मेढ़े की फितरत

जयपुर राज्य में हर वर्ष एक विचित्र मेला लगा करता था ।

विचित्र इसलिए था विजय

कि यह मेढ़ों का मेला था ।

आस - पास के गांवों के निवासी अपने - अपने हृष्ट - पुष्ट मेढ़े लेकर आते थे और उनकी लड़ाई करवाकर आनन्द लेते थे ।

इस वर्ष मेढ़ों का मेला लगा हुआ था ।

शहर के मुख्य चौक में हजारों की भीड़ लगी थी ।

आने वाले किसान अपने - अपने साथ एक - से - एक तगड़े मेढ़े लेकर आए हुए थे ।

मेड़ों की टक्कर का आयोजन होने ही वाला था कि तभी एक साधु वहां आया और लोगों की भीड़ देखकर इस भीड़ का कारण पूछा ।

एक किसान ने उसे बताया- " महाराज ! यह मेढ़ों का मेला है — यहां हर वर्ष यह मेला लगता है

जिसमें मेढ़ों की लड़ाई होती है— जो भी मेढ़ा जीतता है , उसे मेढ़ों का राजा घोषित किया जाता है

और उसके मालिक को कई प्रकार के पुरस्कार भी मिलते हैं । "

" अच्छा ! " साधु ने हैरानी से कहा और भीड़ को चीरकर आगे आ गया ।

उधर , लड़ाई शुरू हो चुकी थी ।

सभी दिलचस्पी से लड़ाई देख रहे थे । लड़ते लड़ते अचानक एक मेढ़ा रुककर साधु की ओर देखने लगा ।

दूसरा मेढ़ा भी जहां का तहां रुक गया ।

सभी लोग उस मेढ़े को देखने लगे ।

साधु के सामने आकर मेढ़ा रुक गया ।

उसका सिर झुका हुआ था । सींग ऊपर की ओर उठे हुए थे ।

" वाहवाह ..जानता है । "

ह ... कितना समझदार है यह जीव जो

साधु - सन्तों का भी आदर करना

" महाराज ! यह आदर - वादर नहीं कर रहा है — पीछे हट जाइए - यह मार देगा । "

" नहीं - नहीं — यह बेजुबान जीव भला किसी को क्या मारेगा — यह तो आशीर्वाद प्राप्त करना चाहता है—

इंसान ही है जो इन बेजुबान जीवों पर अत्याचार करता है । "

" महाराज ! आप भूल रहे हैं कि यह मेढ़ा है और स्वभाव से मरखना है —

इसका स्वभाव तो भगवान भी नहीं बदल सकते— हर प्राणी अपने स्वभाव से ही पहचाना जाता है । "

" नहीं नहीं - तुम मूर्ख हो । " पास खड़े एक अन्य व्यक्ति ने कहा- " महाराज !

यह लड़ाकू मेढ़े हैं — इनका तो स्वभाव ही मारना है । " लेकिन साधु ने किसी की नहीं सुनी ।

वह आगे बढ़ा । उधर , मेढ़ा भी दो कदम आगे बढ़ा ।

मेढ़े के मालिक ने उसे रोकना चाहा , लेकिन तब तक देर हो चुकी थी ।

पलक झपकते ही मेढ़े ने साधु को सींगों पर उठाकर धरती पर पटक दिया ।

" हे राम ! " साधु के हलक से एक तेज चीख निकली ।

साधु मुंह के बल गिरा था । उसके सारे दांत टूट गए ।

मुंह में खून भर गया ।

लोगों ने लाठी मारकर मेढ़े को पीछे धकेला ।

फिर साधु को उठाते हुए बोले- “ क्यों महाराज ! हमने कहा नहीं था कि यह मेढ़े स्वभाव से मरखने होते हैं । "

" हां भाई ! " दर्द से कराहते हुए साधु बोला- " वास्तव में ही यह मेरी भूल थी — तुमने सच कहा था कि मेढ़े का स्वभाव ही मारना होता है ,

जैसे बिच्छू डंक मारना नहीं छोड़ सकता - हाय ! इसने तो मेरी हड्डी - पसली ही तोड़ डाली ।

" लोग साधु को घसीटकर पीछे ले गए ।

एक व्यक्ति ने उन्हें कुल्ला कराकर दूध पिलाया ।

साधु समझ चुका था कि जीव चाहे कोई भी क्यों न हो , अपनी जाति के अनुसार अपना स्वभाव नहीं छोड़ सकता ।