सेठ रामलाल राज्य के मशहूर सेठ थे ।
उनके घर में खान - पान की कोई कमी नहीं थी ।
हर रोज उनके यहां मेहमान आते , अच्छे - अच्छे पकवान बनाकर उन्हें खिलाए सेठ रामलाल की रसोई में ही
एक कबूतर घोंसला बनाकर रहता था । वह बड़ा नेक और सीधा था ।
सेठ का रसोइया शम्भू महाराज उसे बहुत चाहता था ।
खाना बनाते - बनाते वह थोड़ा खाना उसके घोंसलों के पास रख देता और कबूतर चुपचाप उसे चुगकर सैर को निकल जाता ,
फिर शाम को आकर आराम से सो जाता ।
इसी प्रकार उसका जीवन आराम और सुख - शान्ति से गुजर रहा था ।
एक दिन कबूतर खा - पीकर रसोई की खिड़की पर बैठा सुस्ता रहा था कि तभी एक कौआ उधर से गुजरा ।
उसने रसोई की खिड़की पर कबूतर को बैठे देखा और रसोई की भीनी - भीनी महक उसकी नाक में टकराई तो उसकी तो तबीयत ही खुश हो गई ।
' अरे वाह ! क्या खुशबू है— रसोई में तो इस कबूतर का घोंसला भी दिखाई दे रहा है ।
' कौआ मकान के सामने ही पेड़ पर बैठ गया और सोचने लगा- ' इस कबूतर ने तो सेठ की रसोई में ही अपना घोंसला बना रखा है —
यह तो खूब अच्छे - अच्छे पकवान खाता होगा — इस कबूतर से तो दोस्ती करनी चाहिए— अगर इससे दोस्ती हो गई तो बढ़िया
- बढ़िया खाने को मिलेगा – मुझे तो सात जन्म भी ऐसा खुशबूदार खाना नसीब नहीं होगा ।
' यही सोचकर वह कौआ कबूतर के बाहर आने का इन्तजार करने लगा ।
उसकी ललचाई नजरें रसोई के मजेदार खानों पर जमी हुई थीं ।
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थोड़ी देर बाद हवाखोरी के लिए जैसे ही कबूतर बाहर निकला तो कौआ उसके पीछे - पीछे उड़ने लगा ।
कुछ देर बाद जब कबूतर को एहसास हुआ कि यह कौआ लगातार उसका पीछा कर रहा है तो उसने सोचा कि यह क्यों मेरा पीछा कर रहा है !
यह तो बड़ा चालाक किस्म का प्राणी है । इससे तो भगवान बचाए ।
कौआ लगातार उसका पीछा कर रहा था ।
आखिर तंग आकर कबूतर ने पूछ ही लिया " अरे भाई ! तुम मेरा पीछा क्यों कर रहे हो ? "
उसकी बात सुनकर कौआ हंस पड़ा , फिर बोला- " कबूतर भाई !
तुम बड़े नेक और गुणवान प्राणी हो – हम पक्षियों में तुम जैसा गुणी और भोला तो शायद ।
कोई होगा बस यही कारण है कि मैं तुमसे दोस्ती करना चाहता हूं । "
" तुम्हारी और हमारी कैसी दोस्ती भइया - हम ठहरे सीधे - सादे शाकाहारी जीव और तुम ठहरे चालाक और मांसाहारी । "
" अरे भइया ! मांस खाने से प्राणी बुरा थोड़े ही हो जाता है और जहां तक सीधे और चालाक की बात है ,
तो भाई मेरे , पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं चालाक और दुष्ट प्राणी तो हर कौम में होते हैं , एक के कारण पूरी कौम को बदनाम करना न्याय
नहीं है । "
" नहीं नहीं भइया तुम किसी और को अपना दोस्त बनाओ । "
" देखो भइया , लोग हमें वैसे ही दुत्कारते रहते हैं , क्योंकि हम जरा मोटी बुद्धि के प्राणी हैं ।
अब तुम भी क्या मुझे दुत्कार दोगे — मैं तो सोच रहा था कि तुम्हारी संगत में रहकर कुछ अक्ल भी सीख लूंगा ।
" कहकर कौए ने ऐसा नाटक किया , मानो वह काफी दुखी हो उठा हो और अभी रो देगा ।
कबूतर को उस पर कुछ दया - सी आ गई और तनिक द्रवित होकर वह बोला " लेकिन भाई कौए हम एक साथ कैसे रह सकते हैं
हममें तो कोई समानता ही नहीं है । "
" अरे भइया ! समानता तो अपने- - आप आ जाएगी मैं तुम्हारे जैसा ही खान - पान कर लूंगा -- जैसा व्यवहार लोगों के साथ तुम करोगे ,
वैसा ही मैं भी करूंगा – कहते हैं न कि साधु के साथ रहकर तो दुष्ट भी साधु हो जाते हैं ।
पारस तो लोहे को भी सोना बना देता है । "
" यदि तुम जिद करते हो तो ठीक है भइया हम दोनों साथ रह लेंगे —कहा भी गया है कि एक से भले दो - लेकिन देखो भइया ।
तुम किसी प्रकार की शरारत न करना ।
कहीं ऐसा न हो कि तुम कोई उल्टी - सीधी शरारत कर बैठो और हम रहने का ठिकाना भी खो बैठें । "
" अरे नहीं भइया ।
मैं भला कोई गड़बड़ क्यों करूंगा !
ऐसा करके तो मैं अपना ही अहित करूंगा - फिर भला तुम मुझे अपने साथ क्यों रहने दोगे ! "
" तब ठीक है चलो मेरे साथ । "
कौआ मन - ही - मन बहुत खुश हुआ ।
उसने सोचा कि चलो , पहली सफलता तो
हाथ लगी ।
सारा दिन ये दोनों इधर - उधर दाना चुगते रहे ।
एक - दूसरे से तन - मन की कहते रहे ।
सारा दिन कौआ ही अधिक बोलता रहा ।
वही उसे इधर - उधर की झूठी सच्ची कहानियां सुना सुनाकर प्रभावित करने का प्रयत्न करत रहा और यह जाहिर करता रहा
कि वही उसका सच्चा हितैषी व मित्र है ।
कबूतर बेचारा उसकी बातों से थोड़ा प्रभावित भी हुआ ।
इसी प्रकार शाम हो गई ।
कबूतर उसे लेकर अपने ठिकाने की ओर चल दिया ।
जब घर करीब आ गया तो कबूतर ने एक बार फिर उसे चेतावनी दी ।
" देखो भइया ! किसी प्रकार की हरकत मत कर
ना मैं एक बार फिर तुम्हें सचेत कर रहा हूं । "
" अरे भाई मेरे ! बार - बार कहकर मुझे शर्मिन्दा न करो । "
" मगर हां । " कबूतर को जैसे कुछ याद आया ।
वह बोला- " सेठ की जिस रसोई में मैं रहता हूं उसमें तो सिर्फ एक मेरा ही घोंसला है - हम उसमें रहेंगे कैसे ? "
" कोई बात नहीं कबूतर भाई - हम आज की रात एक ही घोंसले में गुजारा कर लेंगे — कल मैं जैसे - तैसे अपना घोंसला बना लूंगा -
जब दोनों मित्र मिलकर काम करेंगे . तो भला देर ही कितनी लगेगी ! "
कबूतर बेचारा क्या कहता ! कौआ उसकी हर बात का तर्कपूर्ण जवाब दे रहा था ।
अन्त में कबूतर ने चुप रहना ही उचित समझा ।
रसोइये की तरफ से भी कबूतर को कोई खतरा नहीं था ।
वह जानता था कि रसोइया बड़ा दयालु है ।
वह कौए को मेरा मित्र समझकर स्थान दे देगा ।
उसे तो पक्षियों से वैसे ही बहुत प्यार है ।
जब रहने की समस्या भी दूर हो गई तो कौए ने सोचा कि चलो दूसरी सफलता भी हाथ लगी ।
उस रात कौए को भी कबूतर के साथ बढ़िया देसी घी का दाल - भात और भाजी खाने को मिली ।
एक तो पका हुआ खाना और वह भी देसी घी का ।
कौए ने तो बड़े चाव से वह सब खाया ।
फिर उस रात कबूतर के पोंसले में ही पांव पसारकर सोया ।
रात को सोते समय वह सोचने लगा- ' किसी ने सच ही कहा है कि एक बार सभी के दिन बदलते हैं ।
मेरे भी नसीब अच्छे थे जो मेरी नजर इस कबूतर पर पड़ गई । अब मिलेगा रोज - रोज बढ़िया खाना ।
' दूसरे दिन कौए ने कबूतर की मदद से रसोई में ही एक कोने में अपना घोंसला बना लिया ।
रसोइये ने कबूतर के साथ कौए का घोंसला देखा तो मन - ही - मन वह बहुत खुश हुआ ।
मगर सोचने लगा , ‘ कौए चालाक और शरारती होते हैं ।
कहीं कल को यह इस सीधे - सादे कबूतर को कोई नुकसान न पहुंचाए ।
' लेकिन वह बेचारा कर भी क्या सकता था ।
इस प्रकार दोनों मित्र बड़े आराम से रसोई में रहने लगे ।
कौआ हर रोज नए - नए पकवान खाता और चैन की नींद सोता ।
एक दिन की बात है ।
सेठ के यहां कुछ मेहमान आने वाले थे ।
इसलिए घर में पकवान आदि बन रहे थे ।
सेठ जी ने अपने मित्रों के लिए मछली मंगवाई थी ।
रसोइया मछली आदि साफ कर रहा था तो अपने घोंसले में बैठा कौआ सोच रहा था— ' अरे भाई ! आज तो मजा आ गया ।
बहुत दिनों के बाद मसालेदार तली हुई मछली खाने को मिलेगी ।
' और फिर चुपचाप अपने घोंसले में बैठा वह सोचता रहा कि कैरो मछली पर हाथ साफ किया जाए ।
कौए ने सोचा कि यदि वह कबूतर से इस मामले में कुछ कहेगा तो वह तो उसकी कोई बात मानेगा नहीं ।
अतः खुद ही कोई मौका निकालकर मछली के टुकड़ों पर हाथ साफ करना पड़ेगा ।
इसी प्रकार सवेरा हो गया ।
हर रोज की तरह कबूतर ने उससे कहा- " चल भाई कोए ! खाने की तलाश में चला जाए । "
" नहीं भाई कबूतर ! आज मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है — कल से मेरा पेट कुछ खराब है । "
कौआ अपने - आपको काफी चालाक समझ रहा था , मगर कबूतर भी कुछ कम समझदार नहीं था ।
वह समझ गया कि आज रसोई में मछली आई है ।
उसे देखकर ही उसकी नीयत खराब हो रही है ।
अतः वह बोला -- " देखो भाई कौए रसोई में कोई हरकत मत करना- किसी भी चीज को न छूना , वरना गड़बड़ हो जाएगी — मेरी बात मानो और
मेरे साथ चलो "
" अरे नहीं भाई मैं सच कह रहा हूं — तुम यह मत समझो कि मछली को देखकर मेरा मन खराब हो रहा है
और मैं बहानेबाजी कर रहा हूँ मैं सच कह रहा हूं कि मेरे पेट में कुछ गड़बड़ है । "
" ठीक है— तब मैं
चला जाता हूं — लेकिन जाते - जाते फिर एक बार आगाह
कर रहा हूं कि यहां कोई गड़बड़ न करना । "
" कहा न भइया कोई गड़बड़ नहीं होगी- मेरा विश्वास करो मित्र । "
कौए ने बार - बार उसे भरोसा दिलाया तो कबूतर को भी उसकी बात का विश्वास हो गया कि यह कोई गड़बड़ नहीं करेगा ।
और वह बेचारा चल दिया अपने खाने की तलाश में ।
' चलो – यह अड़ंगा भी दूर हुआ इसे क्या मालूम मछली का स्वाद क्या होता -अब खाओ पियो और मौज उड़ाओ ।
' थोड़ी देर बाद ही रसोइया रसोई में आया और मछली काट - पीटकर साफ करने लगा ।
मछली काटकर उसने तली , फिर दूसरी सब्जियां काटकर साफ की ।
इस सारे काम में यह काफी थक गया था ।
अतः कुछ देर सुस्ताने के लिए बाहर जाकर बैठ गया ।
" शुक्र है यह यहां से टला तो सही यहीं बैठा रहता तो मेरा काम कैसे बनता — पहले ही उस कबूतर को मुश्किल से भेजा है "
और फिर कौए ने चुपके से टोकरी में से एक मछली का टुकड़ा उठाया और अपने घोंसले में जाकर खाने लगा ।
कई टुकड़े उसने चुपचाप चुरा - चुराकर खा लिए ।
हालांकि उसका पेट भर गया था , फिर भी और खाने का लोभ संवरण वह नहीं कर पा रहा था जोकि दुखदायी होता है ।
हुआ भी यही । इस बार जैसे ही उसने परात में से मछली का टुकड़ा उठाया , वैसे ही उस पर ढकी प्लेट धरती पर गिर पड़ी ।
छनछनाहट की तेज आवाज हुई ।
मगर कीए को इससे भला क्या फर्क पड़ना था !
उसने मछली का टुकड़ा लिया और आराम से बैठकर खाने लगा ।
रसोइया तेजी से अन्दर आया कि कहीं कोई बिल्ली रसोई में न घुस आई हो ।
मगर जैसे ही उसकी नजर मछली खाते कौए पर पड़ी , उसके क्रोध का ठिकाना न रहा ।
क्रोध से लाल - पीला होकर वह कौए पर झपटा - " ओ पापी !
नीच ! मेरी भलमनसाहत का तूने यह बदला दिया कि चोरी से मछली खा गया – दुष्ट !
मैंने तो उस कबूतर वजह से तुझे चुपचाप रहने को जगह दी और तू मेरा ही बुरा करना चाहता है - ले ,
अब चख मजा । "
की कहते हुए उसने कौए को गर्दन से पकड़ा और क्रोध में आकर उसके सभी पंख नोंच डाले ।
कौआ दर्द से चीखता - चिल्लाता रहा , मगर रसोइये ने उस पर जरा भी दया न दिखाई ।
" ले अब यहीं पड़ा सड़ता रह— लालची कौए यही तेरी सजा है ।
" भय और दर्द से कराहता कौआ एक कोने में जाकर दुबक गया और अपनी करनी पर आंसू बहाता रहा ।
शाम को जब कबूतर वापस आया तो कौए की ऐसी हालत देखकर वह सब कुछ समझ गया कि उसकी गलती की ही उसे ऐसी सजा मिली है ।
" क्यों कौए भाई ! मैंने कहा था ना कि कोई बेजा हरकत न करना - इन्सान को थोड़े में ही सन्तोष करना चाहिए ,
मगर तूने लालच में रसोइये को नुकसान पहुंचाया और रसोइये ने तेरी यह गत बना डाली ।
इसलिए कहते हैं कि लालच बुरी बला है । "