स्वार्थ का दण्ड

वागमन के चक्र को बौद्ध धर्म में सबसे अधिक मान्यता दी गई है ।

प्राणी मरता आहै , फिर जन्म लेता है , फिर मरता है , इस प्रकार से यह आवामगन का चक्र चलता रहता है ।

इसी पर आधारित वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त के राज्यकाल में बोधिसत्व ने हिमाचल के जंगलों में हाथी के रूप में जन्म लिया ।

हाथी का यह बच्चा दूध की भांति सफेद था ।

ऐसा बच्चा तो आज तक हाथियों कुल में पैदा ही नहीं हुआ था ।

समय गुजरता गया और धीरे धीरे वह बच्चा बड़ा होने लगा ।

जैसे जैसे वह बड़ा होता गया , वैसे - वैसे उसे बहुत सी बातों की समझ आती गई ।

उसे अपने साथियों की बहुत सी आदतें पसन्द नहीं थी .

उनके द्वारा किए जाने वाले कुछ कार्य ऐसे थे , जिनसे वह घृणा करता था ।

मसलन पेड़ हिलाकर पक्षियों के घोंसले गिरा देना ।

नन्हे नन्हे जीवों को पैरों तले कुचल देना या सूंड में लपेटकर उछाल देना ।

एक दिन उसका मन बहुत अशांत हो गया तो उसने इन सबसे अलग रहने का निर्णय कर लिया ।

जंगल के दूसरे जानवरों के साथ उसका बहुत प्यार हो गया था ।

वह किसी भी जानवर को कुछ न कहता ।

सबसे मिल - जुलकर रहता था ।

उसका यह व्यवहार देखकर जंगल के दूसरे जानवर बहुत खुश भी थे और हैरान भी ।

उन्होंने आज तक ऐसा हाथी नहीं देखा था — जो छोटे जानवरों के दुख - सुख का साथी हो ।

एक दिन वह सफेद हाथी जंगल में जा रहा था उसने एक कमजोर से बन्दर को वृक्ष पर बैठे रोते देखा ।

" अरे भैया —तुम अकेले बैठे रो क्यों रहे हो ? "

" मैया ! मैं आपको क्या बताऊं ... मेरे दूसरे साथी मुझे कमजोर देखकर बहुत तंग करते हैं ।

अब मैं रोने के सिवा कर भी क्या सकता हूं ?

" " यह तो बहुत दुख की बात है ..... वे लोग अपने ही कमजोर भाई का मजाक उड़ाते हैं , उसे तंग करते हैं , उन्हें ऐसा तो नहीं करना चाहिए ।

चलो , तुम मेरे साथ चलो , आज

मैं उन लोगों से बात करूंगा ।

यह कहां की भलमनसाहत है कि कोई किसी छोटे और निर्बल जीव को सताए में समझाऊंगा उन्हें ।

" इतना कहकर हाथी ने उसे अपनी पीठ पर बैठा लिया और उसे उसके साथियों के पास ले गया ।

बन्दरों के साथ - साथ जंगल के दूसरे जानवर भी एक कमजोर और दुर्बल बन्दर को हाथी पर बैठे देखकर हैरान हो रहे थे ।

जब हाथी बन्दरों की बस्ती में आया तो सभी बन्दरों ने उठकर स्वागत किया और बार - बार गजराज को प्रणाम करने लगे ।

" कहो गजराज ! आज हम गरीबों की नगरी में कैसे आने का कष्ट किया ?

" बन्दरों के सरदार ने हाथी का स्वागत करने के पश्चात पूछा ।

“ भाइयो ! मैं तुम्हारे ही एक साथी को लेकर एक प्रार्थना करने आया हूं और मुझे उम्मीद है कि आप लोग मेरी प्रार्थना अवश्य ही स्वीकार करेंगे । "

" आप और हमसे प्रार्थना ?

महाराज आप तो हमारे रक्षक हैं ... आप तो गजराज हैं ... प्रार्थना करने जैसी बात कहकर आप क्यों हमें शर्मिन्दा कर रहे हैं ।

आप आदेश दें कि हमें क्या करना होगा । " " देखो भाइयो !

यह बन्दर जो मेरी पीठ पर बैठा है- यह तुम्हारी ही जाति का है तुम्हारा हो भाई है ।

अपने ही एक कमजोर भाई से आप लोग नफरत क्यों करते हो ?

क्या इसीलिए कि यह तुमसे कमजोर है तुम लोगों को ऐसा करते हुए शर्म आनी चाहिए ।

" हाथी की बात सुनकर सभी बन्दर खामोश रहे । वे भला कहते भी तो क्या ?

“ तुम यह क्यों नहीं सोचते कि हर प्राणी किसी दूसरे प्राणी से कमजोर होता है ।

कमजोरी तो प्राकृतिक बात है ... यह तो ईश्वर की इच्छा है कि वह किसे कैसा बनाता है . यदि उसने हमें शक्ति सम्पन्न किया है ,

तो इसका अर्थ यह नहीं कि हम किसी दुर्बल को सताएं - मत भूलो कि एक से बढ़कर एक शक्तिशाली इस दुनिया में मौजूद है ।

" हाथी की बात सुनकर सभी शर्मिन्दा हो उठे ।

कुछ पलों तक वहां चुप्पी छाई रही , फिर एकाएक ही बन्दरों का सरदार बोला आप ठीक कहते हैं ,

गजराज , इन बन्दरों ने अपने साथी के साथ जो बर्ताव किया है , उसके लिए इन्हें दण्ड दिया जाना चाहिए । "

" देखो बन्धु ! बात दण्ड की नहीं है ।

बात है समझ और सूझबूझ की मैं तुम्हें एक कथा सुनाता हूं जिससे तुम्हें ठीक - ठीक प्राणी के चरित्र की समझ आएगी । "

" ठीक है गजराज - सुनाइए । " हाथी कुछ देर के लिए शांत हो गया ।

उसने उस बन्दर को अपनी पीठ से उतार कर उनके साथ बैठने के लिए कहा ।

सब बन्दर शांत होकर बैठे उस सफेद हाथी की ओर देखने लगे , जो उन्हें कहानी सुनाने जा रहा था ।

हाथी ने उन सभी को संबोधित करते हुए कहानी आरम्भ की— “ भाइयो ! एक बार

कोई यात्री जंगल में अकेला जा रहा था ।

जंगल इतना घना था कि रास्ता भी दिखाई नहीं देता था जिसके कारण वह रास्ता भूल गया ।

अब तो बेचारा और भी चिन्तित हुआ— डर के मारे उसका बुरा हाल हो रहा था ।

हल्के अन्धेरे में उसने एक हाथी को अपनी ओर आते हुए देखा ।

हाथी को देखकर वह अत्यधिक भयभीत हो उठा और सोचने लगा कि हे प्रभु , क्या करूं ?

यह भयानक हाथी तो पल भर में ही मेरा काम तमाम कर देगा इससे बचाओ प्रभु मन ही मन में बड़बड़ाता वह एक ओर को भाग लिया ।

वह भागता जाता और ईश्वर से रक्षा की गुहार करता जाता ।

काफी समय तक वह जिथर रास्ता मिला , उधर ही भागता रहा ।

भागते - भागते उसकी सांस फूल गई । चेहरा सुर्ख हो गया ।

कदम लड़खड़ाने लगे तो इस आशा से उसने पीछे मुड़कर देखा कि शायद हाथी से पीछा छूट गया है ,

किन्तु यह देखकर तो उसकी सांस ही हलक में अटक गई कि वह हाथी उससे कुछ ही दूरी पर खड़ा उसे तक रहा था ।

तभी हाथी बोल पड़ा - " अरे भाई ! तुम इस जंगल में परदेसी हो ... मैंने तुम्हे चिन्तित और उदास देखा तो पूछने चला आया था कि मैं तुम्हारे किसी काम आ सकता हूं ।

मगर तुम हो कि मुझरो भयभीत होकर भागे ही जा रहे हो ।

अरे भाई , बिना कारण के किसी से डरना नहीं चाहिए ।

" इस बार तो उस यात्री की आंखें हैरानी से फट पड़ी ।

अपने कानों पर उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वह किसी हाथी की आवाज सुन रहा है या कोई बी आवाज ।

" मुझे बताओ भाई ! आखिर बात क्या है इतने परेशान क्यों हो तुम ? "

" भैया गजराज मैं वाराणसी जा रहा था— मगर इस जंगल में आकर रास्ता भूल गया — इसी कारण चिन्तित और परेशान हूं ।

" " चिन्ता की कोई बात नहीं मित्र - तुम मेरे घर चलो वहां पर तुम्हें कोई कष्ट नहीं होगा ।

मेरे घर विश्राम करके अपने आपको व्यवस्थित करो , फिर मैं तुम्हें इस जंगल से निकलने की राह भी सुझा दूंगा ।

" हाथी उसको अपनी गुफा में ले गया और उसे बड़े आराम से बैठा कर खुद उसके खाने के लिए फल लेने चला गया ।

यात्री ने जंगल के ताजा और स्वादिष्ट फल खाए तो उसकी सारी थकावट दूर हो गई ।

वह शांति से गुफा में सो गया ।

सुबह उसके उठने से पहले ही हाथी ने उसके नाश्ते का प्रबन्ध कर दिया ।

यात्री उठते ही यह सब देखकर हैरान रह गया ।

ऐसा जानवर तो उसने अपने जीवन में पहली बार ही देखा था ।

" मित्र तुम नाश्ता कर लो फिर मैं तुम्हें अपनी पीठ पर बैठाकर वाराणसी तक छोड़ आऊंगा । "

" आप तो बहुत दयालु हैं गजराज -- मुझे तो आज तक यही बताया गया था कि

था कि वह हाथी उसकी सहायता अवश्य करेगा ।

गरीबदास एक बार फिर उसी जंगल में पहुंच गया ।

हाथी को ढूंढने में उसे कोई देर न लगी ।

हाथी भी उसके जल्दी आने पर समझ गया था कि इसे अवश्य ही कोई काम आ पड़ा होगा ।

" प्रणाम गजराज जी । "

उसने दोनों हाथ जोड़कर हाथी को प्रणाम किया । " प्रणाम मित्र कहो , कैसे आना हुआ ? "

" भैया ! तुम

तो जानते ही हो कि मेरा नाम गरीबदास है । " " हां हां मुझे पता है । "

" बस मेरा नाम ही गरीबदास नहीं है , काम भी गरीब जेब से गरीब , घर से भी गरीब ... अब इस हालत में तो जीना भी कठिन हो गया है ।

" “ अब तुम मुझसे क्या चाहते हो गरीबदास ? "

" यही कि यदि तुम मुझे अपना एक दांत दे दो तो मैं उसे बेचकर कोई पंचा कर लूं ताकि अपने बीवी - बच्चों का पेट तो पाल सकूं । "

“ यदि तुम अपने बीवी बच्चों का पेट पालने के लिए मेरा दांत लेने आए हो तो मैं दोनों दांत देने को तैयार हूं — किन्तु यह दांत तुम्हें काटने पड़ेंगे । "

" काटने के लिए तो मैं आरी साथ ही लाया हूं गजराज ... बस तुम मेरी यह गरीबी दूर कर दो ... भगवान तुम्हें लम्बी आयु दे । "

हाथी बेचारा धरती पर बैठ गया और गरीबदास ने उसके आगे वाले दोनों दांत आरी से काट लिए ।

वह दिल ही दिल में खुश हो रहा था कि अब उसके गरीबी के दिन लद गए ।

अब वह भी अमीर बन जाएगा । उसकी गिनती भी शहर के खाते - पीते

लोगों में होगी ।

" अच्छा मित्र ! मैं तुम्हारा एक बार फिर धन्यवाद करता हूं । "

" देखो मित्र , एक बात मत भूलना कि मेरे यह दांत ज्ञान और विवेक का स्त्रोत हैं— मैंने अपने जीवन का सबसे विशेष भाग तुम्हें मित्र समझकर दिया है । "

' ' हां हां — भैया ! मैं जानता हूं आप बहुत दयालु हैं — आप जैसा सच्चा मित्र इस संसार में और कहीं नहीं मिलेगा ।

" फिर गरीबदास यह कहता हुआ वहां से विदा लेकर चल दिया ।

वहां से वह सीधा हाथी दांत का सामान बनाने वाली दुकान पर पहुंचा और दुकान मालिक के पास गया ... जिससे उसने बात की थी ।

" लो भाई जीवित हाथी का दांत । " दो दांत उसके सामने रखकर वह बोला ।

उसने हाथी दांत को बड़े ध्यान से देखा फिर गरीबदास के मैले कुचैले कपड़ों को देखा ।

उसकी समझ नहीं आ रहा था कि इस आदमी के पास जीवित हाथी के दांत कहां से आ गए ।

दांतों को एक नजर में वह परख चुका था । दांत भी असली थे ।

उसे इस प्रकार खामोश देखकर गरीबदास ने पूछा " क्यों सेठ - क्या यह दांत असली नहीं ? "

" असली ही हैं । " " तो फिर लाओ , धन दो , ताकि हम अपनी राह पकड़ें ।

हम तो तुम्हारे लिए यह हाथी दांत बड़े परिश्रम से लाए हैं ।

हमें जल्दी पैसा दो । "

दुकानदार ने उसे पचास खोने की मोहरें निकालकर दे दीं ।

सोने की पचास मोहरें देखकर तो गरीबदास के हाथ कांपने लगे ।

उसकी ख़ुशी का पारावार न रहा ।

उसे ऐसा लग रहा था , मानो वह कोई स्वप्न देख रहा हो ।

कुछ देर उसकी यही स्थिति रही , फिर अपने आपसे ही वह बोला — ' गरीबदास ! अब तू गरीबदास नहीं रहा — अमीर चंद हो गया है ! "

पचास मोहरें संभालकर रखने के लिए वह काफी चिंतित दिखाई दे रहा था ।

किसी ने ठीक कहा है - गरीब इकट्ठे पैसे को देखकर अपने होश खो बैठता है ।

यही हाल गरीबदास का था ।

ख़ुशी से फूला नहीं समा रहा था वह ।

लेकिन धन की सुरक्षा को लेकर चिंतित भी हो उठा था ।

जैसे - तैसे वह घर पहुंचा और खुशी से कांपती आवाज में अपनी पत्नी से बोला- अब हम अमीर हो गए , भागवान ।

अमीर हो गए हम ।

देखो , सोने की यह मोहरें जो केवल सेठ लोगों के पास ही होती हैं ... आज हमारे पास भी आ गई हैं ।

चलो , आज बाजार चलकर खूब खाते - पीते हैं ।

आज तो जमकर खरीददारी करेंगे ।

" उसी समय गरीबदास अपनी पत्नी को साथ ले बाजार की ओर चल दिया ।

जिन मिष्टान्न भण्डारों की दुकानों को वह बाहर से देखकर ठण्डी आहें भरा करता था उन्हीं दुकानों पर वह जी भर कर खाने - पीने लगा । सारी इच्छाएं वह उसी दिन पूरी

करना चाहता था ।

खाने - पीने के पश्चात उसने सारे घर वालों के लिए बढ़िया से बढ़िया वस्त्र खरीदे ।

घर को सजाने के लिए बहुत सा सामान भी खरीद लिया था ।

गरीबदास की दुनिया ही बदल गई ।

दूसरे दिन ।

वह एक घोड़े पर सवार होकर अपने पुराने दोस्तों से मिलने के लिए निकला ।

शहर में उसके जितने भी जानने वाले थे सबके सब उसे हैरानी से देख रहे थे ।

जिधर देखो उधर गरीबदास की चर्चा थी ।

" अरे यार ! इस पागल के पास धन कहां से आ गया ? "

" लगता है कोई गड़ा खजाना मिल गया है इसे ।

" जितने मुंह उतनी ही बातें सुनने को मिल रही थी ।

भी

गरीबदास ने अपने सारे दोस्तों को बुलाकर उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार ही खिलाया पिलाया ।

मौज - मस्ती के दिन बड़ी जल्दी बीत जाते हैं ।

जब इन्सान के पास धन होता है तो उनका समय हंसी - खुशी से व्यतीत होता है ।

उस समय तो उसके शत्रु मित्र बन जाते हैं ।

किन्तु जब धन पास न हो तो मित्र भी शत्रु बनने लगते हैं ।

गरीबदास अपने मित्रों को दिल खोलकर खिला - पिला रहा था तभी तो उसके मित्रों की संख्या निरन्तर बढ़ रही थी ।

बेकार बैठ कर खाते रहने से तो कुंए भी खाली हो जाते हैं ।

यही हाल हुआ उस गरीबदास का ।

कुछ ही दिनों में उसने सारा धन उड़ा डाला ।

जब उसके पास धन न रहा तो वह बहुत चिन्तित हो गया ।

धन के बिना तो वह एक पल भी नहीं रह सकता आखिर मित्रों को क्या उत्तर देगा ।

एक बार उसे फिर अपनी गरीबी याद आ गई , इस गरीबी के सबब ही उसे हाथी याद आ गया— जिसके मुंह में अभी आधे - आधे दांत बाकी थे ।

हाथी का ख्याल आते ही गरीबदास की आंखें चमकने लगीं ।

उसने सोचा- ' अभी तो मैंने हाथी के आधे - आधे दांत ही काटे थे ।

क्यों न बचे हुए आधे दांत भी उस हाथी से मांग लिए जाएं ।

' यही सोचकर दूसरे दिन सुबह ही वह जंगल की ओर चल दिया ।

हाथी ने दूर से अपने मित्र को आते देख लिया था ।

करीब आने पर उसने अपने मित्र का स्वागत किया ।

फिर पूछा- " कहो मित्र ! कैसे हो ? "

" मैया गजराज मैं फिर आपके पास आ गया हूं । "

" तुम्हारा अपना घर है ... भाई ।

रोज आओ ... बोलो कोई कष्ट तो नहीं ? "

" भैया ! अब किस मुंह से आपको बताऊं कि आपके दांतों से मेरे पिछले सारे कर्ज तो उतर गए किन्तु अब मुझे नया कारोबार करने के लिए कुछ धन चाहिए । "

" गरीबदास ! तुम्हें चिन्ता करने की क्या जरूरत है — तुम यदि मेरे प्राण लेकर सुखी हो सकते हो तो मैं वह भी दे सकता हूं ...

मैंने तुम्हें अपना मित्र कहा है तो फिर मित्र की सहायता करने में संकोच कैसा ।

" ‘ बन गया काम । ' दिल ही दिल में गरीबदास बोला और झट से अपनी आरी उठा हाथी के बचे हुए दांत काटने लगा ।

हाथी अपनी दोस्ती के नाम पर अपनी शोभा ... अपने दांत दे रहा था और उसका दोस्त केवल अपनी मौज - मस्ती के लिए उसका जीवन नष्ट कर रहा था ।

उसने यह नहीं सोचा कि जिस बेचारे जानवर के मैं दांत निकाल रहा हूं — उसके जीवन का क्या होगा ?

स्वार्थी मनुष्य ने अपने सुख के लिए उस जानवर की शान ही छीन ली ।

हाथी ने तो मित्रता के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया था और उस इन्सान ने ... वह तो हाथी दांत के लिए खुशी से नाचता चला जा रहा था ।

इतने हाथी दांत से वह बहुत बड़ा धनी बन जाएगा ।

अब वह रहने के लिए सेठों वाली हवेली लेगा , घर में नौकर रखेगा ।

वह अपना नाम भी गरीबदास से अमीरदास कर लेगा ।

उस साले जानवर का क्या है इसे तो जंगल में ही रहना है , अब उसके पास कोई दांत नहीं बचा ।

उसकी और मेरी मित्रता आज से समाप्त हो गई ।

भूखे नंगे से मित्रता करने से लाभ ही क्या है ।

अमीर .. ... आज से वह अमीर बन जाएगा ।

जंगल में वह तेजी से भागा जा रहा था , अचानक एक स्थान पर पांव रखते ही वहां से धरती फट गई ।

गरीबदास का पांव वहीं पर फंसा रह गया ।

फिर उसी स्थान से निकली भयंकर आग , जिससे बचने के लिए उसने बहुत जोर लगाया ।

परन्तु उसके पांव तो धरती के अन्दर धंस कर रह गए । धीरे - धीरे आग ने उसको भी जला दिया ।

हाथी दांत भी जल गया ।

तभी आकाश से आवाज आई- " पापी , लालची , स्वार्थी इन्सान को कभी सन्तोष नहीं होता , यदि उसे दुनिया भी दे दो तो भी उसका मन शान्त नहीं होगा ।

" इस प्रकार उस स्वार्थी और लालची इंसान को अपनी करनी का फल मिल गया ।