अतिथि सत्कार का फल

माधोपुर में भोलाराम नामक एककिसान मजदूर रहता था ।

वह गरीब था , लेकिन छल - कपट से कोसों दूर ईमानदारी , परिश्रम की भावना उसमें कूट - कूटकर भरी थी ।

हर रोज वह घर से निकलता और जो भी काम मिलता , उसे मेहनत से करके जो भी मजदूरी मिलती , उसे लाकर अपनी पत्नी के हाथ पर रख देता ।

उसकी इतनी कमाई तो थी नहीं कि दान - पुण्य आदि कर सके , इसी कारण लोग उसे कंजूस , मूंजी और स्वार्थी कहा करते थे , लेकिन भोलाराम कभी किसी की बात का बुरा मानकर उससे झगड़ा नहीं करता था । एक सुबह जैसे ही वह घर से काम की तलाश में निकला तो देखा कि गांव की चौपाल पर मुखिया जी और अन्य कई ग्रामवासी बैठे किसी गम्भीर वार्तालाप में लीन हैं । कुछ लोग चौपाल के साथ ही लगे एक बड़े मैदान की सफाई आदि में लगे हुए

थे ।

यह सब देखकर भोला को बहुत आश्चर्य हुआ । वह सोचने लगा ' अवश्य ही कोई खास बात है जो सारा गांव यहां जमा है— चलकर मुखिया जी से मालूम करना चाहिए । ' यही सोचकर भोला मुखिया जी की और बढ़ गया ।

" राम - राम मुखिया जी । "

" आओ आओ भोला , राम - राम । " मुखिया जी ने कहा और फिर अपने काम में लग गए— “ हां तो चमनलाल ! तुम्हारे नाम में बीस आदमी लिखूं ना ? ” " हां मुखिया जी । " " मेरे नाम में इक्यावन आदमी लिखिए मुखिया जी । " एक अन्य व्यक्ति बोला । ' हे प्रभु यह सब क्या हो रहा है — यह लिखा - पढ़ी किस बात की हो रही है ! ' भोला सोचने लगा । उधर , मुखिया जी अपने कार्य में व्यस्त थे— " भई सीताराम । पंडाल का काम तो तुम्हारे जिम्मे है ना ? "

" हां मुखिया जी । "

" और भई रामप्रसाद ! तुम क्या चाहते हो ? "

" मुखिया जी ! मैं तो दस - बारह सन्तों का ही भार सहन कर पाऊंगा । " " ठीक है में तुम्हारे नाम में दस सन्त लिख देता हूं । " भोला की उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी । अतः मौका देखकर उसने मुखिया से पूछ ही लिया " मुखिया जी ! यह कैसी लिखा - पढ़ी हो रही है ? "

जी

" अरे भोला , तुम्हें नहीं मालूम , रात हमने गांव में ढिंढोरा पिटवाया था । " - " मुझे तो सचमुच कुछ " कैसा ढिढोरा मुखिया जी । " भोला उलझन में पड़ गया - "

नहीं मालूम ।

" देखो भाई — हमारे गांव में एक पहुंचे हुए सिद्ध महात्मा अपने एक हजार चेलों के साथ आ रहे हैं

अपनी तीर्थयात्रा के चलते वे सब एक दिन हमारे गांव में भी रुकेंगे उन्हीं के आदर - सत्कार के लिए यह सब हो रहा है ।

पूरे गांववासियों पर हमने उनके ठहरने की व्यवस्था और खानपान का जिम्मा डाला है जिसकी जितनी श्रद्धा है ,

वह उतने ही सन्तों को भोजन कराने के लिए नाम लिखवा रहा है । ”

" यह तो हमारे गांव का सौभाग्य है मुखिया जी कि कोई सिद्ध महात्मा हमारे गांव में पधार रहे हैं । "

" अब तुम बताओ कि तुम्हारे नाम में कितने सन्तों का भोजन लिख दूँ ? "

मुखिया जी ने मुख्य विषय पर आते हुए कहा- " रामलाल ने इकतीस सन्तों को भोजन कराना स्वीकार किया ,

चमन लाल ने बीस , सीताराम ने तो पूरे पंडाल की व्यवस्था की जिम्मेदारी ही

अपने ऊपर ओट ली है — तुम बताओ कि तुम कितने सन्तों को भोजन कराओगे ?

” यह सुनकर भोला उदास हो गया ।

हाथ जोड़कर वह बोला- " मुखिया जी मन तो मेरा भी बहुत करता है कि ऐसे दान - पुण्य के कामों में हिस्सा लूं— मगर मुखिया जी ,

आप तो जानते ही हैं कि मैं कितना गरीब हूं— मेरी तो जमीन भी पिछले कई सालों से साहूकार के पास गिरवी रखी है और आजकल तो

अपने बच्चों का पेट भी मैं सही ढंग से नहीं भर पा रहा हूं ।

" भोला की बातें सुनकर मुखिया के चेहरे पर नागवारी के चिह्न उभर आए ।

वह बोला — ' ' भोला ! क्या तुम जानना चाहते हो कि

तुम गरीब क्यों हो क्या तुमने कभी सोचा है कि दिन - रात मेहनत करने के बाद भी न तुम दो पैसे बचा पाते हो और न ढंग से खा - पी सकते हो ? "

" सोचना क्या है मुखिया जी — यह तो सब गैरी बदनसीबी है जो रात दिन मेहनत करने के बावजूद भी न अच्छा खा सकता हूँ ,

न पहन ओढ़ सकता हूं । " रुआंसा - सा होकर भोला बोला – “ मुझे तो इस गरीबी ने जकड़ा हुआ है मुखिया जी । " ' यह बदनसीबी नहीं है भोला— सच बात तो यह है कि स्वार्थी इंसान कभी सुखी नहीं रह सकता- मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि तुम स्वार्थी हो । "

" स् ... स्वार्थी और मैं ? " भोला कांप उठा यह सोचकर कि मुखिया जी उसे कितना घटिया समझते हैं "

यह ... यह आप क्या कह रहे हैं मुखिया जी स्वार्थी इंसान तो वह होता है जो अपने भले के लिए

किसी का बुरा करे — मैंने तो आज तक किसी का भी बुरा नहीं किया । "

" किसी का बुरा करके अपना भला करने वाला ही स्वार्थी नहीं होता भोला , स्वार्थी वह भी होता है

जो केवल अपने ही विषय में सोचता है — तुम हमेशा अपने विषय में या

अपने परिवार के विषय में ही सोचते हो— दान - पुण्य या परहित का तो ख्याल भी कभी तुम्हारे मन में नहीं आता - तुम्हारी बला से गांव में कोई मरे या जिए । "

भोला को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसे भरे बाजार में नंगा कर दिया हो ।

वहां गांव के दूसरे लोग भी खड़े थे ।

सभी भोला को अजीब सी नजरों से देख रहे थे ।

अपमानित - सा होकर भोला बोला " आप ठीक कहते हैं मुखिया जी - सचमुच ही मैं अपने और

अपने परिवार के अलावा किसी के विषय में कभी नहीं सोचता - शायद यही कारण है कि ईश्वर ने मुझे

दुखी रखा हुआ है— मैं ... मैं आज से ही अपनी इस भूल को सुधारता हूं मुखिया जी — अधिक तो मैं नहीं कर पाऊंगा ,

किन्तु एक सन्त का खाना आप मेरे नाम में अवश्य लिख लें- भले ही मुझे खुद भूखा रहना पड़े , लेकिन अतिथि का सत्कार अवश्य करूंगा । "

" अरे ... अरे साहूकार जी आ गए - साहूकार जी आ गए— हटो हटो । "

तभी वहां हलचल सी मच गई ।

भीड़ ने भोला को एक ओर धकेल दिया ।

मुखिया जी भी साहूकार के सत्कार के

लिए उठ खड़े हुए । " आइए आइए सेठ जी । "

" मुखिया जी आपने सन्तों को घर - घर क्यों बांट दिया ?

इतने सन्त महात्माओं को तो सेठ बद्रीप्रसाद अकेले ही भोज

नहीं होगी न - कल रात पंचायत ने यही निर्णय लिया है कि थोड़ा - थोड़ा पुण्य सभी गांव वाले कमाएं । "

“ भई मुखिया जी , अगर पंचायत का यही फैसला है तो हमें भी पंचायत का फैसला मानना पड़ेगा — मगर अब आप ऐसा करें

कि अब जितने भी संत बा

की बचे हैं , उन सबका भोजन आप हमारे नाम लिख दें । "

" ठीक है सेठ जी । "

मुखिया को सेट बद्रीप्रसाद की बात स्वीकार करनी ही पड़ी ।

भोला एक तरफ अकेला खड़ा था ।

अब किसी का भी ध्यान उसकी ओर नहीं था ।

इस भीड़ में न जाने क्यों वह अपने - आपको अपमानित सा महसूस कर रहा था ।

' सब जगह पैसे वालों की ही पूछ है । '

वह सोचने लगा- ' काश ! मैं भी अमीर होता- खैर ! ईश्वर के घर देर है , अंधेर नहीं - मैं अभी जाकर अपनी पत्नी को सारी बात बताता हूं

ताकि वह कल एक सन्त का भोजन बनाने की व्यवस्था करे - सन्त की सेवा में कोई कमी नहीं आनी चाहिए ,

इसके लिए भले ही मुझे कितनी भी मेहनत क्यों न करनी पड़े ।

' यही सब सोचता भोलाराम अपने घर की ओर चल दिया ।

उसकी पत्नी घर के आंगन में बैठी एक पुराना सा वस्त्र सी रही थी ।

भोला को वापस आया देखकर वह चौंक पड़ी और बोली- " क्यों जी , आज आप वापस कैसे आ गए

काम पर नहीं गए क्या या कोई काम - धंधा मिला ही नहीं ? "

“ नहीं - नहीं भागवान , भगवान न करे कि आज मुझे कोई काम - धंधा न मिले अभी तो मैं कोई काम ढूंढ़ने गया ही नहीं । "

उसकी पत्नी लक्ष्मी की आंखों में हैरानी के भाव बढ़ते ही जा रहे थे— “ क्यों जी , क्या आज काम - धंधे पर जाने का मन नहीं है — अगर ऐसा है तो आज रात हम लोग खाएंगे क्या ?

घर में तो अन्न का एक दाना भी नहीं है । "

" भगवान पर भरोसा रख भागवान , सब ठीक कि कल गांव में कोई मुनादी हुई थी क्या ? "

जाएगा पहले तू मुझे यह बता

" हां जी— मुनादीवाला कह रहा था कि गांव में कुछ सन्त आने वाले हैं ,

उनकी खातिर के लिए पूरे गांव को आगे आना होगा- आज सुबह सभी मर्दों को मुखिया ने चौपाल पर बुलाया है । "

" मगर तूने मुझे तो बताया ही नहीं । "

आपको बताकर क्या करती जी इतना तो कमा नहीं पाते कि घर का ही

गुजारा हो सके फिर यह दान - पुण्य कैसे होगा ।

" पगली , हम इसीलिए दुखी रहते हैं कि सदा अपना ही अपना सोचते हैं- इंसान के मन में अगर

दान - पुण्य की भावना हो तो ऊपर वाला खुद ही कोई - न - कोई रास्ता निकाल देता है ।

देख , स्वामी जी के साथ गांव में हजार सन्त आ रहे हैं ।

गांव में जिसकी जितनी श्रद्धा है , वह उतने ही सन्तों को भोजन कराएगा- किसी ने दस सन्त लिखवाए हैं ,

किसी ने बीस — मैं भी एक सन्त अपने जिम्मे ओर आया हूं — आज मैं जी तोड़ मेहनत करूंगा और हम सन्त जी के भोजन की व्यवस्था करेंगे ।

खुद भूखे रह लेंगे , मगर अतिथि को भूखा नहीं रखेंगे ।

" " ठीक है जी— अगर आपकी यही इच्छा है तो ऐसा ही सही - अब आप अकेले मजूदरी पर नहीं जाएंगे ,

मैं भी आपके साथ चलूंगी- -हम मेहमान की सेवा में कोई कोर - कसर नहीं उठाएंगे । "

" मुझे तुझसे ऐसी ही उम्मीद थी भागवान ।

" खुश होकर भोला बोला – “ भगवान हमारी इज्जत रखेंगे । "

भोला न जाने क्यों अब अपने - आपको काफी हल्का महसूस कर रहा था ।

उसे ऐसा लग रहा था मानो एक नई शक्ति उसमें भर गई हो ।

एक नई उमंग , एक नया उत्साह और ढेर सारा आत्मविश्वास उसमें भर गया था ।

और फिर कुछ ही देर बाद दोनों पति - पत्नी घर से निकल पड़े ।

मन - ही - मन भगवान से प्रार्थना करते हुए वे दोनों कह रहे थे कि हे प्रभु !

आज हमें कोई अच्छी सी मजदूरी दिलाना , ताकि अपने घर आने वाले सन्त का यथासम्भव सत्कार कर

सकें और गांववालों के सामने हमारी इज्जत बनी रहे ।

इन्सान चाहे गरीब हो या अमीर उसे अपनी इज्जत का बहुत ख्याल होता है ।

अपने ही विचारों में खोए वे दोनों चले जा रहे थे कि गांव के महाजन की आवाज उनके कानों में पड़ी- " अरे भोला ! रुकना तो । "

भोला और उसकी पत्नी ठिठक गए ।

कुछ ही पलों बाद महाजन घर के द्वार पर प्रकट हुआ और बोला- “ अरे भोला ।

कहां जा रहे हो भई ? " " काम की तलाश में जा रहा हूं साहूकार जी । " "

अरे भई , बहुत दिन हो गए , ' तुमने हमारा कर्ज नहीं चुकाया अब तो तुम्हारी जमीन से इतना भी अनाज

नहीं मिलता कि ब्याज की रकम ही पूरी हो सके । " ' झूठा कहीं का — जक खेतों के साथ - साथ बैल भी हथिया लिए ,

तब भी इसका पेट नहीं भरा है । ' मन - ही - मन भोला ने कहा — मगर प्रत्यक्ष में बोला- " सेठ जी ! आप

चिन्ता न करें । ईश्वर ने चाहा तो मैं शीघ्र ही आपकी पाई - पाई चुका दूंगा - क्या आपने यह कहने के लिए ही मुझे रोका था ? " " अरे नहीं भई । " खीसें निपोरते हुए साहूकार बोला- " तुम्हें तो मैंने इसलिए रोका है कि कल मेरे घर कुछ मेहमान आ रहे हैं और घर में ईंधन नहीं है - यदि तुम लकड़ियां काट दो तो मैं तुम्हें मुंहमांगी मजदूरी दूंगा । "

" क्या लकड़ियां जंगल से लानी होंगी ? "

" नहीं लकड़ियों के गुट्टे हैं उन्हें काटकर जलाने लायक छोटा करना है — बोलो , करोगे यह काम ? "

" जरूर करूंगा महाजन जी आप क्यों चिन्ता करते हैं । "

" लेकिन सारी की सारी लकड़ियां आज शाम तक कट जानी चाहिए । "

" कट जाएंगी साहूकारणी अवश्य कट जाएंगी । " भोला ने कहा और यह सोचकर मन ही मन खुश हो उठा कि चलो गांव के गांव में ही काम मिल गया ।

अब गांव - गांव भटकना भी नहीं पड़ेगा ।

कुछ भी हो , महाजन कंजूस नहीं है ।

मजदूरी भी अच्छी देगा ।

इन पैसों से में सन्त जी

का अच्छा आदर - सत्कार कर सकूंगा ।

" ठीक है भोला- तुम मकान के पिछवाड़े आ जाओ और लकड़ियां देख लो । "

भोला ने मकान के पिछवाड़े जाकर देखा , लकड़ियों का एक बड़ा ढेर उसके सामने लगा हुआ था ।

" साहूकार जी ! क्या यह सभी लकड़ियां काटनी हैं ? "

" हां भोला । "

भोला मन - ही - मन सोचने लगा - यह तो बहुत सारी लकड़ियां हैं – जी तोड़ मेहनत के बावजूद भी वह उन्हें शायद ही शाम तक काट पाए ।

मगर मजबूरी थी । शाम तक उसे वह लकड़ियां काटनी ही थीं , क्योंकि कल घर पर अतिथि सत्कार करना था और घर में

ने

अन्न का एक दाना भी नहीं था ।

खैर ! भगवान का नाम लेकर भोला कुल्हाड़ी उठा ली ।

अपनी पत्नी को उसने वापस घर भेज दिया , क्योंकि जो काम उसे मिला था ,

उसमें उसकी पत्नी कोई हाथ नहीं बंटा सकती थी ।

भोला ने लकड़ी काटनी शुरू की तो फिर शाम तक काटता ही चला गया ।

शाम होते - होते लकड़ियों का ढेर लग गया , मगर लकड़ियां अभी भी बाकी थीं ।

इतने कठोर परिश्रम से भोला की बुरी हालत हो गई थी ।

शरीर पसीने से तर - बतर हो गया था ।

उसकी नस - नस दुखने लगी थी ।

ऐसा लगता था जैसे उसके शरीर में जान ही न बची हो ।

उसका दिल चाह रहा था कि कुल्हाड़ी एक ओर फेंककर लकड़ियों पर ही लेट जाए ।

. मगर चाहकर भी वह ऐसा नहीं कर सका , क्योंकि उसे मालूम था कि जब तक सारी

लकड़ियां नहीं कट जाएंगी , तब तक साहूकार मजदूरी नहीं देगा ।

उसके हाथ लहूलुहान हो गए थे ।

लेकिन उसने इसकी तनिक भी परवाह नहीं की ।

उसे तो अब बस एक ही धुन सवार थी कि कैसे भी हो , कल सन्त जी की खातिर करनी है और यही सेवाभाव उसमें एक नया जोश उत्पन्न कर रहा था ।

लकड़ियां काटते - काटते अंधेरा घिर आया मगर भोला जी - जान से लकड़ियां काटने में व्यस्त था ।

एक ओर खड़ा साहूकार प्रशंसाभरी नजरों से उसे देख रहा था ।

अन्त में भोला ने सभी लकड़ियां काट डालीं ।

एक नजर उसने साहूकार पर डाली , फिर कुल्हाड़ी एक ओर फेंककर लकड़ियों पर ढेर हो गया ।

अब उसके शरीर में इतनी जान भी नहीं बची थी कि वह अपने पैरों पर खड़ा हो पाता ।

" हे भगवान ... शक्ति दो ...। "

उसके मुंह से यह शब्द निकले और फिर देखते ही देखते वह बेहोश हो गया ।

साहूकार के मन में उसके प्रति दया के भाव उभर आए ।

उसने उसके चेहरे पर ठंडा पानी डाला तो कुछ ही देर बाद भोला को होश आ गया ।

" भोला ! तुम सचमुच बहुत मेहनती हो तुमने पांच आदमियों का काम अकेले ही

कर दिखाया ।

मैं तुमसे बहुत खुश हूं और मजदूरी भी मैं तुम्हें पांच आदमियों ही दूंगा , ताकि कल तुम अपने

अतिथि का उचित आदर - सत्कार कर सको । " कहकर साहूकार मकान के भीतर चला गया ।

कुछ देर बाद जब वह लौटा तो उसके साथ दो नौकर भी थे ।

एक के हाथों में चावलों का भरा टोकरा था और दूसरे ने फल व सब्जियों से भरा टोकरा उठा रखा था ।

" लो भोला — यह सब तुम्हारा है । "

इतना सब देखकर भोला की आंखें अचम्भे से फैल गई " यह ... यह सब ... ! " " यह सब तुम्हारे

परिश्रम का फल है— दरअसल मेरी और मेरी पत्नी के बीच शर्त तय हुई थी — उसका कहना था

कि कोई भी मजदूर दिन - भर में यह सारी लकड़ियां नहीं काट सकता , मैंने कहा था कि जरूरत बावली होती है ,

जिसे धन की जरूरत होगी , वह इतनी तो क्या , इससे दुगनी लकड़ियां भी काटेगा - तभी मेरी नजर तुम पर पड़ी तो मैंने

सोचा कि क्यों न यह काम तुमसे ही करवाया जाए ।

कल सन्तों को भोजन कराने के लिए तुम्हें भी तो धन की आवश्यकता होगी - इस प्रकार तुम्हारे कारण मैं यह शर्त जीत गया

और इस जीत की खुशी में ही मैं तुम्हें यह सब दे रहा हूं — जैसे तुमने मेरा मान रखा है ,

वैसे ही तुम्हारे मान की रक्षा करना मेरा कर्तव्य है भोला इसे स्वीकार करो " " यह ... यह तो सच है साहूकार जी कि

कल मुझे अतिथि सत्कार करना है और मैं घर से यही सोचकर चला था कि जी - तोड़ मेहनत करके अधिक - से - अधिक धन कमाऊंगा और जी - तोड़ मेहनत मैंने की भी है मगर ... मगर यह तो उससे भी अधिक है । "

" कुछ भी अधिक नहीं है भोला — समझ लो कि यह सब उस अतिथि के नसीब का है

जो कल तुम्हारे घर आने वाला है । " " ओह ... ओह ! " भोला के मुंह से इतना ही निकला ।

और फिर दोनों टोकरे संभाले जैसे - तैसे वह अपने घर की ओर चल दिया ।

मन - ही - मन में वह कहे जा रहा था ' वाह प्रभु ! तुम्हारा भी जवाब नहीं एक ही दिन में तूने मुझे पूरे महीने का राशन पानी दिलवा दिया मुखिया जी ने सच ही कहा था

कि जिनके दिल में परहित की भावना आ जाती है , उनके भंडारे तू खुद ही भर देता है तुम धन्य हो प्रभु — तुम धन्य हो ।

' चावल , फल और सब्जियों से भरे टोकरे लेकर जब भोला घर पहुंचा तो उसकी पत्नी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा ।

" यह क्या जी- आज तो आप सारा बाजार ही खरीद लाए । "

" अरी भागवान ! यह सब में खरीदकर नहीं लाया । "

" फि ? "

“ यह सब तो साहूकार जी ने मेरी आज की मजदूरी के बदले में दिया है- लक्ष्मी मुझे तो लगता है

कि ईश्वर हम पर मेहरबान हो गए हैं और यह सब उन्हीं सन्त जी चमत्कार का नतीजा है

जो कल हमारे घर आने वाले हैं — जिसके मन में परसेवा का भाव आ जाता है , ईश्वर उसका घर इसी प्रकार भर देते हैं । "

आप ठीक कहते हैं स्वामी- सचमुच दान - पुण्य से घर में खुशहाली आती है अभी तो हमने एक तिनका भी दान नहीं दिया ,

तब यह हाल है तो जरा सोचिए कि दान - पुण्य करके हम कितने खुशहाल हो सकते हैं कल से मैं

दरवाजे पर से किसी साधु - सन्त को खाली हाथ नहीं लौटने दूंगी- अब आप हाथ मुंह धोकर खाना खा लीजिए बहुत थक गए होंगे । "

" थक तो सचमुच बहुत गया हूं लक्ष्मी " मुस्कराकर भोला ने कहा- " मगर आज न जाने क्यों बिल्कुल भी थकावट

महसूस नहीं हो रही बस मुझे तो एक ही चिन्ता है कि चाहे जैसे भी हो , कल ईश्वर हमारी लाज रख ले । "

" ऐसा ही होगा स्वामी , सब ऊपर वाले पर छोड़ दो वह जो करेगा , हमारे भले के लिए ही करेगा । "

" ठीक कहती हो लक्ष्मी "

और उस रात दोनों पति पत्नी खाना खाकर सो गए ।

अतिथि सत्कार की चिन्ता में दोनों ही रात - भर करवटें बदलते रहे थे ।

सुबह जैसे ही वह उठे , वैरो ही एक व्यक्ति उनके द्वार पर आ खड़ा हुआ ।

" मैंने सुना है कि आज आप कोई भोज दे रहे हैं । " " भोज ? "

भोला चकराया- " कैसा भोज भाई ? " " क्या आज आप किसी सन्त को भोजन नहीं कराएंगे । "

" हां कराएंगे तो ? "

" तो आज दिन भर के लिए आप मुझे अपने यहां नौकर रख लें । "

" नौकर- - यह तुम कैसी बातें कर रहे हो भाई — मैं तो स्वयं बहुत गरीब आदमी हूं— मैं भला किसी को नोकर क्या रखूंगा ! " " अगर आप गरीब है तो

मैं आपसे इसका कोई पारिश्रमिक नहीं लूंगा मगर आप मुझे नौकर रख लें । "

" देखो भाई ! तुम कोई और घर देखो - बिना पारिश्रमिक के भी मैं तुमसे कोई काम नहीं करवाऊंगा – लोग मेरी हंसी उड़ाएंगे कि खुद तो भूखा मरता है

और घर में नौकर रखा हुआ है । "

" देखो , मैं तुम्हारे पड़ोस के गांव में रहता हूं मैंने सुना है कि इस गांव में सन्त - महात्मा आ रहे हैं— अतः उनकी सेवा करने का भाव

लेकर ही मैं तुम्हारे यहां आया हूँ तुम मुझे सन्तों की सेवा करने से रोक नहीं सकते । ”

कहकर वह जबरन घर में घुस गया ।

दोनों पति - पत्नी आश्चर्यचकित थे कि यह सब क्या हो रहा है ।

इस बिन बुलाए मेहमान को कठोरता से भगाना भी उन्हें अच्छा नहीं लग रहा था , जबकि वह व्यक्ति रसोई

मैं घुसकर काम में जुट गया था ।

" छोड़ो भागवान ! जो हो रहा

. उसे ईश्वर की इच्छा समझकर स्वीकार करने के

अलावा और कोई रास्ता नहीं है ।

आओ भीतर चलो ।

" भोला की पत्नी रसोई में चली गई तो वह व्यक्ति उसके काम में हाथ बंटाने लगा ।

भोला स्नानादि से निवृत्त होने चला गया ।

- कुछ

देर बाद जब वह फारिग होकर आया तो उसकी पत्नी ने कहा- भोजन तैयार है— आप सन्त जी को बुला लाएं । " " ठीक है भागवान – अभी जाता हूं । "

“ सुनो जी ।

भोला घर से निकला तो देखा कि पूरे गांव में बहार- सी आई हुई है ।

चारों ओर राम नाम की चादर ओढ़े साधु - सन्त घूम रहे हैं ।

जिस - जिसके नाम जितने सन्तों का भोजन लिखा था , वह उन्हें आदर सहित अपने घर ला रहा था ।

कुछ सन्त , जिन्होंने आज व्रत धारण किया हुआ था , इधर - उधर बैठे प्रवचन कर रहे थे ।

गांव के बच्चे - बूढ़े व महिलाएं श्रद्धा से उनके अनमोल वचन सुन रहे थे ।

भोला के मन में भक्ति की लहर जाग उठी ।

वह जल्दी से मुखिया जी की चौपाल पर पहुंचा और बोला — " मुखिया जी !

अब आप एक सन्त जी को मेरे यहां भेजिए । "

" अरे भोला ! " भोला को देखकर जैसे मुखिया को कुछ याद आया – “ अरे भाई !

सेवा करने वालों में तुम्हारा नाम तो मैं लिखना ही भूल गया — तुम तो जानते ही हो कि जब मैं तुम्हारा नाम लिखने वाला था ,

तभी सेट बद्रीप्रसाद आ गए थे - बस , जल्दबाजी में मैंने सभी सन्तों का भोजन उनके हिस्से में लिख दिया था ।

" यह सुनकर भोला को बड़ी निराशा हुई ।

उसका सारा उत्साह ठंडा पड़ गया ।

तड़पकर वह बोला— “ अब आप ही बताइए मुखिया जी कि मैं क्या करूं — जब तक सन्त जी मेरे घर भोजन नहीं करेंगे ,

तब तक मैं और मेरा परिवार भी अन्न ग्रहण नहीं करेगा । "

" भाई भोला- मैं अपनी भूल की क्षमा चाहता हूं तुम ऐसा करो कि भगवान का भोग लगाकर भोजन ग्रहण कर लो । "

" नहीं - नहीं — ऐसा नहीं हो सकता- आपने तो मेरी सारी आशाओं पर पानी फेर दिया ?

' भोला की आंखें भर आई - " मैं गरीब हूं न , इसलिए आपने मेरी ओर ध्यान नहीं दिया "

" देखो भाई , इसमें गरीबी अमीरी की कोई बात नहीं है — मगर फिर भी भूल हुई है तुम ऐसा करो कि किसी सन्त से

निवेदन करके उसे अपने घर ले जाओ और भोजन करा दो ।

" भोला ने कोई जवाब नहीं दिया और आंखों में आंसू लिए वह वापस चल दिया ।

इस समय उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था ।

ऐसा लग रहा था जैसे सबकुछ टूटकर बिखर चुका हो ।

तभी उसके कानों में एक सन्त के स्वर पड़े- " इंसान को कभी निराश नहीं होना चाहिए— जो कुछ भी होता है ,

ईश्वर की इच्छा से ही होता है ।

" भोला ने देखा कि एक सन्त एक ऊंचे टीले पर बैठे लोगों को उपदेश दे रहे हैं ।

आस - पास काफी भीड़ थी ।

भोला ने सोचा कि क्यों न मैं इन्हें ही अपने घर ले जाकर भोजन करा दूं ! मुझे पूरी उम्मीद है कि यह मुझे निराश नहीं करेंगे ।

यही सोचकर भोला उन सन्त जी के पास गया और उनके चरण पकड़कर आंसू भरी आंखों से

उनका चेहरा देखते हुए संधे स्वर में बोला— “ भगवन ! मेरी इच्छा पूरी करो मेरी विनती स्वीकार करो महाराज । "

" तुम्हें क्या कष्ट है बच्चा ? "

" मैं

" बहुत दुखी हूं महाराज । "

" दुखी तो यह पूरा संसार है बच्चा । "

" मगर मेरा दुख दूसरा है महाराज । "

भोला ने कहा- " दरअसल मेरा दिल टूट

गया है मैं ... "

और इस प्रकार भोला ने उसे पूरी बात बता दी ।

फिर बोला- " अब मेरी आपसे यही विनती है महाराज कि आप अपने चरणों से मेरा घर पवित्र करें

और वहां चलकर जो भी रूखा - सूखा है , उसे ग्रहण करें तभी मुझे शान्ति मिलेगी । ”

" अगर ऐसी बात है तो हम तुम्हारे पर अवश्य चलेंगे बच्चा तेरे मन में निःस्वार्थ सेवा की भावना है ,

यह देखकर हम बहुत प्रसन्न हुए हैं ।

" सन्त जी की बात सुनकर पूरा जन - समूह हैरान रह गया ।

दरअसल यह सन्त जी साहूकार का निमंत्रण ठुकरा चुके थे , किन्तु भोला का निमंत्रण सहज ही स्वीकार कर लिया था ।

यही लोगों की हैरानी का कारण था ।

देखते - ही - देखते पूरे गांव में यह बात फैल गई कि जिस सन्त ने साहूकार का निमन्त्रण ठुकरा दिया था ,

वह भोला के अतिथि बनकर जा रहे हैं ।

लोग उत्सुकता के मारे भोला के घर की ओर उमड़ पड़े ।

साहूकार ने यह सुना तो उसे बहुत बुरा लगा ।

इसे उसने अपना अपमान समझा और वह भी भोला के घर की ओर चल दिया ।

वह जानना चाहता था कि सन्त जी ने उसका निमन्त्रण ठुकराकर भोला का निमन्त्रण क्यों स्वीकार किया ।

उधर , पूरा गांव ही जैसे भोला के घर पर उगड़ आया था और जब उन्होंने भोला के घर में रसोइये को देखा तो उनकी हैरानी और भी बढ़ गई ।

" अरे ! ' भोला के घर में तो रसोइया पकवान बना रहा है — आखिर यह कैसा चमत्कार क्या भोला को कोई गड़ा खजाना मिल गया है ?

" बाहर खड़े लोग तरह - तरह की बातें बना रहे थे और भीतर भोला व उसकी पत्नी सन्त जी को बड़ी श्रद्धा से भोजन करा रहे थे ।

भोजन करके सन्त जी जैसे ही बाहर आए , वैसे ही साहूकार उनके समक्ष आ खड़ा हुआ - " महाराज ! मैं यह जानना चाहता हूं

कि आपने मेरा निमन्त्रण क्यों अस्वीकार किया और भोला का निमन्त्रण क्यों स्वीकार किया ? "

" सुनो साहूकार —तुम्हारे निमन्त्रण में अहंकार था - तुम मुझे निमन्त्रण नहीं दे रहे थे , बल्कि वहां मौजूद ग्रामवासियों को

यह बता रहे थे कि तुमने पांच सौ सन्तों को भोजन कराया है और

तुम ही इस गांव के बहुत बड़े दानी हो — जबकि भोला के निमन्त्रण में प्रार्थना थी— अनुरोध था इसके मन में सन्तों के प्रति सच्चा आदर है ,

क्योंकि यह स्वयं भी बहुत सीधा और सच्चा इन्सान है ।

" " जय हो सन्त जी महाराज की जय हो ।

" भोला गदगद हो उठा " महाराज ! " सचमुच में आज स्वयं को बड़ा भाग्यशाली

समझ रहा हूं कि आपने मुझ गरीब के घर भोजन ग्रहण किया । "

“ कोई छोटा - बड़ा , गरीब - अमीर नहीं होता भोला — जो सच्चा होता है ,

उसकी मदद करने ईश्वर स्वयं धरती पर आते हैं — और यह जो तुम्हारा रसोइया है — यह भी .... । ”

" मेरा रसोइया - महाराज ! मेरी इतनी हिम्मत कहां कि किसी को नौकर रख सकूं — यह सज्जन पुरुष तो आप सन्तों की सेवा करने के उद्देश्य से ही मेरे घर आए थे ।

" फिर रसोइए से मुखातिब होकर वह बोला- “ जाओ भाई ! तुम्हारी इच्छा पूर्ण हुई — अब सन्त जी का आशीर्वाद

लेकर तुम भी अपने घर को जाओ । "

“ हां भोला— अब तो हमें जाना ही होगा — मगर जाने से पहले मैं तुम्हें सदा सुखी रहने का आशीर्वाद देता हूं । "

अचानक वह व्यक्ति हवा में उड़ने लगा और बोला “ मैं देवराज इन्द्र हूं — इस गांव में सिर्फ तुम्हारे मन में ही सन्तों के

प्रति सच्चा आदर है और तुम जो कुछ भी कर रहे थे निःस्वार्थ भावना से कर रहे थे जबकि सन्तों को भोजन कराने के

बदले सभी के मन में स्वार्थ की भावना उपजी थी— इसीलिए भगवान श्रीहरि ने मुझे तुम्हारी मदद को भेजा था— मेरा आशीर्वाद है कि तुम सदा सुखी रहो ।

” और फिर देखते - ही - देखते भगवान इन्द्र अन्तर्धान हो गए ।

वहां उपस्थित जन समूह श्रद्धा से उन्हें नमन कर ही रहा था कि तभी वहां बैठे सन्त जी भी एकाएक अन्तर्धान हो गए ।

अब बस केवल उनके चरण कमलों के निशान बाकी थे ।

तभी लोग भाव - विभोर होकर बोल उठे " भगवान श्रीहरि की । "

" जय ! "

" देवराज इन्द्र की । "

" जय । "

भोला के घर भोजन करने वाले स्वयं भगवान श्रीहरि थे ,

यह जानकर भोला और उसकी पत्नी की आंखों में खुशी के आंसू झिलमिलाने लगे ।