उसकी सहायता का प्रस्ताव रखा।
आदमी ने तत्काल उसके प्रस्ताव को स्वीकार किया।
सिलवा ने उसे तब अपनी सूंड से उठाकर पीठ पर बिठा लिया और अपने निवास स्थान पर ले जाकर नाना प्रकार के फलों से उसकी आव भगत की।
अंततः जब उस आदमी की भूख प्यास का निवारण हो गया तो सिलवा ने उसे पुन्हा अपनी पीठ
पर बिठाकर उस निर्जन वन के बाहर उसकी बस्ती के करीब लाकर छोड़ दिया।
वह आदमी लोभी और कृतघ्न था।
तत्काल ही वह एक शहर के बाजार में एक बड़े व्यापारी से हाथी दाँत का सौदा कर आया।
कुछ ही दिनों में वह आरी आदि औजार और रास्ते के लिए समुचित भोजन का प्रबंध कर सिलवा के निवास स्थान की ओर चल दिया।
जब वह व्यक्ति सिलवा के सामने पहुंचा तो सिलवा ने उससे उसके पुनरागमन का उद्देश्य पूछा।
उस व्यक्ति ने तब अपनी निर्धनता दूर करने के लिए उसके दांतों की याचना की।
उन दिनों सिलवा दान शील होने की साधना कर रहा था।
अतः उसने उस आदमी की याचना को सहर्ष स्वीकार कर लिया तथा उसकी सहायता के लिए घुटनों पर बैठ गया ताकि वह उसके दांत काट सके।
उस व्यक्ति ने शहर लौट कर पीलवा के दांतो को बेचा और उनकी भरपूर कीमत भी पाई
मगर प्राप्त धन से उसकी तृष्णा और भी बलवती हो गई।
वह महीने भर में फिर सिलवा के पास पहुंचकर उसके शेष दांतों की याचना कर बैठा।
सिलवा ने उसे पुन्हा अनुग्रहित किया।
कुछ ही दिनों के बाद वह लोभी फिर से सिलवा के पास पहुंचा और उसके शेष दांतो को भी निकाल कर ले जाने की इच्छा जताई।
दान परायण सिलवा ने उस व्यक्ति की इस याचना को भी सहर्ष स्विकार कर लिया।
फिर क्या था क्षण भर में वह आदमी सिलवा के मसूड़ों को काट छेद कर
उसके सारे दांत समूल निकाल कर अपने गंतव्य को तत्काल प्रस्थान कर गया।दिया
खून से लथपथ दर्द से व्याकुल करहाता सिलवा फिर जीवित ना रह सका और कुछ समय उपरांत दम तोड़ दिया।
लौटता लोभी जब वन की सीमा भी नहीं पार कर पाया था तभी धरती अचानक फट गई
और वह आदमी काल के गाल में समा गया।
तभी वहां वास करती हुई एक वृक्ष यक्षिणी ने यह गान गाया –
‘मांगती है तृष्णा और और
मिटा नहीं सकता जिसकी भूख को सारा संसार।’