लालच बुरी बला है

बहुत पुराने समय की बात है ।

काशीपुर नामक एक पंडित रहता था ।

वह बेहद गुणी व बुद्धिमान था ।

उसका एक चेला भी था जो दिन - रात उसकी सेवा करता था ।

पूजा - पाठ करके गुरु - शिष्य को जो भी मिल जाता था , उसी में अपना गुजर - बसर कर लिया करते थे ,

किन्तु उस गांव के निवासी अधिक धनवान नहीं थे और न ही दानी प्रवृत्ति के थे ।

पूजा - पाठ का वह जो भी आयोजन करवाते थे , वह विवशता में ही करवाते थे ।

अतः पंडित चन्द्रदत्त व उसके शिष्य को कभी कभी भूखे ही रहना पड़ता था ।

इस बात से पंडित जी काफी चिंतित थे कि जब यहां भरपेट भोजन भी कभी - कभी नहीं मिल पाता है तो भविष्य में भला क्या होगा ।

यदि भविष्य के लिए . कुछ धन दौलत संचय न किया गया तो बुढ़ापा खराब हो जाएगा ।

उस समय तो कोई दो बूंद पानी भी मुंह में नहीं डालेगा ।

यही सब सोचकर एक दिन पंडितं चन्द्रदत्त ने अपने शिष्य को बुलाकर कहा “ बेटे गंगाराम !

इस गांव में रहकर तो गुजारा होना बहुत मुश्किल है— मैंने सोचा है कि मैं यह गांव छोड़कर पड़ोस के राज्य वीरपुर में चला जाऊं ,

क्योंकि मैंने सुना है कि वहां के राजा भी दानी हैं और प्रजा भी — बेटे ! यदि तुम इस गांव में रहना चाहते हो तो रहो । "

" वाह गुरुजी मैं भला आपके बिना इस गांव में रहकर क्या करूंगा – मेरा स्वर्ग तो आपके चरणों में ही है , इसलिए मैं वहीं रहूंगा जहां आप रहेंगे । "

" तो ठीक है हम कल ही प्रस्थान करेंगे - तुम तैयारी " ठीक है गुरुदेव । "

गंगाराम सफर की तैयारियों में जुट गया ।

शुरू कर दो ।

" कुछ ही घंटों में उसने आवश्यक कपड़े - लत्ते और खाने आदि का सामान बांध लिया ,

फिर गुरुजी से बोला - " गुरुदेव ! आपने यह तो बताया ही नहीं कि दूसरे राज्य में हम ठहरेंगे कहां - क्या वहां आपके कोई परिचित रहते हैं ? "

“ परिचित तो कोई नहीं रहता गंगा बेटे , किन्तु वहां के राजा वीर प्रताप सिंह बड़े ही सूझबूझ वाले व दानवीर हैं ,

वह हमें अपने दरबार में कोई - न - कोई स्थान अवश्य ही देंगे । "

“ किन्तु गुरुदेव ! वहां के ब्राह्मण क्या हमें आसानी से वहां टिकने देंगे ? "

" बेटे ! वहां हम किसी से शास्त्रार्थ करने नहीं जा रहे ।

" पंडित जी ने उसे समझाया " न ही हमारा उद्देश्य किसी की रोजी - रोटी छीनना है हम तो अपने ज्ञान के बल

पर वहां के राजा वीर प्रताप सिंह से अनुग्रह प्राप्त करेंगे — जब उन्हें पता चलेगा कि मुझे वैदर्भ मंत्र आता है ,

तो मुझे विश्वास है कि वह मुझे पूरा सम्मान देंगे । " " गुरु जी !

यदि ऐसी बात है तो इस मंत्र का लाभ आप स्वयं ही क्यों नहीं उठा लेते ? "

" बेटे ! इस मंत्र का लाभ दूसरों को पहुंचाया जा सकता है— स्वयं में इसका लाभ नहीं उठा सकता

इस मंत्र की विशेषता यही है कि इस मंत्र को जानने वाला यदि इसका प्रयोग अपने लाभ के लिए करेगा तो तत्क्षण ही मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा । "

" तो फिर यहीं रहकर आप यहीं के किसी मनुष्य को इसका लाभ क्यों नहीं पहुंचाते आखिर यह हमारा अपना गांव है । "

" ठीक कहते हो— मगर यहां के सभी लोग मतलबपरस्त और स्वार्थी है— इन लोगों के इसी आचरण के कारण मेरा

मन इन लोगों से मर गया है , जबकि राजा वीर प्रताप सिंह न केवल गुणी हैं , बल्कि ज्ञानी और परमार्थ करने वाले हैं— मेरी

प्रबल इच्छा है कि मैं अपने इस मंत्र का लाभ उन्हें ही दूं । ” " ठीक है गुरुजी — जो निर्णय आपने लिया है , सोच - समझकर ही लिया होगा । "

" निर्णय लेना इन्सान के हाथ में है — किन्तु कल क्या होने वाला है , यह तो विधाता ही जानता है— हम जो कुछ सोचकर जा रहे हैं ,

हो सकता है , वह पूरा ही न हो — मगर कुछ भी हो , यह तो पक्का है कि अब हम यहां नहीं रहेंगे ।

" गंगाराम समझ चुका था कि अब उनके दिन बदलने वाले हैं ।

जल्दी ही वह राजा वीर प्रताप के दरबार में ऊंचा ओहदा हासिल कर लेंगे , क्योंकि उसे मालूम था कि

उसके गुरु के पास एक ऐसा रहस्यमयी मंत्र है जिसके जाप से हीरे मोतियों की वर्षा होती है और हीरे मोतियों की कद्र तो राजा ही जानते हैं ।

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अगले दिन सुबह - सुबह ही गुरु चेला अपनी यात्रा पर निकल पड़े ।

काफी लम्बा सफर था और रास्ते में बियावान जंगल भी पड़ता था , अतः उनका प्रयास था कि रात होने से

पहले ही वह दूसरे राज्य की सीमा में पहुंच जाएं । उस जंगल में खतरनाक किस्म के डाकू और लुटेरे रहते थे

जो इन्सान को मारकर उनका माल असबाब छीन लिया करते थे ।

मगर पंडित चन्द्रदत्त जैसे फक्कड़ को भला कौन लूटेगा , यही सोचकर वह आश्वस्त थे ,

किन्तु जंगली जानवरों का भय तो फिर भी था ।

दोपहर होते - होते वह जंगल की सीमा में जा घुसे ।

" गुरुजी ! यह जंगल तो बड़ा भयानक है लगता है सूर्य की किरणें तो यहां पहुंच

ही नहीं पातीं । "

" हां वेटा— हमें जल्दी से जल्दी यह जंगल पार करना है । "

" यहां तो डाकू लुटेरों का भी भय होगा गुरूजी । "

“ हां किन्तु डाकू - लुटेरे हमें भला क्या लूटेंगे भय तो जंगली जानवरों का है । "

यह बातें करते - करते वह चले जा रहे थे कि एक कर्कश स्वर उनके कानों में पड़ा " ठहरो ! "

आवाज सुनते ही दोनों अपने - अपने स्थान पर जड़ होकर रह गए और भयभीत नजरों से इधर - उधर देखने लगे कि कौन है ,

किसने दिया यह आदेश ?

तभी उनके कानों में घोड़ों की टापों की आवाजें पड़ीं ।

" डाकू । " गंगाराम के मुंह से थरथराती सी आवाज निकली " गुरुजी , डाकू ... " " हां लेकिन डरो मत ,

हमारे पास ऐसा कुछ नहीं है जिसे वे लूट सकें । " " गुरुजी !

मैंने तो सुना है कि जिस यात्री के पास कुछ नहीं होता , डाकू उसकी जान ले लेते हैं । "

" जान लेना और देना तो ईश्वर के हाथ में है — उस पर भरोसा रखो । "

कुछ ही पल गुजरे थे कि डाकू दल सामने आ गया ।

एक सफेद घोड़े पर डाकुओं का सरदार सवार था ।

उसके हाथ में रक्तरंजित नंगी तलवार थी ।

वह माधोसिंह था । " कडो , पंडित कहां जा रहे हो ? "

" मैं वीरपुर के राजा वीर प्रताप सिंह के पास जा रहा हूं , माधोसिंह । "

" तो जाने से पहले माधोसिंह का ' कर ' देना होगा - एक हजार मोहरे । "

“ यह तुम क्या कह रहे हो माथोसिंह — हम गरीब ब्राह्मणों के पास भला इतना न कहां - हम तो अपने यजमानों के सहारे ही जीवनयापन करते हैं । "

“ यदि धन नहीं है तो यह जंगल पार करने का साहस तुमने कैसे किया ? ” माघो सिंह क्रोध से चीख उठा- ' - " सभी जानते हैं कि मेरा कर चुकाए बिना कोई जंगल पार नहीं कर सकता । धन नहीं है तो मरने के लिए तैयार हो जाओ । " " नहीं - नहीं — डाकूजी , नहीं — आप मेरे गुरुजी को न मारें इनके सिवा मेरा कोई नहीं है । "

गंगाराम गिड़गिड़ा उठा । " देखो बेटे ! अगर तुम चाहते हो कि मैं पंडित जी की जान बख्श दूं तो तुम्हें कहीं - न - कहीं से हजार सोने की मोहरें लानी होंगी । "

" मगर इतनी सारी मोहरें मैं लाऊंगा कहां से । "

गंगाराम रुआंसा - सा हो गया । “ माधोसिंह ! ” तभी पंडित चन्द्रदत्त बोले— “ यह अन्याय है हम गरीब ब्राह्मण तो

यजमानों की कृपा पर जीवनयापन करते हैं — अगर तुम हमसे कर ही वसूल करना चाहते हो तो

हमसे कोई धार्मिक अनुष्ठान करा लो — बदले में उसकी दक्षिणा न देना । "

" हम ऐसे अदले - बदले नहीं करते पंडित - सुनो गंगाराम ,

अगर तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारे गुरु की जान बख्श दूं तो तुम तुरन्त वीरपुर के राजा के पास जाकर कहो

कि तुम्हारे गुरु की जान खतरे में है । मुझे विश्वास है कि एक विद्वान ब्राह्मण की जान बचाने के लिए वह अवश्य ही

तुम्हें हजार मोहरें दे देंगे । " " मगर माधोसिंह ! महाराज वीर प्रताप सिंह तो मुझे जानते ही नहीं । "

“ भले ही न जानते हों— मगर वह एक धर्मात्मा राजा हैं — एक ब्राह्मण की जान बचाने के लिए वह यह

मामूली सा धन अवश्य ही दे देंगे । "

" ठीक है— मैं जाता हूं । " गंगाराम बोला " मगर जब तक मैं वापस न आ जाऊं , तब तक आप मेरे गुरु को कुछ न कहें । "

" हां हमें तुम्हारी यह शर्त मंजूर है जब तक लौटकर नहीं आ जाओगे ,

तंब हम इसे तक हम तुम्हारे गुरु को इस वृक्ष से बांधकर रखेंगे ।

यदि तुम धन ले आए मुक्त कर देंगे - अन्यथा इसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा । "

" ठीक है । " गंगाराम ने डाकू सरदार की बात मान ली और पंडित चन्द्रदत्त से बोला — " गुरु जी !

आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें मैं राजा वीर सिंह के पास जाकर उन्हें सारी बात बता दूंगा और यह भी कि

आप वैदर्भ मंत्र जानते हैं और डाकुओं से मुक्त होकर वह उस मंत्र के बल पर आपको बहुत लाभ पहुंचाएंगे — आप इन नर - पिशाच से बचकर रहना । "

“ ठीक है बेटा- मुझे विश्वास है , राजा वीर प्रताप एक ब्राह्मण की प्राणरक्षा अवश्य करेंगे । "

" किन्तु गुरुजी ! आप इन्हें उस मंत्र के विषय में कुछ न बताना , वरना यह लोग आपको धन पाकर भी नहीं छोड़ेंगे । "

कहकर गंगाराम ने उनके पांव हुए ।

पंडित जी ने उसे आशीर्वाद दिया और बोले — तुम भी अपना ध्यान रखना बेटे । "

" अच्छा गुरुजी । " गंगाराम ने कहा , फिर डाकू सरदार से बोला- “ डाकू सरदार !

आप मुझे एक घोड़ा दे दें ताकि मैं शीघ्र ही धन का प्रबंध करके लौट सकूं । "

" ठीक है— मंगलसिंह , इसे एक घोड़ा दे दो । "

और फिर गंगाराम घोड़ा लेकर अपने सफर पर चल दिया ।

उसे अपने गुरु चिन्ता थी । किसी भी प्रकार वह अपने गुरु को बचाना चाहता था ।

की

गंगाराम के जाने के बाद पंडित जी को एक पेड़ से बांध दिया गया ।

पंडित चन्द्रदत्त ने अपने शिष्य को भेज तो दिया था , मगर उन्हें पूरा विश्वास था कि वह किसी भी सूरत में

मोहरें नहीं ला पाएगा ; क्योंकि राजा वीर प्रताप न उसे जानते थे और न उसके शिष्य को ।

फिर भला किसी के कहने पर वह सोने की हजार मोहरें क्यों देंगे ।

उन्हें विश्वास था कि डाकू उन्हें मार देंगे , मगर इस प्रकार उन्होंने अपने शिष्य

को निकल जाने का मौका देकर उसकी जान बचा ली थी ।

जैसे - जैसे समय गुजरता जा रहा था , पंडित जी को अपनी मौत करीब आती दिखाई दे रही थी ।

पंडित जी सोचने लगे कि यदि गंगाराम धन लेकर न आया और इन डाकुओं ने मुझे मौत के घाट उतार दिया तो इस वैदर्भ मंत्र का क्या होगा ?

जान है तो जहान है ।

क्यों न मैं इस मंत्र का लाभ उठाऊं ! यह मंत्र एक वर्ष में केवल एक बार अपनी शक्ति दिखाता है ।

राजा को अगले वर्ष इस मंत्र का लाभ पहुंचा दूंगा ।

फिलहाल तो जान बचानी चाहिए ।

' यदि ऐसी बात थी तो तुमने गंगाराम को क्यों जाने दिया ? '

' यह बात मुझे तब नहीं सूझी खैर अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा— यदि वह हजार मोहरें नहीं लेकर आया ,

तभी में इस मंत्र का उपयोग करूंगा- मुझे गंगाराम का इन्तजार करना चाहिए ।

' गई । पंडित जी पेड़ से बंधे गंगाराम के और इसी प्रकार शाम हो गई ।

रात आने की बाट जोहते रहे ।

डाकुओं ने उस पेड़ के इर्द - गिर्द ही अपना डेरा जमा लिया ।

डाकू जब रात को खाना खाने बैठे तो उनके पास मदिरा और भुना हुआ मांस था

जिसकी दुर्गंध से ही पंडित जी को घृणा थी । जैसे - तैसे सवेरा हो गया ।

रात - भर पेड़ से बंधे बंधे उनका शरीर बुरी तरह टूटने लगा था ।

खड़े - खड़े पांव सूज गए थे ।

कलाइयां सूज गई थीं डाकुओं ने उन्हें भोजन तो क्या , दो घूंट पानी तक

के लिए नहीं पूछा था ।

" पंडित जी आपका चेला तो आया नहीं अब तो हमारे सामने यस एक ही रास्ता है कि

आपको टिकाने लगाकर किसी और शिकार की तलाश में जाएं ।

" डाकुओं के सरदार माधोसिंह ने कहा- " मंगल सिंह करदे पंडित जी का काम तमाम । "

" जो हुक्म सरदार । " मंगलसिंह ने तुरन्त अपनी कटार संभाल ली ।

चमचमाती दुधारी तलवार देखकर पंडित जी के प्राण सूख गए ।

घबराकर वह बोले- " नहीं - नहीं माधोसिंह मुझे मत मारो । ' "

तो क्या तेरी पूजा करें – सारी रात काली करवा दी तेरे उस शिष्य ने और हमारा घोड़ा भी लेकर भाग गया । "

" वह भागा नहीं है माधोसिंह वह अवश्य आएगा । "

" मगर मानोसिंह अब और इन्तजार नहीं कर सकता " माथोसिंह गुर्राया — ' ' मंगलसिंह ! तुम अपना काम करो और

बाकी सब कूच की तैयारी करो । " " देखो माधोसिंह ! "

हलक में फंसा थूक सटककर पंडित जी बोले- " अगर तुम मेरी जान बख्श दो तो

मैं तुम्हें मालामाल कर सकता हूं । " “ क्यों रे पंडित ! तू मुझे मूर्ख समझ रहा है क्या ? " " नहीं - नहीं- मैं सच कह रहा हूं । "

“ अरे सुनो- यह मूर्ख क्या कह रहा है — टैक्स चुकाने के लिए हजार दमड़ी तो इसके पास है

नहीं और यह मुझे मालामाल कर देगा सुनो इस पागल की बातें । " " मैं ... मैं सच कह रहा हूं माधोसिंह । "

" चुप । "

" तुम मेरी बात तो सुनो । " " मंगलसिंह ! तू अपना काम कर । "

" सरदार ! " मंगलसिंह बोला- " मरना तो इसे है ही- फिर क्यों न एक बार इसकी बात सुन ली जाए ! "

" ठीक है तू ही सुन इस पागल की बात । "

" देखो डाकू सरदार ! मेरे पास एक ऐसा मंत्र है जिसके जाप से हीरे - मोतियों की वर्षा होने लगती है

. एक हजार बार उस मंत्र को जपना पड़ेगा । "

" यदि यह बात थी तो तूने पहले क्यों नहीं बताया अवश्य ही तू मुझे धोखा देना चाहता है । "

" माधोसिंह , मैं तुम्हें धोखा देकर आखिर क्या करूंगा ? "

" फिर तुमने पहले ही यह सब क्यों नहीं बताया ? "

" इसलिए कि मैं इस मंत्र का लाभ राजा को पहुंचाना चाहता था , ताकि प्रसन्न

होकर वह मुझे अपने दरबार में कोई ऊंचा पद दे और मेरा बाकी का जीवन आराम

गुजर

सके । "

" तुम स्वयं हीरे - मोती हासिल करके ठाट की जिंदगी क्यों नहीं जी पाए ? "

“ देखो माधोसिंह ! इस मंत्र का लाभ मैं स्वयं नहीं उठा सकता ।

यदि मैंने अपने लिए इस मंत्र का जाप किया तो उसी समय मेरी मृत्यु हो जाएगी । "

" इसकी बात मान लो सरदार हो सकता है , यह सच कह रहा हो । "

" ठीक है पंडित मैं तुम्हें जप करने का मौका देता हूं — तुम हीरे - मोतियों की बरसात करवाओ - अगर यह सच हुआ तो

मैं तुम्हें न केवल छोड़ दूंगा , बल्कि इज्जत से जंगल की सीमा भी पार करवा दूंगा बोलो ,

इसके लिए मुझे क्या करना होगा ? "

" पहले मुझे आजाद करो — मैं नहा धोकर पवित्र होने के बाद वृक्ष के नीचे बैठकर मंत्रों

का जाप करूंगा— एक हजार जाप पूरे होते ही हीरे - मोतियों की वर्षा होने लगेगी - तुम वह सारी दौलत समेट लेना और में अपनी राह लूंगा । "

" ठीक है । "

और फिर माधोसिंह के आदेश पर उसे आजाद कर दिया गया ।

पंडित चन्द्रदत दो डाकुओं की निगरानी में नदी की ओर नहाने चल दिए ।

थोड़ी देर बाद वह नहा - धोकर लौटे और उसी वृक्ष के नीचे बैठकर विधिवत मंत्रों का जाप करने लगे ।

सभी डाकू पंडित जी को घेरकर बैठ गए ।

एक ओर माथोसिंह बैठा था ।

सभी डाकू पंडित की ओर देख रहे थे , कभी - कभी आसमान की ओर देखने लगते । और फिर

-

जैसे ही मन्त्र पूरे हुए वैसे ही चमत्कार हो गया ।

आसमान से हीरे मोतियों की वर्षा होने लगी ।

" अरे वाह सरदार ! " सारे डाकू खुशी से झूम उठे - " यह तो चमत्कार हो गया ।

" माधोसिंह की आंखें भी आश्चर्य से फटी जा रही थीं ।

उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वह जो कुछ देख रहा है , वह सच है या सपना ।

" समेट लो सारी दौलत यह पंडित तो सच कह रहा था रे इसके मंत्र में तो वाकई शक्ति है ।

हा ... हा ... हा ... अरे पंडित ! तूने तो वाकई चमत्कार कर दिखाया रे ! "

माधोसिंह के साथी हीरे मोती समेट रहे थे किसी को किसी की सुध नहीं थी

कुल दो घड़ी यह वर्षा हुई , फिर सब कुछ सामान्य हो गया ।

माधोसिंह के सामने हीरे मोती का ढेर लग गया ।

" वाह वाह पंडित तूने तो कमाल कर दिया रे - चल , मैंने तुझे आजाद किया- ' अभी पंडित जी अपने स्थान से उठकर कुछ ही दूर गए थे

कि वातावरण एक बार फिर घोड़े की टापों की आवाज से गूंज उठा ।

यह आवाजें डाकू माधोसिंह और उसके साथियों के कानों में भी पड़ीं और वह आश्चर्य से एक - दूसरे का चेहरा देखने लगे ।

इससे पहले कि वह कुछ समझ पाते , एक तेज आवाज उनके कानों में पड़ी ।

" सब लोग अपनी अपनी जगह पर बैठे रहें- यदि किसी ने हिलने की कोशिश की तो गौत के घाट उतार दिया जाएगा ।

" शेर जैसी इस दहाड़ को सुनकर सभी चौंक उठे । " कौन है ? " डाकू माधोसिंह दहाड़ा- " सामने आए ।

किसकी हिम्मत है जिसने माधोसिंह को ललकारा है ? "

“ शेर को शेर ही ललकार सकता है माधोसिंह । "

तभी झाड़ियों में से एक घुड़सवार निकलकर सामने आ गया ।

उसके पीछे - पीछे उसके साथी भी थे ।

" तुमने हमारी हद में आने की हिम्मत कैसे की मलखान सिंह ! "

“ हदें कायरों की हुआ करती हैं माधोसिंह हम तो इस पूरे जंगल के राजा हैं — किसी प्रकार की चालाकी मत

दिखाना – तुम सब हमारे घेरे में हो । " " इसका मतलब तुम खून - खराबा करना चाहते हो ? "

" कुछ भी समझो माधोसिंह मगर इतना याद रखना अगर मलखान की तलवार उठी तो खून की नदियां बह जाएंगी ।

वैसे हमें बिना वजह खून - खराबा पसंद नहीं । "

" तो फिर यहां क्या करने आए हो ? "

" इंसाफ ( "

" इंसाफ – हा - हा - हा । " माधोसिंह हंस पड़ा- " सुनो सुनो- मलखान सिंह और इंसाफ हा - हा - हा " माधोसिंह के सभी साथी

भी जोर - जोर से हंसने लगे । " खामोश ! "

मलखान सिंह चीख उठा “ निर्लज्ज की तरह हंस रहा है कमीने वह

भी एक ब्राह्मण पर अत्याचार करके — शर्म से डूब मरो माधोसिंह ठाकुरों के खानदान में जन्म लेकर ब्राह्मण पर अत्याचार । " " बकवास बंद करो बड़े धर्मात्मा बनते हो जाओ अपना रास्ता नापो , वरना अंजाम अच्छा नहीं होगा नहीं तो साफ - साफ कहो कि यहां क्यों आए हो । " " अपना हिस्सा लेने । "

" हिस्सा कैसा हिस्सा ? "

" हमने है कि यहां हीरे - मोतियों की बारिश हुई है और जब हम धूप - छांव , सुना आंधी - तूफान मिलकर झेलते हैं तो हीरों की बारिश में भी हमारा बराबर का हक बनता है । चुपचाप आधा हिस्सा मेरे हवाले कर दो इतना बड़ा खजाना तुम अकेले ही हजम नहीं कर सकते अगर राजी से दोगे तो ठीक है , वरना गैर राजी सही । " " देखो ठाकुर - तुम भी डाकू हो और मैं भी डाकू हूं हमें आपस में लड़ना शोभा नहीं देता — में तुम्हें इस खजाने का स्रोत बता सकता हूं । " " अगर ऐसी बात है तो ठीक है तुम मुझे रास्ता बताओ खजाना मैं खुद हासिल कर लूंगा । " " उसके बाद तो मुझसे हिस्सा नहीं मांगोगे ? " " मैं तुम्हारी तरह गिरा हुआ नहीं जो अपने वचन से फिर जाऊं । मैं तो ब्राह्मणों और साधुओं का आदर करता हूं दान - दक्षिणा देता हूं । " " सुनो ठाकुर ! यह पंडित चन्द्रदत्त है इसे एक ऐसा मंत्र आता है , जिसके जाप करने से हीरे - मोती की वर्षा होती है— इसी ने उस मंत्र का जाप करके हमारे लिए यह हीरे - मोती बरसवाए हैं । ' ' ठाकुर माधोसिंह ने कहा— ' - " तुम मुझसे झगड़ना छोड़ो और इस पंडित को अपने साथ ले जाओ इससे मंत्र जाप कराकर तुम इतने हीरे मोती बरसवा लेना , जितने राजा के खजाने में भी नहीं होंगे । "

" क्या यह सच है माधोसिंह ? "

" अगर तुम्हें विश्वास न हो तो मेरे साथियों से पूछ लो― ठाकुर ! माना कि हम लोगों में आज पेशागत दुश्मनी है ,

मगर यह न भूलो कि हम कभी दोस्त भी रहे हैं दुश्मनी छोड़कर एक दोस्त की तरह मुझ पर विश्वास करो । ”

" हमारे सरदार ठीक कह रहे हैं ठाकुर । "

माधोसिंह के साथियों ने कहा तो मलखान सिंह को विश्वास आ गया ।

सच में आज तुमने पुरानी दोस्ती की कीमत अदा कर दी ! साथियो !

इस पंडित को काबू कर लो - अब यह हमारे लिए हीरे - मोतियों की बारिश करवाएगा ।

" पंडित जी को समझते देर नहीं लगी कि उनकी जान आफत में आने वाली है ।

इन डाकुओं को वैदर्भ मंत्र के विषय में बताकर उन्होंने बड़ी भूल की है । सोचा तो यह

था कि मंत्र के माध्यम से जान बच जाएगी , मगर अब वही मंत्र जान का दुश्मन बन

गया था ।

एक डाकू से छुटकारा मिला नहीं था कि दूसरे डाकू के चंगुल में जा फंसा ।

यानी आकाश से गिरा और खजूर में अटका ।

अब यह धन के लोभी , अक्ल के अंधे मुझे जीवित नहीं छोड़ेंगे ।

" यह तेरी कैसी लीला है प्रभु ! एक ज्ञानी ब्राह्मण की आज यह कैसी दुर्गति हो रही है

इन राक्षसों के चंगुल में फंसकर तो अब जीवन ही संकट में पड़ गया है मेरी रक्षा करो प्रभु - यह मंत्र साल में एक बार ही फलीभूत होता है

जबकि यह डाकू घन के लोभ में मुझसे मंत्र जाप कराएगा , मगर हीरे मोतियों की वर्षा नहीं होगी तब तो

अवश्य ही यह निर्बुद्धि मेरी जान ले लेगा - रक्षा करो प्रभु , मेरी रक्षा करो— काश !

काश मैंने अपने शिष्य की बात मानकर इन लोभियों को इस मंत्र के विषय बताया ही न होता- हे प्रभु !

मेरी रक्षा करो - इस होने वाली ब्रह्महत्या को रोको प्रभु रोको ।

" पंडित जी मन - ही - मन भगवान से प्रार्थना कर रहे थे कि एकाएक ही मलखान सिंह गरज उठाते पंडित !

क्या सोच रहा है मंत्र जाप कर और हमारे लिए हीरे मोतियों की वर्षा करा । "

" देखो ठाकुर ... ! "

पंडित जी ने कुछ कहना ही चाहा था कि मलखान सिंह पुनः गरजा " मैं किसी प्रकार का बहाना नहीं सुनूंगा पंडित- अगर जान की खैर चाहता है तो मेरा

कहा मान , वरना मौत के घाट उतार दूंगा । " " नहीं - नहीं ठाकुर , ऐसा नहीं करना ।

ब्रह्महत्या सबसे बड़ा पाप है , वह पाप ... । ”

" मुझे पाप - पुण्य की रामायण न सुना ।

" गुर्राते हुए मलखान सिंह ने उसकी गर्दन दबोच ली " वरना अभी गला दबा दूंगा । "

" मैं ... मैं ... मुझे छोड़ दो ठाकुर — पहले मेरी बात सुनो— मेरा यह मंत्र साल में एक ही बार काम करता है — इस वर्ष का लाभ माधोसिंह उठा चुका है

. मैं ... मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि अगले वर्ष ...। "

" बकवास मत कर पंडित मंत्र जब चाहे पढ़ लो , उनका फल अवश्य मिलता है । "

" मगर यह मंत्र ऐसा नहीं है । " “ दको मत - बहुत सुन ली हमने तेरी यह बकवास । "

" मैं ... मैं सच कह रहा हूं ठाकुर । "

" तू ऐसे नहीं मानेगा । " मलखान सिंह ने कहा , फिर धप्पड़ों और घूसों की बरसात कर दी पंडित के चेहरे पर ।

" हाय - हाय मरा

—मुझे मत मारो ठाकुर - मुझे मत मारो । "

" तो बोल ! मंत्र का जाप करेगा या नहीं ? " " नहीं । " " तो ले । "

मलखान सिंह पंडित पर बुरी तरह पिल गया ।

" न मार पापीन मार— ब्राह्मण का अपमान करके तू कभी सुखी नहीं रह सकता " पंडित जी चीखते रहे , मगर मलखान सिंह न रुका ।

यहां तक कि उनका चेहरा हो गया । मुंह से खून निकलने लगा । कई दांत टूट गए । यहां तक कि वह बेसुध होकर गिर पड़े ।

लहूलुहान

" प ... पानी पानी ... "

" पानी बाद में मिलेगा पंडित — पहले हीरे मोतियों की वर्षा करा । "

" भ ... मुझ पर रहम करो मलखान सिंह मुझे पानी ... "

" नही मिलेगा । "

उसकी सांसें टूटने लगीं । आंखों के सामने अंधेरा छा गया ।

हाथ - पांव शिथिल हो गए तो कराहते हुए वह बोले " य ... याद रख मलखान सिंह में .. मैं तो मर रहा हूं म ... मगर तेरा अन्त भी बुरा ही

होगा तुझे .. तुझे तेरे कर्मों की सजा अवश्य ... हिच .... " और फिर पंडित जी ने एक हिचकी ली और उनकी गर्दन एक ओर लुढ़क गई ।

उधर , एक ओर खड़े माधोसिंह ने पंडित जी को मरते देखा तो चुपचाप अपने साथियों के साथ वहां से खिसक लिया ।

हीरे - जवाहरात उसके साथी पहले ही बटोरकर थैलों में भर चुके थे ।

वह समझ चुका था कि जैसे ही मलखान सिंह को पंडित के मरने का पता चलेगा , वैसे ही वह गुस्से से पागल हो जाएगा ।

हार स्वीकार करना तो उसने सीखा ही नहीं था । " उठाओ इस पंडित को साला , नाटक कर रहा है । "

उसके साथी तुरन्त पंडित की ओर झपटे । " यह तो मर चुका है सरदार । " " हैं - मर गया ? " " हां सरदार "

“ ओह— इतनी मेहनत भी की और हाथ भी कुछ नहीं लगा और ... और यह साला माधोसिंह सारा माल ले उड़ा पकड़ो उसे भागने न पाए "

अगले ही पल उसके साथी अपने - अपने घोड़ों पर सवार होकर उस दिशा की ओर भागने लगे , जिपर माधोसिंह अपने साथियों

के साथ भाग निकला था ।

आगे - आगे माचोसिंह और उसके साथी , पीछे - पीछे मलखान सिंह और उसके साथी ।

घोड़ों की टापों की आवाज से पूरा जंगल गूंज उठा ।

" घेर लो माधोसिंह और उसके साथियों को कोई भी भागने न पाए । " मलखान

सिंह गुर्राया |

माधोसिंह और उसके साथियों ने उसे अपने पीछे आता देखा तो अपने घोड़ों को और भी तेज दौड़ाना शुरू कर दिया ।

मगर कब तक यह भाग - दौड़ होती रहती !

मलखान सिंह के साथियों ने जल्दी ही माधोसिंह और उसके साथियों को घेर लिया ।

और फिर- देखते - ही - देखते दोनों दलों में मारकाट शुरू हो गई ।

दोनों में से कोई भी दल कमजोर नहीं था ।

दोनों ही एक - दूसरे पर भारी पड़ रहे थे ।

तलवारों की खनखनाहट दूर - दूर तक सुनाई दे रही थी ।

देखते - ही - देखते धरती खून से लाल होती चली गई ।

दोनों ही डाकू सरदार अपनी जीत के लिए अपने - अपने साथियों को उकसा रहे थे ।

मगर आखिर कब तक चलता यह घमासान युद्ध ?

कुछ ही देर में माधोसिंह और मलखान सिंह को छोड़कर उनके सभी साथी मारे गए ।

" माथोसिंह ! अब तू मरने के लिए तैयार हो जा ।

" मलखान सिंह ने अपना तलवार वाला हाथ ऊपर उठाकर तलवार लहराते हुए माधोसिंह को ललकारा ।

" सुनो मलखान सिंह । "

माधोसिंह ने चालाकी से काम लेते हुए कहा- " हमारे सभी साथी मारे जा चुके हैं — अगर हम भी लड़ - लड़कर मर गए तो यह खजाना किसी

के काम नहीं आएगा ।

बेहतर होगा कि हम दोनों आपस में इस खजाने को बांट लें ? "

" नहीं - यह माल या तो मुझे मारकर तू ले जा या तुझे मारकर में ले जाऊंगा अगर यह शर्त तू पहले रखता तो

शायद मैं कबूल कर लेता — मगर अब ,

जब मेरे सभी साथी मारे जा चुके हैं तो मुझे तेरी यह शर्त मंजूर नहीं मैं न तो मरने से डरता हूं

और नं ही तुझसे कमजोर हूं । " “ पागलों जैसी बातें मत करो मलखान सिंह यहां कमजोर और ताकतवर का सवाल नहीं है ।

देखो , देखो हमारे इन साथियों को , यह लोग क्या ले गए — जब इन्सान कुछ भी साथ नहीं ले जा सकता ,

तो लड़ाई कैसी आधी - आधी दौलत बांटकर हम बाकी जिन्दगी दोस्तों की तरह गुजार लें ,

यही बुद्धिमानी है— दौलत होगी तो हम मिलकर अपना नया दल बना सकते हैं ? " मलखान सिंह की आंखें सोचने वाले अंदाज में सिकुड़ गई ।

उसे लगा कि माधोसिंह ठीक ही कह रहा है ।

उसकी समझ में आ गया कि इस प्रकार लड़ - लड़कर मर जाना बुद्धिमानी नहीं ।

" ठीक है गाधोसिंह — मुझे तुम्हारी बात स्वीकार है ।

" मलखान सिंह ने अपनी तलवार फेंक दी ।

फिर दोनों एक - दूसरे के गले से लग गए ।

‘ “ माधोसिंह ! तुम्हारी और मेरी पुरानी दोस्ती आज फिर से जीवित हो रही है ।

” " हां - आओ , हम वायदा करें कि हम दोनों अब हमेशा मिलकर रहेंगे ।

" “ मैं वायदा करता हूं । ”

मलखान सिंह ने कहा , फिर कुछ सोचकर बोला- “ मेरी एक राय है दोस्त । "

" क्या ? "

" मेरा ख्याल है कि इतने बड़े खजाने को उठाए फिरना कोई बुद्धिमानी नहीं । "

" फिर ? " " क्यों न हम इस खजाने को यहीं - कहीं छिपा दें और आवश्यकता पड़ने पर थोड़ा - थोड़ा निकालते रहें । "

" कह तो तुम ठीक रहे हो - चलो , ऐसा ही करते हैं ।

" किसी एक बात में दोनों पक्षों की सहमति हो तो उसे अमली जामा पहनाते देर नहीं लगती ।

दोनों ही साहसी और हिम्मती थे ।

दोनों ने मिलकर पीपल के एक वृक्ष नीचे खड़ा खोदा और खजाने के थैले उसमें छिपा दिए ।

इस काम से निपटने के बाद माधोसिंह बोला- " ठाकुर ! यह काम तो निपट

गया — अब क्या करें ? " " तुम बताओ "

पहले तो पेट पूजा करनी चाहिए । मुझे बहुत जोरों की भूख लगी है ।

मगर इस जंगल में खाना कहां मिलेगा ? "

" भूख तो मुझे भी लगी है चलो , शहर चलते हैं - वहीं चलकर बढ़िया खाना खाएंगे — मगर ठाकुर ! इतने बड़े खजाने को हम यहां

अकेला कैसे छोड़ दें- एक आदमी को तो यहां पहरे पर रहना ही चाहिए । "

" बात तो तुम्हारी ठीक है ठाकुर — ऐसा करते हैं कि एक आदमी यहां रहे और दूसरा खाना लेने शहर चला जाए ।

तुम खजाने के पास बैठो ठाकुर , मैं खाना लेने शहर जाता हूं— मगर हमें मां भवानी की सौगन्ध है , हम दोनों में से कोई

भी एक - दूसरे के साथ गद्दारी नहीं करेगा । " " हां मां भवानी की सौगन्ध- हम गद्दारी नहीं करेंगे ।

" और फिर माधोसिंह खाना लेने शहर चला गया ।

मलखान सिंह अकेला रह गया ।

उसकी आंखों में धूर्तता भरी चमक थी ।

उसने भले ही अपनी इष्ट देवी की सौगन्ध खा ली थी , मगर फिर भी उसकी नीयत में खोट और बेईमानी थी ।

वह सोचने लगा - ' अगर मैं माधोसिंह की हत्या कर दूं तो इस सारे खजाने का मैं अकेला ही मालिक हो जाऊंगा फिर यह डाकाजनी छोड़कर

किसी शहर में ठाट से शराफत की जिंदगी गुजारूंगा - क्या हो जाएगा अगर इस खजाने के पीछे एक बलि और चढ जाएगी — इभर माधोसिंह का काम तमाग हुआ और उबर सारा खजाना मेरा हुआ । '

यही सोचकर मलखान सिंह हंस पड़ा ।

उधर , माधोसिंह घोड़े पर सवार तेजी से शहर की ओर बढ़ा जा रहा था ।

कुछ देर बाद वह शहर पहुंच गया । खाना लेकर जब वह वापस जंगल की ओर आने लगा तो अचानक उसके मन में ख्याल आया

कि यह मलखान सिंह बड़ा बेईमान और धूर्त आदमी है ।

भले ही मां भवानी की कसम खाकर उसने दोस्ती कायम कर ली है , मगर कभी - न - कभी वह दगा अवश्य करेगा ।

क्यों न इसे ठिकाने लगा दिया जाए ।

फिर तो सारा खजाना मेरा होगा - किसी शहर में जाकर मैं टाट से शराफत की जिंदगी गुजारूंगा ।

यही सोचते हुए उसने एक दुकान से जहर खरीदकर खाने में मिला दिया ।

विधि की कैसी विडम्बना थी ।

इधर माधोसिंह ने मलखान सिंह की हत्या की तैयारी कर ली थी और उधर मलखान सिंह उसकी हत्या करने की योजना बना चुका था ।

मलखान सिंह खजाने के पास बैठा अपनी तलवार भांज रहा था ।

तभी उसकी नजर दूर से आते माधोसिंह पर पड़ी तो उठकर वह एक वृक्ष की ओट में छिप गया ,

ताकि जैसे ही माधोसिंह करीब आए , वैसे ही वह एक झटके में उसका काम तमाम कर सके ।

और फिर हुआ भी यही ।

अपनी मस्ती में चूर जैसे ही माधोसिंह खजाने वाले वृक्ष के करीब आने लगा , वैसे

ही एक अन्य वृक्ष को ओट से मलखान सिंह निकला और

अपनी तलवार से एक ही झटके से उसकी गर्दन धड़ से अलग कर दी ।

“ हा - हा - हा । ” अपनी इस कामयाबी पर मलखान सिंह ने एक जोरदार कहकहा लगाया — ‘ “

अब यह सारा खजाना मेरा है मैं राजा हो गया ... राजा मलखान सिंह हूं — हे पेड़ - पौधो ! बोलो जय- हा हा हा ...। "

नहीं ..

अब मैं मलखान सिंह डाकू राजा मलखान सिंह की

इससे निपटकर मलखान सिंह ने मूठों पर ताव दिया ।

तभी उसकी नजर खाने की पोटली पर पड़ी ।

खाना देखकर उसकी भूख और अधिक बढ़ गई ।

वह तेजी से खाने की ओर झपटा ।

चंद पत्तों बाद ही उसने खाने की पोटली खोली और जल्दी - जल्दी खाने लगा ।

इधर , उसने खाने का कौर मुंह में डाला और उधर उसकी आंखें बाहर को उबल पड़ीं ।

मुंह से झाग निकलने लगे और देखते - ही - देखते वह धरती पर लम्बा हो गया ।

सभी मर चुके थे और हीरे - जवाहरात का वह खजाना वहीं पड़ा था ।