फितरत बदले ना

बहुत पुरानी बात है ।

किसी राज्य में धनकु नामक एक व्यक्ति था जो चोरी - चकारी | करके अपना पेट भरता था ।

इस जुर्म में वह कई बार पकड़ा जा चुका था ।

हर बार ऐसा ही होता कि वह पकड़ा जाता , न्यायालय से उसे दण्ड मिलता ।

हर बार जेल से बाहर आकर वह पुनः अपने पुराने धंधे में लग जाता ।

लोग उससे घृणा करते थे ।

संग - साथ बैठना तो दूर , लोग उससे बात करने में भी अपना अपमान महसूस करते थे ।

एक बार उस चोर के मन में आया कि क्यों न मैं यह जलालत भरा काम छोड़कर कोई ऐसा धंधा करूं जिससे पेट भी भरे और सम्मान भी हो ।

रोज - रोज की चोरी - चकारी , पुलिस का डर और लोगों की घृणा से तंग आकर वह किसी काम - धंधे की तलाश में निकल पड़ा ।

मगर यह क्या ?

वह जहां भी जाता , वहीं से दुत्कारकर भगा दिया जाता , क्योंकि नगर में कोई ऐसा नहीं था जो उसके चोरी के व्यसन से परिचित न हो ।

धनकु एक सेठ के पास पहुंचा और हाथ जोड़कर बोला – “ सेठ जी ! मैं धनकु हूं । "

" अरे वही धनकु " जी , सेठ जी । "

चोर ? "

" चल - चल , फूट यहां से- यहां क्या लेने आया है — उचक्का कहीं का । "

“ मेरी बात तो सुनिए सेठ जी । ”

गिड़गिड़ाकर धनकु बोला “ मैंने अब चोरी - चकारी का यह धंधा छोड़ दिया है — अब मैं भी शरीफ लोगों की तरह इज्जत की

जिंदगी बसर करना चाहता हूं — कृपा करके मुझे अपने यहां नौकर रख लीजिए मैं पूरी ईमानदारी से काम करूंगा और मेरी मेहनत के बदले में जो भी आप देंगे , खुशी से ले लूंगा । "

" अरे भाग यहां से मुझे मूर्ख समझता है क्या— चोर चोरी से जाए मगर हेराफेरी से न जाए – ना भई , नातू कोई और जगह देख ,

मेरे यहां कोई जगह नहीं है ।

” इसी प्रकार दुत्कारें खाते - खाते धनकु दुखी हो गया ।

चोरी न करने का वह

ले चुका था और कहीं इज्जत की कोई नौकरी उसे मिल नहीं रही थी ।

भूखा - प्यासा भटकता- भटकता वह एक आश्रम में आ पहुंचा , जहां बहुत से साधु सन्ध्या - भजन में लीन थे ।

भक्तजन आते , भगवान को प्रसाद चढ़ाते , चरण स्पर्श करते , फिर साधुओं से आशीर्वाद लेते और बदले में उन्हें अच्छे - अच्छे पकवान

और वस्त्रादि भेंट करते । यह सब देखकर धनकु सोचने लगा- ' मैंने तो अब तक का अपना सारा

जीवन व्यर्थ ही गंवा दिया— मुझसे तो अच्छे यह योगी और साधु हैं — खा - पीकर प्रभु के चरणों में मस्त रहते हैं — न किसी से दोस्ती ,

न बैर , न कल की परवाह संतोष हीं इनका धन है ।

धनकु के मन में आया कि क्यों न मैं भी बाकी जीवन साधु बनकर गुजारूं ।

न खाने - पहनने की चिन्ता रहेगी , न राजदण्ड का भय , सम्मान भी पूरा मिलेगा ।

यही सोचकर धनकु आश्रम में ही रहने लगा ।

वह दिन - रात साधु - सन्तों की सेवा करता और भजन - कीर्तन करते हुए अपना समय गुजारने लगा ।

अब उसने वस्त्र भी साधुओं जैसे ही धारण कर लिए थे ।

अब वह धनकु से धनकु महाराज हो गया ।

अब तो धनकु महाराज के दिन बड़े आराम और चैन से गुजरने लगे ।

साधु तो घुमक्कड़ प्रवृत्ति के होते हैं ।

एक दिन उन सभी साधुओं ने तीर्थ - यात्रा पर जाने का निर्णय लिया और आश्रम की देखभाल के लिए वहां धनकु महाराज को छोड़ दिया गया ।

धनकु तो वैसे भी भाग - दौड़ के पक्ष में नहीं था ।

उसने सोचा कि चलो अच्छा है ।

यहां बैठे - बैठे आराम से मालपुए उड़ाएंगे ।

उन्हीं दिनों उस गांव में चोरों - डकैतों का बोलबाला हो गया ।

रात की कौन कहे , दिन में भी चोर किसी - न - किसी घर पर हाथ साफ कर देते ।

इससे गांववाले दुखी हो उठे ।

गांव के मुखिया और जमींदार भी चोरों के इस भय से मुक्त नहीं थे ।

जमींदार तो कुछ अधिक ही चिंतित था क्योंकि उसके पास हजारों की नकदी के अलावा सोना - चांदी भी था ।

उसे सबसे अधिक अपने सोने - चांदी की ही चिन्ता थी ।

काफी सोच - विचार के बाद जमींदार के मन में आया कि भले ही पूरे नगर में चोरी - चकारियां होती रहें ,

मगर साधुओं के आश्रम में कभी चोरी नहीं हो सकती ।

साधु- महात्मा तो वैसे ही फक्कड़ होते हैं ।

उनके आश्रम में चोर भला क्या चुराने जाएगा !

यह ख्याल मन में आते ही जमींदार ने सोचा कि क्यों न मैं अपना सोना - चांदी साधु महाराज के पास रखवा दूं ।

वहां मेरा यह खजाना बिल्कुल सुरक्षित रहेगा ।

मगर तभी उसके मन में ख्याल आया कि कहीं ऐसा न हो कि यह साधु ही मेरा खजाना लेकर चम्पत हो जाए ।

' नहीं - नहीं – साधु - संन्यासियों के विषय में तो ऐसा सोचना भी पाप है ।

भा लोगों को धन - दौलत से क्या सरोकार - इनकी तो सबसे बड़ी दौलत राम नाम ही है ।

साधु - महात्मा तो भगवान के बन्दे होते हैं ।

' अब भला जमींदार को क्या मालूम था कि उसके साधु बने धनकु महाराज भी पहले चोर ही थे और पेट की आग बुझाने के लिए ही वह साधु बना है ।

लेकिन साधु - संन्यासियों के प्रति उसके मन में जो सत्य का विश्वास था , वह अटल था ।

अच्छी तरह सोच - समझकर एक दिन जमींदार ने अपना सारा सोना - चांदी एक घड़े में भरा और धनकु महाराज के आश्रम पर आ पहुंचा ।

सोने - चांदी का घड़ा एक ओर रखकर उसने श्रद्धा से धनकु महाराज के चरण स्पर्श किए ।

" सदा सुखी रहो भक्त ... प्रसन्न रहो । " धनकु महाराज ने उसे आशीर्वाद दिया " ईश्वर तुम्हें दीर्घायु दे ... सदा निर्भय रहो । "

" निर्भय कैसे रहूं महाराज ? "

" क्यों वत्स — क्या भय है ? " धनकु जानता था कि यह गांव का जमींदार है ।

यदि यह प्रसन्न हो गया तो यह आश्रम को न केवल पक्का बनवा देगा , बल्कि आराम से जिन्दगी गुजारने के लिए दूसरी सुविधाएं भी जुटा लेगा ।

अतः रोब गालिब करते हुए धनकु ने कहा — ' ' हमें बताओ मां भगवती की कृपा से हम तुम्हारा सारा भय दूर कर देंगे । "

" यही सोचकर तो मैं आपकी शरण में आया हूं महाराज । "

जमींदार बोला- " आप तो जानते ही हैं कि आजकल चोरों ने गांव - गांव में कैसा आतंक मचा रखा है- उनके इस

उपद्रव से ही मेरी रातों की नींद और दिन का चैन उड़ गया है ।

हर पल हर घड़ी मैं अपने इस ...। " जमींदार ने घड़े की ओर इशारा किया- " खजाने को लेकर चिंतित रहता हूं —

बड़ी मेहनत और ईमानदारी से मैंने यह दौलत जुटाई है — कभी किसी किसान

या मजदूर का दिल नहीं दुखाया अब आप ही सोचिए कि यदि चोरों ने मेरा

यह खजाना चुरा लिया तो में कहां का जमींदार रह जाऊंगा ! " " ठीक कहते हो वत्स — आजकल धन का भी अपना अलग ही महत्व है ।

" सोने - चांदी से भरा घड़ा देखकर धनकु की आंखों में एक अजीब सी चमक उभरे आई " खैर !

तुम यह बताओ कि यह घड़ा लेकर तुम मेरे पास क्यों आए हो ? "

" महाराज ! मैं चाहता हूं कि मेरा यह धन आप अपने आश्रम में रख लें आपके पास यह सुरक्षित रहेगा — आपके आश्रम से इसे कोई नहीं चुरा सकता । "

' ले बेटा घनकु ! तेरी तो किस्मत जाग गई— साधुओं के इस चोले का ही यह प्रताप है कि धन खुद चलकर तेरे पास आ रहा है । '

धनकु के भीतर छिपा बैठा चोर जाग उटा— ' अब तो तेरे पौ - बारह हैं इस धन को लेकर

किसी दूसरे राज्य में जाकर तू सेठों की तरह अपनी बाकी जिन्दगी गुजार सकता है ।

' धनकु की लार टपकने लगी ।

लेकिन क्योंकि वह इस समय साधु धनकु महाराज बना बैठा था ,

इसलिए साधुओं जैसा ही अभिनय करते हुए बोला " यह तुम क्या कह रहे हो वत्स !

धन दौलत से हम साधुओं को क्या लेना - देना- यह दौलत तो मन में पाप उत्पन्न करती है । "

" महाराज ! आप ठीक कहते हैं— भला साधु संन्यासियों को धन - दौलत से क्या वास्ता किन्तु महाराज !

संकट के समय अपने भक्तों की रक्षा करना आपका धर्म है— इस समय इस धन के कारण मैं संकट में हूं ,

अतः आपकी शरण में आया हूं जब तक इस धन की सुरक्षा का कोई दूसरा इन्तजाम नहीं हो जाता ,

तब तक आप इसे मेरी अमानत समझकर अपने पास रख लें , यही मेरी विनती है । "

" क्या तुम्हें मुझ पर इतना विश्वास है ? "

" अविश्वास का तो सवाल ही नहीं है प्रभु आप तो साक्षात् ईश्वर के अवतार धन - दौलत

के लालच में किसी भी संसारी का मन डोल सकता है , किन्तु आप

जैसे धर्मात्मा ... जिन्होंने अपना जीवन ही प्रभु को अर्पण कर दिया हो ,

उनके लिए तो यह धन - दौलत मिट्टी के समान है । "

हमारे लिए तो यह बाहर पीपल के नीचे

" तुम बहुत भोले हो भक्त । " धनकु ने कहा- " खैर ! यदि तुम्हें हम पर इतना विश्वास है तो

एक काम करो ... इस धन को हम हाथ नहीं लगाएंगे सचमुच मिट्टी के ही समान है ,

अतः तुम इसे ले जाकर कुटिया से गड्ढा खोदकर दबा दो वहां स्वयं ईश्वर इसकी रक्षा करेंगे । "

" ठीक है महाराज आपकी सदा जय हो । "

खुश होकर जमींदार बोला- " मैं आपका यह उपकार कदापि नहीं भूलूंगा महाराज । " " यह तो सब ठीक है वत्स !

किन्तु यदि चैन से जीना चाहते हो तो हमारा गुरु मंत्र याद रखो कि अपने गन में माया का मोह नहीं बल्कि आत्मसन्तोष

पैदा करो सन्तोषी प्राणी सदा सुखी रहता है और जो मनुष्य इस माया के पीछे दौड़ता है ,

वह सदा दुखी रहता है— उसके जीवन में सुख कम , दुख अधिक आते हैं — महात्मा कबीर जी ने सत्य ही कहा है-

' माया मरी न मन मरे , मर - मर गए शरीर । आशा तृष्णा न मरी , कह गए वास कबीर ।

" धन्य हैं ... आप धन्य हैं महाराज । " " इसलिए कहता हूं वत्स कि सन्तोष धन अर्जित करो । "

" मैं आपका यह मंत्र सदा याद रखूंगा गुरुदेव । "

" जाओ - अब इस धन को वहां गाड़ दो — जब इच्छा हो , आकर ले जाना । " " जो आज्ञा महाराज । "

जमींदार ने घड़ा उठाया और बाहर पीपल के वृक्ष के नीचे आकर आश्रम में ही पड़ी एक कुदाल से गड्ढा खोदने लगा ।

पाखंडी धनकु सब कुछ देख रहा था ।

उसके मन में लड्डू फूट रहे थे और दिल चाह रहा था कि वह जल्दी से जल्दी इस दौलत को लेकर वहां से चम्पत हो जाए ।

तभी उसकी आत्मा ने उसे झिंझोड़ा ' धनकु ! यह तू क्या सोच रहा है— क्या तू भूल गया कि अब तुझे सारी उम्र ईश्वर के चरणों में गुजारनी है—

साधु वेश धारण करके अब तो ऐसी बातें सोचना भी तेरे लिए पाप है '

अरे यह साधु वेश मैंने रोज - रोज जेल जाने और लोगों की घृणा से दुखी होकर , धारण किया था-- -कोई मेरी इज्जत ही नहीं करता था । '

' मगर अब तो सभी तुझे सम्मान और श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं- तू चैन से रहता है और सुख की रोटी खाता है —

अब क्यों तेरा मन डांवाडोल हो रहा है ।

' बिना धन जीवन व्यर्थ है - धन पास हो तो इज्जत भी मिलती है

और सुख की रोटी भी इतना अच्छा मौका मेरे हाथ लगा है , क्या में इसे व्यर्थ ही जाने दू '

मगर यदि तूने इस जमींदार की अमानत में खयानत की तो पूरा साधु - समाज ही

बदनाम हो जाएगा । '

' मुझे इससे क्या मेरी तो जिंदगी सुख और आराम से कटेगी- किसी दूसरे नगर में जाकर में सेठों की तरह रहूंगा

और चैन की बंसी बजाऊंगा ।

' धनकु की आत्मा ने उसे लाख ऊंच - नीच समझाई , मगर धनकु ने उसकी हर बात को अपने तर्क से काट दिया ।

अब वहां से वह धन लेकर चम्पत होने के लिए उसे उचित अवसर की तलाश थी ।

कुछ ही देर बाद जमींदार उसके पास वापस आकर बोला- " महाराज !

जैसा आपने कहा था , मैंने वैसे ही उस धन को गाड़ दिया है । "

" ठीक है वत्स अब तुम निश्चिन्त होकर अपने घर जाओ ।

" जमींदार खुशी - खुशी अपने घर को लौट गया ।

उसे पूरा विश्वास था कि अब उसका धन कोई नही चुरा सकता ।

स्वयं साधु महाराज उसकी रक्षा करेंगे ।

इसी प्रकार कई दिन गुजर गए ।

जमींदार ने जब से अपना धन वहां दवाया था , तब से उसका अधिकांश समय अब धनकु की कुटिया पर ही गुजरता ।

वह सुबह - शाम पकवानों से भरे थाल लाकर धनकु महाराज की सेवा में हाजिर करता और धनकु से ज्ञान - ध्यान की बातें करता ।

इस प्रकार धनकु को अभी तक कोई ऐसा अवसर नहीं मिला था कि वह उसका धन लेकर चम्पत हो सके ।

हां , सपने उसने बड़े - बड़े बुन लिए थे ।

शादी ... आलीशान मकान ... नन्हे - मुन्ने बच्चे ... सभी सपने धनकु ने बुन डाले थे ।

एक बार जमींदार बीमार पड़ गया ।

धन लेकर चम्पत होने का यह मौका धनकु को सबसे बेहतर लगा ।

उसी रात उसने पेड़ के नीचे खड्डा खोदकर वह सोने - चांदी से भरा घड़ा निकाल लिया ।

उसे अपने बाकी सामान के साथ बांधकर वह जगींदार को अपने जाने की सूचना देकर अपने धन को संभाल लेने के लिए कहने चल दिया ।

धनकु ! ' उसकी आत्मा ने पूछा — ' यदि तेरे जाने की बात सुनकर जमींदार तुरन्त ही अपना धन लेने आ पहुंचा तो क्या होगा ?

" ' होगा क्या — मैं कह दूंगा कि जहां तुमने धन को छिपाया होगा , वहीं होगा- हम साधुओं के

लिए तो वह धन मिट्टी था— हो सकता है किसी चोर ने चुरा लिया हो ।

" ' एक बार फिर सोच ले धनकु — यह सब तू गलत कर रहा है — बड़ी मुश्किल

तुझे यह सम्मान भरा जीवन मिला है कहीं ऐसा न हो कि इस धन के लालच में

तू यह सम्मान खो बैठे ' अब इतना धन पाने के लिए थोड़ा - बहुत तो खतरा उठाना ही पड़ेगा । '

धनकु को अपने घर आया देखकर जमींदार भौचक्का रह गया ।

" अरे ... महाराज आप ... आप प्रभु ! कोई कार्य था तो मुझे बुला लिया होता । "

" देखो भक्त ! अब हम यह आश्रम छोड़कर जा रहे हैं इसलिए हमारी इच्छा है ।

कि अब तुम अपनी अमानत संभाल लो । "

“ मगर महाराज ! यह अचानक यहां से चले जाने की आपको क्या सूझी और फिर यदि

आप चले गए तो आश्रम की देखभाल कौन करेगा ? "

" सबकी देखभाल करने वाला वह ऊपर वाला है वत्स और जहां तक हमारा सवाल है

तो तुम तो जानते ही हो कि साधु जल और वायु के समान होते हैं जो एक स्थान पर टिक नहीं सकते "

" आप बैठिए तो सही महाराज - कुछ जलपान आदि ... । '

" नहीं— अब हम नहीं रुक सकते हमें हिमालय की वादियां पुकार रही है । "

जमींदार दिल ही दिल में बहुत दुखी हुआ कि उसके धन की रक्षा करने वाला जा रहा है ।

एक बार उसे फिर धन की चिन्ता ने आ घेरा ।

बड़ी मुश्किल से स्वयं पर काबू पाकर वह साधु महाराज को बाहर तक छोड़ने आया ।

" महाराज ! " हवेली के द्वार पर आकर जमींदार बोला- " मैं एक बार फिर आपसे विनती करता हूं कि यह गांव और

आश्रम छोड़कर न जाएं आपके जाने से तो इस गांव की रौनक ही चली जाएगी । "

" चाहे कुछ भी हो वत्स हमने एक बार जो निर्णय कर लिया , कर लिया- अब तुम शीघ्र ही आश्रम में

आकर अपना धन संभाल लेना । ' ' " जो आज्ञा महाराज । "

जमींदार ने कहा और हाथ जोड़ दिए ।

धनकु सोच रहा था कि छोटी - मोटी चोरियां तो बहुत कर लीं- अब यह गोटा हाथ मारने का मौका मिला है ।

अचानक धनकु के मन में आया कि हो सकता है कि यह ( धन लेकर मैं जिस देश में जाऊं , कल को जमींदार भी कारोबार आदि

के सिलसिले में उसी देश में आ पहुंचे और मुझे चोर कहकर पकड़दा दे ।

अतः उसके मन में गहराई तक अपनी ईमानदारी की बात बैठा देनी चाहिए ।

यही सोचकर धनकु ने अपने बालों में एक बड़ा सा तिनका खोंस लिया और फिर वापस हवेली के अन्दर आ गया ।

जमींदार ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा ।

" क्या हुआ प्रभु ! वापस कैसे आ गए ? मुझसे कोई भूल ...। "

" नहीं ... नहीं वत्स ... भूल कोई नहीं हुई तुमसे । '

जमींदार की बात काटकर धनकु ने कहा- " दरअसल तुम्हारी हवेली का एक तिनका हमारे बालों में

फंसकर हमारे साथ जा रहा था अब तुम तो जानते ही हो वत्स कि हम किसी का तिनका तक स्वीकार नहीं करते हमें तो केवल सन्तोष चाहिए ।

बस , मैं तुम्हारा वही तिनका वापस करने आया था ।

" कहकर धनकु महाराज ने बालों में फंसा वह तिनका निकालकर जमींदार की और बढ़ा दिया और पुनः अपनी राह ली ।

“ वाह प्रभु , वाह— आप धन्य हैं — विश्वास नहीं होता कि ऐसे साधु भी इस संसार में हैं जिन्हें पराया तिनका तक स्वीकार नहीं ।

" जमींदार एक बार फिर धनकु महाराज से अत्यधिक प्रभावित दिखाई देने लगा ।

जमींदार के पास ही उनका एक मित्र बैठा था जो उनकी बीमारी के कारण उनका हालवाल जानने आया था ।

उसने यह सब ड्रामा देखा तो चक्कर में पड़ गया कि उसका मित्र किन साधु - संन्यासियों के चक्कर में फंसा हुआ है ।

जमींदार का वह व्यापारी मित्र बड़ा ही सूझबूझ वाला और जरा धाघ प्रवृत्ति का था ।

वह जमींदार की तरह सीधा नहीं बल्कि हर क्षेत्र में खेला - खाया इन्सान था ।

उसने दुनिया को हर कोण से देखा था ।

न जाने क्यों मनकु महाराज का तिनके वाला ड्रामा देखकर उसे उस पर कुछ सन्देह हो गया कि आखिर क्या कारण है कि

यह साधु अपने आपको इतना पाक - साफ और ईमानदार दर्शा रहा है ।

अतः अपने मित्र जमींदार से उसने पूछा - " यह राब क्या चक्कर है मित्र ? "

" रघुराज ! यह साधु बाबा बड़े विचित्र और यशस्वी हैं तुम तो जानते ही हो कि पिछले दिनों यहां चोरों का कितना आतंक था ।

इसी डर से मैंने अपना सारा सोना - चांदी- इन साधु महाराज की देख रेख में इनके आश्रम में दबा दिया ।

अब तक यही उसकी निगरानी भी कर रहे थे बहुत की भोले और नेक हैं यह साधु बाबा ।

अब यह यही कहने आए थे कि मैं अपना धन संभाल लूं — क्योंकि यह आश्रम छोड़कर तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं । "

" और यह तिनके वाला ड्रामा क्या था ? "

' अरे रघु ! तुम इसे ड्रामा कह रहे हो — अरे यह तो महाराज की ईमानदारी का छोटा सा प्रमाण था — देखा नहीं ,

उन्हें किसी के घर का तिनका तक लेना स्वीकार नहीं । "

एकाएक ही रघु के मन में न जाने क्या आया कि उसके हलक से कहकहा - सा फूट पड़ा ।

" अरे तुम हंस क्यों रहे हो – इसमें भला हंसी की क्या बात है ? ”

अचानक अपने मित्र को इस प्रकार हंसते देखकर जमींदार झुंझला उठा ।

" तुम बहुत भोले हो मित्र । "

" अरे इसमें भोलेपन और टेढ़ेपन की क्या बात है । "

" मित्र ! मुझे तो यह साधु कोई चालबाज पाखण्डी दिखाई देता है । "

" राम - राम - राम- क्या बेहूदी बातें कर रहे हो रघुराज — बोलने से पहले इन्सान को सोच लेना चाहिए

कि वह किसके बारे में और क्या कह रहा है । " " मैं जो कुछ भी कह रहा हूं ,

खूब सोच - समझकर ही कह रहा हूं मित्र ! तुम ढंगे जा रहे हो— यह साधु जो अपने - आपको इतना सीधा और उजला साबित कर रहा है ,

यह सच्चा साधु नहीं पाखण्डी है— धोखेबाज है— सच्चे साधु ऐसे नहीं होते कि हर समय और हर जगह

अपनी सच्चाई और ईमानदारी का ढोल पीटते रहें । "

" तुम्हें तो सारी दुनिया चोर - उचक्की ही नजर आती है । "

दृढ़ विश्वास के साथ जमींदार बोला— “ अपने शब्द वापस तो रघुराज , अन्यथा तुम पाप के भागी बनोगे — महाराज बहुत पहुंचे हुए सिद्ध हैं

किसी पुण्यात्मा के विषय में ऐसा उल्टा - पुल्टा नहीं बोलना चाहिए । "

“ मेरा अच्छा हो या बुरा — मगर आज मैं तुम्हें इस साधु की असलियत बताकर ही रहूंगा बोलो , कहां है तुम्हारा खजाना ? "

" बाबा के आश्रम में - पेड के नीचे । "

" मगर अब वह तुम्हें वहां नहीं मिलेगा । " " भला क्यों ? "

" क्योंकि इस साधु के मन में पाप है और इसने उसे कहीं ठिकाने लगा दिया है

इसीलिए यह यहां इतना ड्रामा कर रहा था— अगर यह सच्चा होता तो . पहले गड्डा खुदवाकर तुम्हारा खजाना निकलवाकर

तुम्हारे हवाले करता और फिर अपने जाने की बात कहता - अगर अपने खजाने को बचाना चाहते हो तो तुरन्त मेरे साथ चलो । "

" मगर ...। "

" अगर - मगर कुछ नहीं मित्र । " व्यापारी मित्र जमींदार का हाथ पकड़कर द्वार की ओर खींचते हुए बोला- "

यदि अधिक देर हो गई तो हाथ मलते रह जाओगे । " " मगर ...। "

जमींदार ने कुछ कहना चाहा , मगर व्यापारी मित्र ने उसकी एक न सुनी । कुछ ही देर में वह आश्रम में आ पहुंचे ।

आश्रम बिल्कुल खाली पड़ा था ।

खाली झोंपड़ी , पेड़ - पौधे , धूनी की राख और सिवाय लोहे लंगर के वहां कुछ भी नहीं था ।

" अरे साधु बाबा कहां गए । "

" साधु नहीं - पाखंडी बाबा लगता है ,

वह तेरी खून पसीने की कमाई लेकर चम्पत

हो गया है । "

" अरे नहीं ... नहीं - यदि ऐसा हुआ तो मैं तो बर्बाद हो जाऊंगा । "

" पहले यह बता कि तूने धन से भरा वह घड़ा कहां दबाया था ? "

" इस पीपल के नीचे । "

" फौरन इस जगह को खोद मुझे तो विश्वास है कि अब तेरा धन वहां नहीं होगा , मगर फिर भी तू अपनी तसल्ली कर ले । "

यह सुनते ही जमींदार को पसीने आ गए ।

साधु की अनुपस्थिति देखकर उसे अहसास हो रहा था कि अवश्य ही कोई गड़बड़ है ।

कहीं ऐसा न हो कि उसके मित्र की बात सही हो ।

यही सोचकर उसने जल्दी से एक कोने में पड़ी कुदाल उठाई और जल्दी - जल्दी उस स्थान को खोदने लगा जहां उसने अपना घड़ा दबाया था ।

वहां की मिट्टी पोली थी ।

लगता था कि कुछ समय पूर्व ही किसी ने खड्डा खोदकर उसे दोबारा भरा है ।

देखते - ही - देखते गहरा खड़ा हो गया ।

मगर वहां तो घड़े का नामोनिशान भी नहीं था— तभी उसकी कुदाल में एक माला उलझ गई ।

जमींदार ने उसे उठाकर देखा और बोला- “ अरे ! यह तो साधु महाराज की माला यह यहां कहां से आई — घड़ा तो मैंने अकेले ही दबाया था । "

-

“ घड़ा निकालते वक्त ही उस पाखंडी की यह माला यहां गिरी होगी — मगर धन के लोभ में उसने इसकी तरफ ध्यान नहीं दिया । ”

“ हाय । ” जमींदार ने अपना सिर पकड़ लिया " मैं बर्बाद हो गया मित्र मैं लुट गया— मेरी जीवन भर को पूंजी । "

को

" इस तरह हाय - हाय करने से कुछ नहीं होगा — हमें फौरन चलकर उस साधु पकड़ना होगा — मेरा ख्याल है कि वह अभी अधिक दूर नहीं गया होगा – चलो । "

जमींदार का तो बुरा हाल हो रहा था ।

हाथ - पांव कांपने लगे । शरीर पसीने से तर हो गया ।

इतना बड़ा धोखा ! इतना बड़ा विश्वासघात ! साधु के वेश में शैतान !

" इस प्रकार हिम्मत मत हारो मित्र — यदि हिम्मत हार बैठोगे तो कुछ हाथ नहीं आने वाला- चलो मेरे साथ । "

और फिर दोनों तेजी से जंगल की ओर भाग लिए ।

आश्रम में आने के दो रास्ते थे ।

एक तो वही था जिस पर चलकर वे दोनों यहां आए थे ।

एक रास्ता जंगल की ओर

जाता था ।

दोनों जंगल वाले रास्ते पर ही भागे जा रहे थे , क्योंकि जमींदार के मित्र को पक्का विश्वास था कि कोई चोर ; चोर रास्ते से ही भागेगा ।

भागते - भागते दोनों की सांसें फूल गई ।

शरीर पसीने से तर - बतर हो गए , लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी ।

भागते - भागते जब वे काफी दूर निकल आए तो उन्हें दूर पगडंडी पर एक साया दिखाई दिया ।

" देखो । "

चीखकर जमींदार का मित्र बोला- " वह भागा जा रहा है तुम्हारा साधु बाबा पाखंडी " धनकु के कानों में यह आवाज पड़ी तो तेजी से पलटकर उसने देखा ।

जमींदार और उसके मित्र को अपने पीछे आते देखकर उसका खून सूख गया ।

एक तो उसके सामान का बोझ , दूसरे घड़े भर सोने - चांदी का बोझ उससे उठाए नहीं उठ रहा था ।

जैसे - तैसे वह वहां से निकल भागना चाहता था , लेकिन जमींदार और उसके मित्र को अपने पीछे आते देखकर उसकी सारी योजना मिट्टी में मिल गई थी ।

उसने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि उसके पाप का घड़ा इतनी जल्दी फूटेगा ।

' धनकु ! ' उसकी आत्मा ने कहा- ' तेरी पोल खुल चुकी है— अब अगर जान बचाना चाहता है

तो इस पड़े को यहीं फेंककर भाग ले वरना जमींदार और उसका मित्र मार - मारकर तेरी खाल उधेड़ देंगे - अगर जान सलामत रही तो धन तो फिर भी कमाया जा सकता है ।

' हैं । " ' नहीं नहीं - मैं इतना सारा धन ऐसे ही छोड़कर नहीं जाऊंगा — अभी वे बहुत दूर लालची धनकु ने धन का

लालच नहीं छोड़ा और घड़ा बगल में दबाए , पहले से भी अधिक तेज दौड़ने लगा ।

लेकिन कब तक भागता ?

आखिरकार जमींदार और उसके मित्र ने उसे दबोच ही लिया ।

" पाखंडी— चोर साधु के वेश में शैतान मेरे दोस्त की जीवनभर की कमाई लेकर भाग रहा था— अभी मजा चखाता हूं । "

जमींदार के मित्र ने एक हाथ से उसके सिर के बाल पकड़े और दूसरे हाथ से रुई की तरह उसे धुनता चला गया ।

घड़ा एक तरफ फेंककर धनकु भी उससे भिड़ गया ।

मगर कब तक लड़ता ? वे दो थे और वह अकेला ।

दोनों ने मार - मारकर उसे अधमरा कर दिया ।

" पापी दुष्ट ! मैंने तुझे देवतातुल्य समझा तेरी पूजा की — उसका तूने मुझे यह पुरस्कार दिया - नीच !

तूने सारे साधु समाज को बदनाम कर दिया । "

" म ...

.. मुझे माफ कर दो जमींदार मेरे मन में लालच आ गया था मैं ईश्वर की सौगन्ध खाकर कहता हूं

कि फिर कभी ऐसा नहीं करूंगा । " धनकु गिड़गिड़ा उठा - " इस धन ने मेरी बुद्धि भ्रष्ट कर दी थी । "

“ जेल की चक्की पीसेगा तो तेरी बुद्धि सीधे रास्ते पर आ जाएगी । मित्र ! " बोला- " तुम तुरन्त इसे ले जाकर सिपाहियों के हवाले कर दो । "

रघुराज

जेल का नाम सुनकर धनकु की रूह कांप गई ।

उसकी आत्मा ने तेज किस्म की सरगोशी करते हुए कहा — ‘ धनकु ! अब तक तो छोटी - मोटी चोरियां करने के जुर्म में

तू जेल जाकर छूटता भी रहा है , मगर अब यदि जमींदार ने तुझे कानून के हवाले किया तो

तू जिन्दगीभर जेल में सड़ता रहेगा — अगर इस नर्क से बचना चाहता है तो भाग ले ... ।

' और यह ख्याल मन में आते ही धनकु ने एक झटके से स्वयं को उनकी पकड़ छुड़ाया और

उस भयानक जंगल की कांटेदार झाड़ियों में जा घुसा ।

से

जमींदार और उसके मित्र ने उसे पकड़ने की कोई चेष्टा नहीं की ।

जमींदार खुश था कि उसके जीवनभर की कमाई लुटते - लुटते बची थी और रघुराज यह सोचकर प्रसन्न . था कि उसकी सूझबूझ से उसके मित्र का धन बच गया था ।

रघुराज ! ” एकाएक ही जमींदार बोला - " मैरी तुमसे एक विनती है मित्र । ” " क्या ? "

" सभी

साधु चोर - पाखंडी नहीं होते , अतः तुम इस घटना का जिक्र किसी से न करना — वरना लोग साधु - संन्यासियों पर विश्वास करना छोड़ देंगे । ”

" तुम ठीक कहते हो मित्र ।

इस पाखंडी के कारण पूरा साधु समाज बदनाम नहीं होना चाहिए ।

" और फिर दोनों मित्र गांव की ओर चल दिए ।