कलिंगराज का अभिमान

आज से हजारों वर्ष पूर्व कलिंग देश में एक बड़ा ही शूरवीर और बलशाली राजा राज्य करता था ।

उसके पास चतुरंगिणी सेना थी ।

वह किसी भी राजा के बल - वैभव की प्रशंसा सुनकर ईर्ष्या से भर जाता था

और तब उसके मन में एक ही इच्छा बलवती हो जाती थी कि किसी न किसी

तरह उस राजा से युद्ध करके उसका मान मर्दन किया जाए और जब तक वह ऐसा न कर लेता ,

उसे चैन नहीं मिलता था ।

इसी का यह परिणाम था कि सारी पृथ्वी पर उसका दबदबा कायम हो गया ।

कुछ राजाओं को उसने युद्ध में परास्त किया और कुछ ने बिना युद्ध किए ही उससे हार स्वीकार कर ली ।

इस प्रकार सभी राजाओं ने न केवल उसकी शक्ति का लोहा माना , बल्कि उसे शूर - शिरोमणि मान लिया ।

इसी प्रकार काफी समय गुजर गया । अब राजा युद्ध करे तो किससे ?

कोई ऐसी इच्छा मुख से प्रकट नहीं करता ।

अतः आप राजकुमारियों को रथ में बैठाकर रथ के चारों ओर एक पर्दा डलवा दें

और सारथी से कहें कि वह रथ को लेकर सभी राज्यों में घूमे तथा साथ - ही - साथ एक व्यक्ति यह मुनादी करता चले कि जो भी सच्चा मर्द हो ,

वह कलिंग कुमारियों को अपनी पत्नी बना सकता है , किन्तु अपनी पौरुषता का

परिचय देने के लिए उसे कलिंगराज से युद्ध करना होगा ।

मेरा ख्याल है कि इस लालब से कोई - न - कोई मूर्ख राजा अवश्य ही आपसे युद्ध करने को तैयार हो जाएगा । "

" वाह ! यह युक्ति तो अच्छी है ।

हम पर किसी निर्बल को ललकार कर युद्ध करने का दोष भी नहीं लगेगा और हमारी युद्ध करने की लालसा भी पूर्ण हो जाएगी ।

" कलिंगराज प्रसन्नता से भर उठा- " महामंत्री ! कल ही राजकुमारियों को देशाटन के लिए भेजें ।

" और फिर दूसरे दिन ही कलिंग कुमारियों को रथ में बैठाकर देशाटन के लिए रवाना कर दिया गया ।

राजकुमारियों के साथ सेना की एक टुकड़ी और राज्य के कुछ प्रमुख पदाधिकारी भी चल दिए ।

वह हर राज्य में जाकर मुनादी करते , लेकिन किसी भी राजा ने कलिंगराज की शर्त पर उन कुमारियों का हाथ थामने की चेष्टा न की ।

भला कलिंगराज जैसे बलशाली राजा से युद्ध का खतरा कौन मोल लेता ?

समस्त जम्बूद्वीप का चक्कर लगाकर कलिंग कुमारियों का रथ अस्सक राज्य की ओर बढ़ने लगा ।

अस्सकराज को पहले ही गुप्तवरों के माध्यम से यह सूचना मिल चुकी थी ।

अतः उसने रथ के नगर में प्रवेश करने से पूर्व ही भेंट उपहार भेजकर नगर के द्वार बंद कराकर राहत सांस ली ।

राजा का इस प्रकार भयभीत होकर भेंट उपहार भेजना और द्वार बंद कर लेना उसके मंत्री नन्दिसेन को बहुत बुरा लगा ।

कलिंगराज की पौरुषत्व की घोषणा ने तो उसे और भी अधिक विचलित कर दिया था ।

यह अस्सक राज से बोला- " महाराज ! पौरुषहीनता का कलंक लेकर जीने से तो युद्ध क्षेत्र में पुरुषार्थ दिखाते हुए वीरगति को प्राप्त हो जाना ,

कहीं अधिक सम्मान की बात है ।

मेरा अनुरोध है कि आप उन कुमारियों को ससम्मान राजमहल में बुलाकर कलिंग राज की चुनौती स्वीकार करें ताकि

उन्हें मालूम हो कि यह धरती पुरुषार्थियों से शून्य नहीं हो गई है ।

यदि आप विजयी रहे तो पूरे संसार में आपकी वीरता का डंका बजेगा और यदि हमारी पराजय हुई ,

तब भी हम स्वाभिमानी मर्द तो कहलाएंगे ।

युद्ध में पराजय अलग बात है किन्तु वरण होने के लिए द्वार पर आई कुमारियों को वापस लौटाना तो घोर

अपकीर्ति और अपमान की बात है । " अपने मंत्री की बातें सुनकर राजा अत्यधिक प्रभावित हुआ और उसका पौरूष भी जाग उठा ।

उसने तत्काल ही कुमारियों को आदर सहित महल में बुलवा लिया ।

तत्पश्चात कलिंगराज को इसकी सूचना भिजवा दी गई ।

कलिंगराज तो युद्ध के लिए छटपटा ही रहा था ।

अतः यह सूचना पाते ही उसने

अपनी चतुरंगिणी सेना तैयार की और युद्ध के लिए चल दिया ।

उसकी सेना गरजती और चारों ओर धूल के गुब्बार उड़ाती हुई इस राज्य की सीमा के पास पहुंची तो

नन्दिसेन ने अपने दूत द्वारा कलिंगराज के पास प्रस्ताव भेजा कि दोनों दलों को अपनी - अपनी सीमा में रहकर बीच के मैदान में युद्धं करना चाहिए

कलिंगराज ने इसे मानकर वहीं अपनी सेना का पड़ाव डाल दिया ।

युद्धभूमि के पास ही एक तपस्वी महात्मा की कुटी थी ।

एक दिन कलिंगराज वेश बदलकर महात्माजी से मिला ।

उसने उससे युद्ध के सम्बन्ध में भविष्यवाणी करने की प्रार्थना की ।

हालांकि वह युद्ध के प्रति आश्वस्त था कि विजय उसकी ही होगी , किन्तु फिर भी वह और अधिक आश्वस्त हो जाना चाहता था ।

महात्माजी उस समय इस सम्बन्ध में कुछ नहीं बता सके ।

उन्होंने कलिंगराज को दूसरे दिन आने को कहा ।

वह चला गया ।

रात में महात्मा ने इन्द्र को बुलाकर पूछा , " देव , भावी युद्ध में किसकी विजय होगी और जीवने तथा हारने वाले की ओर क्या - क्या लक्षण प्रकट होगे ? "

इन्द्र भावी युद्ध का परिणाम बताकर चले गए ।

दूसरे दिन कलिंगराज गुप्तवेश में अपने प्रश्न का उत्तर पूछने फिर आया ।

महात्माजी ने सहज भाव से कहा , " इस युद्ध में कलिंगराज की विजय होगी और अरसकराज की पराजय ।

" उनके इतना कहते ही कलिंगराज हर्ष से उछल पड़ा ।

यह बिना और कुछ पूछे ही वहां से लौट आया ।

अपने डेरे पर पहुंचते ही उसने इस भविष्यवाणी का प्रचार करना शुरू कर दिया ।

होते - होते यह बात अस्सकराज के कानों तक पहुंची ।

वह पहले से ही डरा हुआ था , इस बात को सुनकर तो बिल्कुल अधमरा ही हो गया ।

असकराज का मनोबल भले ही टूट रहा था , किन्तु उसका मंत्री ऐसी बातों में आकर हिम्मत हारने वाला नहीं था ।

मन ही मन में उसने दृढ़ निश्चय कर रखा था कि चाहे कुछ भी हो , इस बार कलिंगराज को पराजित अवश्य करना है ।

कलिंगराज द्वारा फैलाई हुई बात की जांच करने के लिए रात में नन्दिसेन स्वयं उस तपस्वी महात्मा के पास गया ।

उसके पूछने पर भी महात्माजी ने वही बात ज्यों - की - त्यों कह दी ।

तब मन्त्री ने फिर पूछा " महाराज , युद्ध में जीतने और हारने वाले की ओर क्रमशः क्या - क्या शुभ - अशुभ लक्षण दिखाई देंगे ?

" महात्मा जी बोले , " अस्सकराज को दूसरी ओर सफेद बैल दिखाई देगा ।

वह वास्तव में कलिंगराज का रक्षक देवता होगा और कलिंगराज दूसरी ओर एक काला बैल देखेगा जो वास्तव में अस्सकराज का काल होगा ।

" नन्दिसेन वहां से लौट आया । इस भविष्यवाणी से वह निराश नहीं हुआ ।

उसने एक हजार चुने हुए सैनिकों को अपने पास बुलाया ।

उसने कई प्रकार से उनकी परीक्षा ली और परखा कि वह महाराज के लिए क्या कर सकते हैं ।

कई प्रकार से उनकी परीक्षा

लेने के बाद नन्दिसेन सन्तुष्ट होकर बोला- " अब मुझे विश्वास हो गया कि मौका पड़ने पर

आत्म - बलिदान करने में नहीं हिचकिचाओगे ।

तुम लोग इसी भाव से प्राण तुम लोग का मोह त्यागकर युद्ध करना ।

" निश्चित तिथि पर युद्ध आरम्भ हो गया ।

कलिंगराज भविष्यवाणी पर पूरा विश्वास करके पहले से ही अपनी जीत मान बैठा था ,

इसलिए उसने विजय के लिए विशेष उद्यम नहीं किया ।

जबकि अरसकराज अपने बचाव के लिए पूरी शक्ति से युद्ध कर रहा था ।

जब - जब वह शिविल पड़ता दिखता तभी पीछे से नन्दिसेन तरह - तरह से उसकी हिम्मत बढ़ाता ।

स्वयं वह भी बड़े वेग से युद्धरत था ।

इतना सब होने पर भी अरसकराज शत्रुओं को पीछे नहीं हटा पाया ।

उसी समय नन्दिसेन को महात्मा की बात याद आई ।

उसने तुरन्त अस्सकराज से पूछा , " महाराज , आपको उधर कोई जानवर दिखाई पड़ता है ?

" राजा ने कहा , " हां , उस सेना में एक श्वेत रंग का बैल दिखाई देता है ।

" नन्दिसेन ने तत्काल अपने एक हजार विश्वासी सैनिकों को आगे करके कहा , “ महाराज , इन्हें लेकर आप

पहले उस बैल को मार डालिए । उसी के कारण कलिंगराज अभी तक विजयी बना हुआ है ।

उसे मारकर तब शत्रु से निपटिए ।

" अरसकराज चुने हुए योद्धाओं को लेकर मारता - काटता शत्रु सेना के बीच में ।

पहुच गया । शत्रुओं के बहुत रोकने से भी उसके निर्भीक सैनिक नहीं रुके ।

वे सभी सैनिक राजा के लिए प्राण तक न्यौछावर करने को तैयार थे ।

यहां पहुंचकर राजा ने बैल को तलवार से मार गिराया ।

उसके मरते ही कलिंगराज का दैवी बल नष्ट हो

गया । अस्सकराज ने पूरे उत्साह से उसकी सेना को गाजर - मूली की तरह काटना शुरू कर दिया ।

शत्रु पक्ष के लोग घबराकर मैदान से भागने लगे । इससे अस्सकराज का उत्साह

उसे एक पल भी चैन नहीं था ।

युद्ध तो जैसे उसका नशा था ... उसकी खुराक थी युद्ध ।

मगर युद्ध करे किससे ? कहते हैं , ज्यों - ज्यों इंसान की शक्ति बढ़ती जाती है ,

त्यों - त्यों उसकी तृष्णा भी बढ़ती जाती है ।

तृष्णा का कोई अंत नहीं होता ।

यही हाल कलिंगराज का था ।

इतना शक्तिशाली होने के बावजूद भी उसके मन में और अधिक शक्ति अर्जित करने की लालसा थी ।

एक दम्भ था उसके अन्दर जो किसी को अपने समक्ष झुकाकर ही होता है ।

जब कोई राजा बंदी बनकर उसके सामने झुककर खड़ा होता तो इससे उसे सन्तुष्ट अगर

प्रसन्नता हासिल होती- 1- अब काफी समय से ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था ।

यही कारण था कि कलिंगराज युद्ध करने के लिए छटपटाने लगा ।

उसने अपने दूत चारों दिशाओं में भेजे कि जहाँ कहीं भी उसकी बुराई हो रही हो या कहीं कोई राजा उसे

खिलाफ षड्यंत्र रच रहा हो तो दूत उसे आकर बताएं ताकि वह कोई न कोई बहाना बनाकर उनसे युद्ध करे ।

आंधी - तूफान की परवाह किए बिना दूत चारों दिशाओं में गए मगर शीघ्र ही वापस लौट आए ।

किसी भी राज्य में उन्हें कलिंगराज के प्रति अवमानना दिखाई नहीं दी ।

यह समाचार सुनकर तो कलिंगराज और भी अधिक परेशान हो उठा ।

उसका मन खिन्न रहने लगा ।

राज्य में खुशहाली और सुख - सम्पन्नता होने के बावजूद वह कुछ अधूरा - अधूरा - सा महसूस कर रहा था ।

अन्त में जब उसकी व्याकुलता चरम सीमा पर जा पहुंची तो उसने अपने मंत्रियों की एक सभा बुलाई और बोला- " हमारे मंत्रीगणो !

हम इस प्रकार खाली बैठे उकता गया हूं ।

हम युद्ध चाहते हैं- युद्ध किन्तु युद्ध करे किससे ?

क्या तुम लोग कोई ऐसी युक्ति नहीं निकाल सकते कि हमें किसी राजा से युद्ध करने

का शीघ्र ही अवसर मिले । "

" महाराज ! " गहामंत्री ने उठकर कहा " युद्ध करने का कोई कारण होता है ,

किन्तु यहां आसपास तो क्या , दूर - दराज के राज्यों के राजा भी आपके बाहुबल का लोहा मानते हैं

और आपका नाम सुनकर ही नतमस्तक हो जाते हैं ।

नीति के अनुसार , जो आपकी शक्ति का बिना युद्ध किए ही लोहा मानते हैं , जो आपके समक्ष स्वयं को तुच्छ समझते हैं ,

उनसे अकारण युद्ध करना न्यायसंगत नहीं , इस प्रकार आपकी अपकीर्ति होगी । "

" तो आप ही बताएं महामंत्री कि हम क्या करें ?

युद्ध के बिना हमें चैन नहीं है और अकारण युद्ध को आप अनीति बताते हैं ।

" उद्वेलित - सा होकर कलिंगराज बोला— “ आखिर कैसे होगी हमारी यह अभिलाषा पूरी ,

कितना समय हो गया हमने कोई युद्ध नहीं लड़ा ।

आखिर कब तक हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें ।

क्या आप लोग युद्ध के लिए कोई कारण उत्पन्न नहीं कर सकते ? "

" युद्ध की परिस्थितियां उत्पन्न करने का एक उपाय है महाराज !

" एक मंत्री ने कहा । " क्या .. ... क्या उपाय है अमात्य ? शीघ्र बताओ । "

" महाराज ! आपकी कन्याएं अद्वितीय सुन्दरियां हैं ।

बड़े - बडे राजाओं की इच्छा है ।

कि आपकी पुत्रियों से विवाह करके आपसे सम्बन्ध बनाएं ।

किन्तु आपके डर के कारण ।

और बढ़ गया और अब वह दोगुने वेग से शत्रु पर टूट पड़ा ।

कलिंगराज की हार होने लगी ।

कलिंगराज का विजय स्वप्न मिथ्या हो गया ।

वह युद्ध से प्राण बचाकर भाग खड़ा हुआ ।

रास्ते में महात्मा के पास से गुजरते हुए उसने पुकारकर कहा , " अरे धूर्त ! मैंने तेरी भविष्यवाणी पर विश्वास करके आज बड़ा धोखा खाया ।

में उस पर विश्वास न करके पहले से ही मन लगाकर युद्ध करता तो इस समय मेरी ऐसी दुर्गति न होती ।

" यह कहता हुआ वह अपनी राजधानी की ओर भाग गया ।

महात्मा को इन्द्र की भविष्यवाणी असत्य होते देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ ।

रात में उन्होंने इन्द्र का पुनः आसन करके कहा , " देव , आपने तो कहा था कि देवता कलिंगराज के पक्ष में हैं ,

इसलिए वही विजयी होगा , लेकिन यहां तो उल्टा ही हुआ , अरसकराज क्यों और कैसे जीत गया ?

" इन्द्र ने कहा , " रापस्वी ! देवता तो पुरुषार्थी की ही सहायता करते हैं ।

इस युद्ध में अस्तकराज ने जैसा संयम , धैर्य , साहस , उत्साह और पुरुषार्थ - पराक्रम दिखाया , इससे देवता उसके अनुकूल हो गए ।

जिस समय मैंने भविष्यवाणी की थी , उस समय मुझे विश्वास था कि कलिंगराज युद्ध में पहले जैसा ही पौरुष दिखाएगा ,

किन्तु अपनी जीत से आश्वस्त होकर वह निश्चिंत हो बैठ गया ।

जबकि अस्सकराज ने युद्ध में अद्वितीय पौरुष दिखाया ।

देवता लोग आरम्भ में उसकी विजय नहीं चाहते थे , लेकिन बाद में उसका पौरुष - पराक्रम देखकर वे मुग्ध हो गए ।

उन्होंने ऐसे पुरुष का अनिष्ट करने का विचार त्याग दिया और उसका प्रयत्न सफल हो गया । " इन्द्र यह कहकर चले गए ।

अस्सकराज विजय - दुंदुभी बजाता हुआ महल में आया ।

नन्दिोन के कहने से उसने दूसरे दिन कलिंगराज को यह संदेश भेजा कि मैं तुम्हारी कन्याओं से विवाह कर रहा हूं ,

उसके लिए शीघ्र सम्मानपूर्वक कन्यादान भेजो , अन्यथा में सेना सहित उसे स्वयं लेने आऊंगा ।

कलिंगराज की शक्ति भिन्न - भिन्न हो चुकी थी ।

अब उसमें अस्सकराज की किसी बात को ठुकराने का साहस नहीं था ।

अरसकराज को सन्तुष्ट करने के लिए उसे दहेज के रूप में काफी धन देना पड़ा ।

भविष्य में उसने फिर कभी किसी से झगड़ा मोल लेने का दुस्साहस नहीं किया ।

किसी ने सच ही कहा है कि जो अपनी सफलताओं के मद में चूर होकर उस सफलता को कायम रखने के लिए उद्यम करना छोड़ देता है ,

उसका अभिमान कलिंगराज की भांति ही चूर - चूर हो जाता है ।