धुन का पक्का

होनहार युवक

मदीन मश्की पूरे वाराणसी में मशहूर था ।

गंगा नदी के तट पर ही वह अपने अन्य भाई - बन्दों के साथ रहता था ।

उसका काम था कि सुबह - सुबह ही गंगा नदी से अपनी मश्क में पानी भरता और बड़े लोगों के घरों तक पहुंचाता ।

एक दिन की बात है कि गरीब रामदीन सुबह - सुबह मश्क उठाए बस्ती की ओर बढ़ा जा रहा था

कि अचानक उसकी नजरें धरती पर पड़ी किसी चमकती वस्तु पर पड़ीं ।

रामदीन ने उसे उठाकर देखा तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा ।

वह चांदी का रुपया था ।

" अरे वाह ! सुबह - सुबह चांदी का रुपया हे मां लक्ष्मी ! आज तो तुमने मुझ गरीब पर बड़ी कृपा की । "

रामदीन की खुशी का ठिकाना नहीं था ।

अब समस्या थी कि रुपए को रखेगा कहां ।

उसकी झोंपड़ी इतनी सुरक्षित नहीं थी ।

क्योंकि उसमें दरवाजा नहीं था । बस एक पर्दा - सा द्वार पर लटका रहता था । “ हे प्रभु ! इस रुपए को कहां रखूं जो यह सुरक्षित रह सके । इस रुपए को तो किसी खास ही मौके पर खर्च करना चाहता हूं , मगर तब तक इसकी सुरक्षा कैसे

करू ? " रामदीन नई चिन्ता में डूब गया ।

रामदीन की अभी शादी नहीं हुई थी ।

उसके मन में आया कि क्यों न में यह रुपया कहीं छिपाकर रख दूं और अपनी शादी पर इसे खर्च करूं ।

शादी के बाद इससे अपनी बीवी के साज शृंगार का सामान लाकर दूंगा तो वह बहुत खुश होगी ।

यह तो निर्णय रामदीन ने कर लिया कि वह इस रुपए का क्या करेगा , मगर पहले चाली समस्या जहां की तहां थी कि इस रुपए को कहां छिपाया जाए ।

अचानक उसके गन में ख्याल आया कि इस रुपए को क्यों न मैं पुराने राजमहल की पिछवाड़े वाली दीवार गे छिपा दूं ।

वहां तो कोई आता - जाता भी नहीं है ।

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यही सोचकर रामदीन महल की ओर चल दिया ।

पुराना महल नगर से काफी दूर था और वहां अब आबादी भी नहीं थी ।

रामदीन महल के पिछवाड़े पहुंचा , एक जगह से दीवार थोड़ी टूटी हुई थी ।

रामदीन ने एक - दो ईंटें और हटाई और अपने सिर पर बांधने वाले कपड़े में से थोड़ा कपड़ा फाड़कर रुपया उसमें लपेटकर खड़े में रख दिया ।

जो ईंटें हटाई थीं , उन्हें वैसे ही लगा दिया ताकि रुपया किसी को दिखाई न दे ।

" हाँ अब ठीक है— रुपया यहां सुरक्षित है — न चोरी का डर और न आंधी - तूफान

का खतरा । "

रामदीन चांदी का वह रुपया पाकर समझ रहा था कि मैं अब काफी अमीर हो गया हूं ।

अब रामदीन को अपनी शादी का इन्तजार था कि कब उसकी शादी हो और कब वह उस रुपए को निकालकर खर्च करे ।

अचानक रामदीन की आंखों के सामने रामू धोबी की बेटी पारो का चेहरा थिरकने लगा ।

वह पारो को मन - ही - मन चाहता था और उससे शादी भी करना चाहता था ।

मगर रामू काका से बात करने की उसकी हिम्मत नहीं होती थी ।

उसने सोचा कि क्यों न लालाराम पंसारी की मार्फत बात आगे बढ़ाई जाए ।

यह ख्याल मन में आते ही वह उल्टे पैर लालाराम पंसारी की दुकान की ओर चल दिया ।

" राम राम लाला "

" अरे रामदीन — भई आज सुबह - सुबह यहां कैसे काम - धंधे पर नहीं गया क्या ? "

" क्या बताऊं लालाजी — यह ससुरा चौका - बर्तन से फुर्सत मिले तो न धंधे की बात

1- अब तो मन में आता है कि तुम्हारा कहा मान ही लें - चौका - बर्तन से फुर्सत पाएंगे तो मन लगाकर काम भी करेंगे । "

सोचे-

" मेरी बात ...। " लाला चौका- " मेरी कौन - सी बात रे ? "

" अरे वो ही ... शादी की बात —तुम कहे नहीं थे कि अब हमें शादी कर लेनी चाहिए । "

" अच्छा - अच्छा शादी ... अरे तू हां करे तो रामू से आज ही बात करूं कई बार कह चुका है कि लाला कोई अच्छा - सा और मेहनती लड़का बताओ । "

" अरे तो हम कौन - से कम मेहनती हैं लाला आप बात पक्की करवा दो तो हम चट मंगनी और पट ब्याह कर लें । "

और फिर लालाराम पंसारी ने रामू धोबी से बात करके उसकी बेटी पारो से रामदीन की बात पक्की करवा दी ।

दूसरे दिन ही दोनों की शादी भी हो गई ।

शादी होकर पारो रामदीन की झोंपड़ी में आ गई ।

दोनों पति - पत्नी खुशी - खुशी अपने दिन गुजारने लगे ।

शादी के बाद रामदीन पारो के प्यार में ऐसा खो गया कि उसे रुपए का ध्यान ही न रहा ।

वह तो बस काम पर जाता और जो दो चार पैसे कमाकर लाता , पारो के हाथ पर रख देता ।

आषाढ़ के महीने में गंगा तट पर हर साल मेला लगा करता था ।

एक दिन पारो ने उसके गले में बाहें डालकर प्यार से कहा- " सुनो जी क्या मुझे मेला घुमाने नहीं ले चलोगे ? "

सुनकर रामदीन घर से बाहर आ गया ।

वह बड़ी विन्ता में डूब गया था कि आखिर पारो को मेला घुमाने के लिए पैसा कहां से आए ।

" अरे ऽऽऽ ! ” अचानक रामदीन खुशी से उछल पड़ा ।

एकाएक ही उसे उस रुपए की याद आई जो शादी से कुछ ही दिन पहले वह पुराने राजमहल की दीवार में छिपा आया था ।

उस रुपए को पाकर ही तो उसके मन में शादी करने का विचार आया था और शादी के बाद पारो के प्यार में वह उस रुपए को भूल ही गया था ।

वह तेजी से उठकर अपनी झोंपड़ी में गया और जाते ही पारो को गोद में भरकर खुशी से नाचने लगा ।

" अरे ... रे ... यह क्या करते हो — छोड़ो मुझे अभी तो मेला जाने के नाम पर तुम्हारी नानी मर गई थी और

अब ऐसे खुश हो रहे हो जैसे तुम्हारे हाथ कोई खजाना लग गया हो ।

" " खजाना ही हाथ लग गया समझ लो मेरी पारो रानी ।

" कहते हुए उसने पारो को नीचे उतार दिया और रुपए वाली पूरी बात बता दी । "

अरे वाह ! चांदी के एक रुपए से तो हम काफी चीजें खरीद सकते हैं ।

" खुश होकर पारो बोली - " देखो जी ! मैं तो अपने कानों के झुमके जरूर खरीदूंगी । "

" हां हां , जरूर खरीदना- अब में जल्दी से जाकर वह रुपया निकालकर लाता हूं ।

तुम तैयार हो जाओ , हम आज ही मेला देखने चलेंगे । "

और फिर रामदीन महल के पिछवाड़े वाली दीवार से रुपया निकालने चल दिया । उस रुपये को रामदीन अपने लिए बड़ा भाग्यशाली समझ रहा था । उसी की बदौलत उसकी पारो से शादी हुई थी । उसके लिए तो सारी दुनिया की दौलत एक तरफ थी और वह रुपया एक तरफ । इस रुपए की बदौलत ही उसने पारो को पत्नी रूप में पाया था । रामदीन तेजी से पुराने महल की ओर भागा जा रहा था । जिस सड़क पर वह भागा जा रहा था , वह जंगल में स्थित पुराने महल की ओर जा रही थी । वहीं एक और नया राजमहल था । जिस समय रामदीन भागा जा रहा था , उसी समय महाराज महल की छत पर खड़े अपने मंत्रियों से मंत्रणा कर रहे थे । अचानक उनकी नजर रामदीन पर पड़ी तो वह यह देखकर हैरान हुए कि पसीने में तर चतर यह युवक भरी दोपहरी में न जाने कहां भागा जा रहा है । वह भी जंगल वाले रास्ते पर

" मंत्रीजी । " " जी महाराज ! "

इस युवक को देख रहे हो जो भरी दोपहरी में पसीने से तर - बतर जंगल की और भागा जा रहा है । "

" देख रहा हूं महाराज ! ”

' इसे फौरन पकड़वाकर हमारे सामने पेश कीजिए जंगल की ओर भागे जाने का इसका अवश्य ही

कोई खास प्रयोजन है- हम जानना चाहते हैं कि बदहवास - सा यह क्यों और कहा भागा जा रहा है—

अपनी प्रजा के सुख - दुख का ख्याल रखना हमारा धर्म ' है । "

" जो आज्ञा महाराज । "

मंत्री जी ने तुरन्त सिपाहियों को आदेश दिया और देखते ही देखते एक सिपाही रामदीन के पीछे भागता दिखाई देने लगा ।

कुछ ही देर बाद सिपाही ने उसे ले जाकर महाराज के सामने पेश कर दिया ।

डरा हुआ रामदीन हाथ जोड़े महाराज के सामने खड़ा

था ।

" हे युवक ! तुम कौन हो और इस प्रकार चिलचिलाती धूप में बेहताशा कहां भागे जा रहे थे । "

" महाराज ! मेरा नाम रामदीन भिश्ती है मैं एक बड़े ही आवश्यक कार्य से जा

रहा था । "

" आखिर वह आवश्यक कार्य क्या है जिसके आगे तुम्हें धूप - छांव की भी परवाह नहीं है । "

" महाराज , दरअसल बात यह है कि पुराने महल के पिछवाड़े वाली दीवार में मैंने

अपना खजाना छिपाया हुआ है- आज अपनी पत्नी को सावन का मेला घुमाने के लिए

मैं अपना वही खजाना निकालने जा रहा हूं । " " खजाना ? ” महाराज चौके ।

" जी महाराज ! "

" तुम्हारे पास कितना खजाना है रे युवक जो तुम इस कदर भागे जा रहे हो ? " महाराज ने हैरानी से पूछा - " क्या दस - पांच हजार मोहरें हैं ? "

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" नहीं महाराज । " " हजार दो हजार । ”

" इतनी भी नहीं महाराज । " रामदीन बोला " मेरा खजाना तो सिर्फ चांदी का एक सिक्का है । "

है । "

“ क्या ? " महाराज पुनः चौके- " केवल चांदी का एक सिक्का ? " " जी महाराज — वही मेरा खजाना है जिसे मैंने काफी दिनों से संजोकर रखा हुआ

महाराज हैरानी से रामदीन का चेहरा देखे जा रहे थे ।

रामदीन का भोलापन देखकर उन्हें उस पर तरस आने लगा था ।

जबकि रामदीन कहे जा रहा था - " उस एक सिक्के से ही मैं अपनी पत्नी को मेला दिखाकर

खुश कर दूंगा महाराज — मेरी पत्नी के सिवा तो मेरा इस दुनिया में कोई भी नहीं है महाराज ।

" " यदि ऐसी बात है तो हम तुम्हें अपने खजाने से चांदी का एक सिक्का दिला

देते हैं — उसे लेकर तुम घर जाओ और अपनी पत्नी के साथ मेला देख आओ — उस एक सिक्के के लिए इस चिलचिलाती धूप में

दौड़ने से क्या लाभ ? " " महाराज ! आप मुझ पर मेहरबानी करके मुझे एक रुपया दे रहे हैं ,

यह तो बड़ी खुशी की बात है मगर फिर भी मैं अपना वो रुपया लेने अवश्य जाऊंगा - वह रुपया मेरे लिए बड़ा भाग्यशाली है । "

" देखो रामदीन - इस तपती दोपहरी में जंगल की ओर जाने का विचार

त्याग दो — तुम हमारी प्रजा हो , और हम राजा हैं — अपनी प्रजा के सुख - दुख का ख्याल रखना हमारा कर्तव्य है —

तुम्हें चांदी का एक सिक्का कम लगता है , तो हम दो सिक्के दिलवा देते हैं । ' " आप हमारे अन्नदाता हैं

महाराज- आप कृपा कर जो भी देंगे , मैं सहर्ष स्वीकार ' कर लूंगा - किन्तु ... । "

" किन्तु क्या ? "

" मैं अपना वह रुपया लेने जंगल में अवश्य जाऊंगा । " " यदि हम तुम्हें सी मोहरे दें तो क्या तब भी ... ? " .

" हां महाराज — तब भी । "

' अंजीव बेवकूफ और जिद्दी युवक है— सौ मोहरें लेकर भी अपना एक सिक्का छोड़ने को तैयार नहीं – आखिर ऐसी क्या विशेषता है उस सिक्के में ।

' सोचते हुए महाराज ने पूजा – " अरे युवक ! तेरे उस सिक्के की क्या विशेषता है जो सौ मोहरों के बदले भी तू

उसका मोह छोड़ने को तैयार नहीं । "

" महाराज ! मैं बता चुका हूं कि मेरे लिए वह सिक्का बड़ा ही भाग्यशाली है .

यदि मुझे वह सिक्का न मिला होता , तो मैंने शादी भी न की होती — यदि शादी न करता तो

मुझे पारो जैसी सुन्दर और सुशील पत्नी भी न मिली होती इसलिए महाराज ! वह रुपया मेरे लिए बहुत कीमती है ।

" महाराज ने सोचा कि यह लड़का धुन का पक्का है , मगर यह ईमानदार है या लालची , अतः इसकी परीक्षा लेनी चाहिए ।

अतः वह बोले – “ रामदीन ! यदि हम तुम्हें हजार मोहरें दें , तो क्या तब भी तुम उस रुपए को लेने जाओगे ? "

" हां महाराज ! उस रुपए को तो मैं अवश्य लेने जाऊंगा क्योंकि वह रुपया मैंने अपनी पत्नी पर ही खर्च करने का निर्णय लेकर छिपाया था

अब उसी रुपए से मैं उसे गेला घुमाऊंगा । "

" मगर जब हम तुम्हें उस रुपए से हजार गुना अधिक धन दे रहे हैं , तो तुम उस रुपए का लालच छोड़ क्यों नहीं देते ? "

" क्षमा करें महाराज – यदि मैं अधिक धन के लालच में उस रुपए का मोह छोड़ दूंगा ,

तो जीवन भर मेरी आत्मा पर एक बोझ सा बना रहेगा ।

" कहते हैं तीन हतें बहुत बुरी होती हैं— राजहठ , बालहठ और योगहट ।

जहां मासूम रामदीन अपनी हठ पर कायम था कि पत्नी को उसी रुपए से मेला दिखाऊंगा ,

वहीं महाराज के मन में भी हठ की भावना उत्पन्न हो गई कि चाहे जो भी हो ,

चाहे कितनी भी भारी कीमत क्यों न चुकानी पड़े , इस युवक को वह रुपया लेने नहीं जाने दूंगा ।

यह सोचकर वह बोले " देखो रामदीन यह हमारी हठ है कि हम तुम्हें वह रुपया लेने नहीं जाने देंगे ,

इसके बदले हमें भले ही कितनी भी भारी कीमत क्यों न चुकानी पड़े — उस रुपए के बदले ,

हम तुम्हें मुंहमांगी दौलत देने को तैयार हैं । " " अधिक धन - दौलत इन्सान की बुद्धि भ्रष्ट कर देती है महाराज !

में तो मेहनतकश इन्सान हूं , हम लोगों को तो पेट भरने लायक धन मिल जाए , है— आपकी भारी - से - भारी दौलत भी मुझे वह खुशी नहीं दे सकती ,

जो खुशी उस रुपए को पाकर मुझे हासिल होगी । "

वही बहुत

" हम तुम्हारे विचार जानकर बहुत खुश हुए रामदीन- तुम लालची नहीं हो तुम जैसे नौजवान जिस राज्य में हों वह राज्य अवश्य ही

उन्नति करता है हम खुश होकर तुम्हें अपने राज्य का आधा भाग इनाम में देते हैं— मगर शर्त हमारी वही है कि तुम वह रुपया लेने नहीं जाओगे । "

" ओह ! "

रामदीन समझ गया कि महाराज जिद पर अड़ गए हैं ।

यदि उसने उस रुपए को लाने की जिद न छोड़ी तो उसे इनाग के बदले दण्ड भी दिया जा सकता है ।

अतः अब तो बेहतरी इसी में है कि कोई ऐसी युक्ति लड़ानी चाहिए कि महाराज का कोप भाजन भी न बनना पड़े और वह रुपया भी मिल जाए ।

अतः वह बोला- " महाराज ! आपकी आना सिर माथे पर , किन्तु आप मुझे राज्य का वही हिस्सा दें जो मैं चाहता हूं । "

" शाबाश - यह हुई न कोई बात प्रजा को सदा अपने राजा की आज्ञा का पालन करना चाहिए ।

बोलो , तुम्हें हमारे राज्य का कौन - सा हिस्सा स्वीकार है- हम वचन देते हैं , तुम्हें वही हिस्सा दिया जाएगा । "

" मुझे उत्तरी हिस्सा चाहिए महाराज । "

" ओह ! रामदीन !! तुम सचमुच बहुत बुद्धिमान हो — अपने बुद्धिबल से तुमने हमारा आदेश मानकर हमें भी संतुष्ट कर दिया और

अपना वह रुपया भी प्राप्त कर लिया क्योंकि हमारे उत्तरी राज्य में ही वह पुराना महल है

जिसमें तुमने वह रुपया छिपाकर रखा है तुम बुद्धिमान ही नहीं , दृढ़ निश्चयी भी हो तुम जैसे युवक सदैव उन्नति करते हैं — हमें गर्व है कि तुम जैसा होनहार युवक हमारे राज्य में पैदा हुआ । "

और वह भाग्यशाली रुपया भी महाराज , जिसके कारण मैंने आपकी खुशी से

आपके राज्य का आधा हिस्सा भी पा लिया — अब आप ही बताएं कि मैं उस भाग्यशाली रुपए का मोह कैसे छोड़ सकता हूं ।

" महाराज रामदीन के दृढ़ निश्चय और बुद्धिमत्ता के समक्ष नतमस्तक हो गए ।

उसी दिन रामदीन को राज्य का आधा हिस्सा देकर वहां का राजा बना दिया गया ।

राजा बनते ही रामदीन ने सबसे पहले पुराने महल की दीवार से अपना वह रुपया प्राप्त किया और

उसे चूमकर माथे से लगाकर बोला- " तुम बहुत महान हो — तुम्हारे कारण ही मेरे नसीब जाग गए मित्र ।

यदि तुम मुझे न मिलते तो न सुन्दर और सुशील पत्नी मिलती और न यह राज्य । "