चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए

सुल्तान के दरबार में सबसे बड़ा खजांची था— कोशिया ।

वह अपना सारा काम बड़ी मेहनत और ईमानदारी से करता था ।

सबके सब उसके व्यवहार से बहुत खुश उसने कभी भी किसी गरीब को तंग नहीं किया था ।

किसी का पैसा नहीं रखा था । बादशाह का भी वह बड़ा विश्वासपात्र था ।

कुल मिलाकर वह एक नेक इंसान था ।

किन्तु कोशिया में लाख अच्छाई के बावजूद एक कमी थी – एक कमजोरी थी ।

कोशिया की सबसे बड़ी कमजोरी यह थी उसका आवश्यकता से अधिक कंजूस होना ।

एक दिन ।

कोशिया शाम को घर आया तो वह बहुत ही उदास था ।

उसने घर आकर अपनी पत्नी से भी कुछ नहीं कहा और सीधा ही अपने पलंग पर जाकर लेट गया ।

" अरे ... आपको क्या हुआ ? आपकी तबीयत तो ठीक है न ... ?

" पत्नी ने अपने पति को इस तरह उदास लेटे देखकर पूछा ।

" सब कुछ ठीक ही है । "

" फिर आप इस प्रकार उदास क्यों हैं आते ही बिस्तर पर लेट गए ।

क्या दरबार में किसी से झगड़ा हुआ है ? "

" नहीं तो । ”

" फिर क्या मैं इस उदासी का कारण जान सकती हूं ? " " प्रिय

! तुम क्या करोगी यह सब जानकर अच्छा तो यही है कि तुम कुछ भी न जानो ।

बस , मुझे ऐसे ही पड़ा रहने दो । " " प्राणनाथ ! यह कैसे हो सकता है ।

मैं संसार - भर के दुख सहन कर सकती हूं . किन्तु आपकी उदासी नहीं ।

आप स्वयं ही सोचो कि कोई औरत अपने पति को उदास देख सकती है । "

" प्रिय राधा ! अब मैं तुम्हें क्या बताऊं कि मैं जब रास्ते में आ रहा था तो बाजार

में हलवाई की दुकान पर कुछ लोग मजे से पूड़े खा रहे थे । "

" तो आप खा लेते । " " खाता कैसे ? "

" क्यों ... खाने में क्या परेशानी थी ? "

" उसे पैसे भी तो देने पड़ते । "

" आप राजा के खजांची हैं ।

भला आपके पास कोई धन की कमी है ,

आप जो चाहें खा सकते हैं । "

" मगर इतने रुपये मैं एकदम से कैसे खर्च कर सकता हूं , राजा जी का खजांची होने का मतलब यह तो नहीं कि मैं धन को उड़ाता रहूं । "

" यदि ऐसी बात है तो मैं आपको अपने हाथों से घर पर ही पूड़े बनाकर खिला देती हूं ।

मेरे हाथों के गर्म - गर्म बने पूड़े खाओगे तो उंगलियां चाटते रह जाओगे । "

" राधा , क्या तुम पूड़े बना सकती हो ? " " हां ... हां ... क्यों नहीं । देखो , आज मैं पूड़े बनाती हूं ,

इनमें से कुछ पड़े पड़ोसियों के घर भी भेज देंगे , कितने खुश होंगे वे । " " नहीं ... नहीं ... राधा , मेरे घर का नुकसान मत करो ... यह पूड़े बांटने के लिए थोड़े

होते हैं । "

" अच्छा , पड़ोसियों को नहीं देंगे , बस मैं बच्चों के लिए और अपने दोनों के लिए बना लेती हूं । "

" नहीं ... नहीं , इन पर भी अधिक खर्च होगा , फिर तुम यह बात तो भली - भांति जानती ही हो कि आजकल बच्चों को यदि अधिक खाने को देते रहो तो उनकी आदतें बिगड़ जाती हैं ।

पेट भी खराब हो जाता है ।

" पत्नी अपने कंजूस पति की आदतों को अच्छी तरह जानती थी ।

उसकी इन आदतों की वजह से ही उसके विषय में लोग कहते थे — ' चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए । '

" अरी ! भागवान तू क्या सोच रही है ? " " कुछ नहीं , कुछ नहीं ।

मैं तो केवल यही सोच रही थी कि आज मैं आपके लिए बढ़िया पूड़े बनाती हूं , हम दोनों आराम से बैठकर खायेंगे । "

" मगर ... भाग्यवान ...। " वह कुछ कहते - कहते रुक गया ।

" कहो कहो ... रुक क्यों गए ? " " बात यह है कि मैं सोच रहा हूँ ? " " क्या सोच रहे हैं आप ? "

" यही कि पूड़े खाने को मेरा ही ती मन कर रहा है । "

" हां ... " " तो फिर तुम क्यों खाओगी — मेरा मतलब है , केवल मेरा मन जिस चीज को करे , वह मुझे ही खानी चाहिए ।

बेकार में तुम भी खाने बैठ जाओ , तो इससे तो घर का ही नुकसान होगा ...।

" पत्नी बेचारी अपने पति की भावना समझ गई थी ।

उसे सब पता था , फिर भी उसने अपने मन पर पत्थर रख लिया और हंसकर बोली- " कोई बात नहीं - मैं आपके लिए ही पूड़े बना देती हूं । "

" रसोई में यदि पूड़े बनाओगी तो पड़ोसियों को उनकी गंध पहुंच जाएगी इससे वे समझ जायेंगे कि हमारे घर में पूड़े बन रहे हैं , बस चले आएंगे मांगने " " तो फिर ... ?

" राधा सोच में पड़ गई । " मेरे विचार में तो हम ऊपर छत पर चलते हैं ।

खुली हवा में ... वहां हमें कोई नहीं देखेगा ।

तुम पूड़े बनाती जाना और मैं गर्म - गर्म खाता रहूंगा ।

पत्नी ने अपने पति की बात सुन तो ली किन्तु उसका मन बुझ सा गया , इतना सारा सामान छत पर ले जाने में कितना समय लगेगा ।

फिर लेकर आना , उफ ! यह सब क्या मुसीबत है किन्तु वह करे भी तो क्या ?

पतिव्रता धर्म तो उसे निभाना ही पड़ेगा , यह सब कष्ट तो सहना ही पड़ेगा , पति की खुशी के लिए उसे त्याग करना होगा , पति भगवान है ।

यदि भगवान खुश हो गया , तो सारा संसार खुश हो गया ।

यही सोचकर राधा , पूड़े बनाने का सारा सामान छत पर ले जाने लगी ।

कुछ ही क्षणों में उसने सारा सामान छत पर पहुंचा दिया और आटे को पानी में धोलकर , गुड़ के टुकड़ों को तोड़कर पानी में डाला और चूल्हा जलाने लगी ।

पति पास ही चारपाई पर बैठा था ।

थोड़ी देर में पूड़े बनकर तैयार हो गए ।

कोशिया गर्म - गर्म पूड़ों को देखकर बहुत खुश हो रहा था ।

कितने लम्बे समय से वह इन पूड़ों को खाने की बात सोच रहा था , किन्तु डर जाता था कि उस पर धन खर्च होता है ,

मगर आज हिम्मत करके उसने पूड़े बनवा ही लिए ।

आहा ... कैसी सुगन्ध आ रही है । " भीनी - भीनी सुगन्ध से उसका दिमाग तर हो रहा था ।

वह चारपाई से उठकर आलथी - पालथी मारकर अपनी पत्नी के पास बैठ गया ।

अभी उसने थाली में पूड़े डाले ही थे कि दूर गली में एक बौद्ध भिक्षु उसे अपने घर की ओर आता दिखाई दिया ।

" भाग्यवान गजब हो गया , हम तो मारे गए । " " क्या हो गया स्वामी ? आप घबरा क्यों गए हैं ? "

" वो देखो , भिक्षुक आ रहा है । यह मांगने वाले भी तो पीछा नहीं छोड़ते । ”

" दान देने से धन नहीं घटता । जैसे नदी में जल कम नहीं होता । " राधा ने अपने

पति से कहा ।

“ यह जल और धन का भला क्या मेल ?

धन तो कमाया जाता है , जल पहाड़ों से बहकर आता है ।

अब तुम देखो कि मैं इसे कुछ नहीं देने वाला , यह पूढ़े तो मैंने अपने लिए बनवाए हैं न कि इस भिखारी के लिए । "

" बौद्ध भिक्षु चुपचाप नीचे खड़ा उन दोनों की ओर देखता रहा , वह मुंह से कुछ नहीं बोला । " अरे , यह गूंगा है क्या ?

" उसे खामोश खड़े देखकर उसने पूछा ।। " गूंगा नहीं है ।

यह बौद्ध भिक्षु है । मुंह से यह कुछ नहीं बोलेगा ।

यदि आप इसे कुछ दे देंगे तो अपने आप ही चला जाएगा । "

" ठीक है , तुम एक काम करो । "

" क्या ? "

" इसके लिए एक छोटा - सा पूड़ा बना दो ।

इससे सांप भी मर जाएगा और लाठी भी न टूटेगी ।

इसे शीघ्र ही कुछ देकर यहां से भगा दो नहीं तो इसे देखकर दूसरे भिखारी भी आ जाएंगे । "

" अच्छा , में अभी बनाती हूँ एक छोटा सा पूड़ा । " इतना कहते हुए राधा ने छोटा - सा पूड़ा बनाने के लिए आटा निकाला और उसे तवे पर डालने लगी ।

" हाय - यह तो पहले पूड़ों से भी बड़ा बन गया है । " राधा ने आश्चर्य से उस पूड़े की ओर देखा जो बहुत फैलता जा रहा था ।

" इसे आप ले ही लीजिए । इस भिक्षु के लिए मैं और बनाती हूं ।

" राधा ने वह पूड़ा अपने पति को दे दिया । अबकी बार उसने नये पूड़े के लिए आटे की मात्रा बहुत कम कर दी थी ।

वह बौद्ध भिक्षु बड़े धैर्य से खड़ा था । वह कुछ भी तो नहीं बोल रहा था ।

अब की बार भी पूड़ा पहले से बड़ा बन गया था । " यह क्या हो रहा है ?

में जितना भी इसे कम कर रही हूं , उतना ही यह बढ़ता जाता है ।

मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है । " चिंतित सी हो गई थी राधा ।

फिर उसने सामने खड़े इस बौद्ध भिक्षु की ओर देखा , जो मौन खड़ा था ।

शायद , अपने हिस्से के पूड़े की प्रतीक्षा कर रहा था । " यह क्या राधा ! तुमने तो यह पूड़ा पहले से भी बड़ा बना दिया है ।

मैंने तो तुम्हें कहा था कि इसे छोटा - सा पूड़ा देकर भगा दो ।

भिखारियों के अधिक मुंह लगना उचित नहीं होता । "

" मैं क्या कर सकती हूं , स्वामी ।

मैं तो अपनी ओर से छोटे - से - छोटा पूड़ा बनाने का प्रयत्न कर रही हूं ,

किन्तु पूड़ा तो अपने आप ही बड़ा होता जा रहा है । "

" ठीक है , तुम इस पूड़े को भी रख लो , इसके लिए एक और छोटा - सा पूड़ा बना दो देखना अब की बार यह बड़ा न बने । "

" अच्छा । " राधा दूसरा पूड़ा बनाने लगी । अब की बार उसने आटे की मात्रा और भी कम कर दी थी ।

उसने सामने खड़े भिक्षु की ओर देखा , जो मुंह से कुछ भी नहीं बोल रहा था और न ही किसी की ओर देख रहा था ।

ऐसा प्रतीत होता था जैसे वह भक्ति में लीन हो गया हो ।

इस बार भी वही हुआ । पूड़ा पहले से भी बड़ा हो गया ।

कोशिया ने अपनी पत्नी की ओर क्रोध से देखा और बोला- " यह तुम क्या कर रही हो ?

मैं तुम्हें छोटा सा पृड़ ।

बनाने के लिए कह रहा हूं किन्तु तुम हो कि हर बार पहले से बड़ा बनाती जा रही हो । "

" में क्या करूं ! यह सब मेरे बस की बात नहीं है ।

जो कुछ हो रहा है , वह सव अपने आप हो रहा है ! "

“ मुझे तो लगता है कि तुम छोटा पूड़ा बनाने की चेष्टा ही नहीं कर रही हो ।

भला यह भी कोई बात हुई कि तुम छोटा पूड़ा बनाओ , वह अपने आप ही बड़ा बन जाए ।

" अब की बार कोशिया का गुस्सा और भी बढ़ गया था । "

" आप देख भी रहे हैं कि मैं इस पूड़े के लिए कम - से - कम आटा डालती हूं मगर पूड़ा है कि अपने आप ही बढ़ता जा रहा है ।

मुझे तो ऐसे लग रहा है जैसे यह कोई जादू हो रहा हो , वरना आज तक मेरे हाथ से कभी भी ऐसा नहीं हुआ । "

" ठीक है । तुम अब इसे नीचे पड़े पूड़ों में से ही उठाकर एक पूड़ा दे दो ताकि यह यहां से भाग जाए , और में शांति से पूड़े खा सकूं ।

क्या मुसीबत है इसी चीज से डरकर तो मैं नीचे से ऊपर आया था , मगर ऊपर भी इसने मुसीबत खड़ी कर दी । " " आप चिन्ता न करें ।

मैं इसे अभी भगा देती हूं । इसके जाने के पश्चात् तुम आराम से इन्हें खा लेना ।

" कहते हुए राधा ने पास पड़े पूड़ों में से एक पूड़ा उठाना चाहा . .. किन्तु ... उसके आश्चर्य की कोई सीमा न रही जब उसने यह देखा कि यह सारे पूड़े आपस में जुड़ गए हैं ।

16

“ देखो , प्राणनाथ , इन्हें देखो ! यह सबके सब आपस में जुड़ गए हैं ।

एक भी तो अलग नहीं हो रहा , क्या हो रहा है यह सब ! " राधा ने अपने पति से कहा ।

" लाओ , मैं इसमें से एक निकाल देता हूं , यह भिक्षु भी हमारे लिए मुसीबत बन गया है ।

कितने दिल से बनवाए थे मैंने यह पूड़े । न जाने कहां से यह मुसीबत बीच आ टपकी ।

" कोशिया ने एक बार फिर उस भिखारी को क्रोध और नफरत से देखा ।

अब की बार तो कोशिया की भी हैरानी की कोई सीमा न रही ; जब उसने यह

देखा कि यह सारे के सारे पूड़े आपस में जुड़ गए हैं । हजार कोशिश के बावजूद भी वे एक - दूसरे से अलग नहीं हुए ।

" भागवान , लगता है तुमने ठीक ही कहा था ।

यह जो कुछ हो रहा है , इसका एकमात्र कारण मुझे यह व्यक्ति लगता है ।

वास्तव में ही इस प्राणी ने हम सब पर कोई जादू कर दिया है ।

अब तो मैं इन पूड़ों को खाऊंगा ही नहीं । " " क्या कह रहें हैं आप ?

पूड़े नहीं खाएंगे । मैंने तो इतने मन से बनाए थे । " " राधा , तुमने जो कुछ किया वह मेरे लिए किया ।

किन्तु मुझे लगता है , यह सब मेरे भाग्य में नहीं है ।

अब तो इस विचित्र भिखारी को ही दान में यह सारे पूड़े दे देने चाहिए । मैं फिर कभी खा लूंगा । "

कुछ

" जैसी आपकी इच्छा । दान देने वाले को रोकने वाला महापापी होता है ।

इसलिए मैं आपको कुछ नहीं कहूंगी । "

" टीक है भागवान , लो , मैं इसे सारे पूड़े दे रहा हूं ।

मेरे स्थान पर बैठकर ही यह सब खा लेगा ।

" इतना कहकर कोशिया अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ और भिखारी से बोला ' महाराज ! अब आप शांति से बैठकर खा लीजिए , सब आपके भाग्य का ही है ।

" अबकी बार कोशिया की आवाज में क्रोध नहीं था बल्कि प्यार था ।

" नहीं बन्धु , मैं इन्हें खा नहीं सकता । ”

" क्यों ? "

" मैं बौद्ध भिक्षु हूं । मैं अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता ।

हम लोग तो त्यागी हैं , अपने - आपको भूल चुके हैं , अपने अन्दर के मोह को त्याग चुके हैं ।

हम अपने लिए कुछ नहीं चाहते । "

" तो फिर क्या चाहते हैं आप ? "

" बन्धु ! तुम एक लालची प्राणी हो । तुम मोह को त्याग कर जीना सीखो ।

जैसे हमारे महात्मा बुद्ध ने हमें सिखाया है ।

आपको यह सुनकर आश्चर्य होगा कि स्वयं महात्मा बुद्ध आपके शहर में अपने सैकड़ों चेलों के साथ पधारे हैं ।

" " क्या कहा ? " आश्चर्य के मारे कोशिया और उसकी पत्नी के चेहरे का रंग उड़ गया था ! उन्हें जैसे अपने आप पर विश्वास ही नहीं हो रहा था ।

वे दोनों फटी - फटी आंखों से उस भिखारी की ओर देख रहे थे ।

" मैं ठीक कह रहा हूं बन्धु , यह सब भोजन हमारे गुरु शांतिदूत महात्मा बुद्ध जी के शिष्यों के लिए है ।

इसे मैं अकेला कैसे खा सकता हूं ? "

“ उफ ! मेरे भगवान ! हमसे तो बहुत बड़ी भूल हो गई , हमने इस बौद्ध भिक्षु को नफरत से देखा ... यह तो महात्यागी है ,

तपस्वी है , यह तो महात्मा जी का संदेश लेकर आया था ।

हमसे तो अनजाने में बहुत बड़ा पाप हो गया है ... पाप ... पाप ... ! "

कोशिया अपना माथा पकड़कर रोने लगा ।

" पाप का प्रायश्चित करने से , मनुष्य पाप से मुक्त हो जाता है बन्धु , चिन्ता मत करो , आप भगवान बुद्ध के चरणों में जाकर सब संसार को भूल जाओगे । " “ हां ... हां ... महाराज , हम दोनों पति - पत्नी यह पूड़े लेकर स्वयं भगवान बुद्ध शरण में जाएंगे , तभी हमारे पापों का प्रायश्चित हो सकता है ।... हम तो पापी हैं . पापी ... हम यह भी न समझ सके कि भगवान का दूत हमारे घर आया है और हम उससे नफरत करते रहे । "

" आप मेरे साथ चलें । "

" हां ... हां ... मैं अपने सिर पर यह पूड़े उठाकर भगवान के पास ले जाऊंगा ।

वास्तव में असली पापी तो मैं हूं ... मुझे भगवान के चरणों में जाकर क्षमा मांगनी होगी ,

इसमें मेरी पत्नी बेगारी का कोई दोष नहीं यह तो केवल मेरे कहने पर ही चलती रही है ।

" इतना कहते हुए कोशिया ने पूड़ों का भरा हुआ बर्तन अपने सिर पर रख लिया और अपनी पत्नी का हाथ पकड़कर उस भिक्षु के पीछे पीछे चलने लगे ।

कोशिया चलते चलते यही सोच रहा था कि यह सब कैसे हो गया ?

उसने अपने जीवन में सदा धन से ही प्यार किया था ।

धन के सिवाय कभी कुछ नहीं चाहा था ।

आज इस चमत्कारी भिक्षु ने आकर उसका सब कुछ बदल दिया है ।

वे चलते - चलते घने जंगल में पहुंच गए थे ।

सामने ही एक ऊंचे चबूतरे पर स्वयं भगवान बुद्ध आंखें बन्द किए साधना में लीन थे , उनकी आंखें बन्द थीं , हाथ में माला थी , उस समय वे शांति और प्रेम की मूर्ति नजर आ रहे थे ।

कोशिया उनके चरणों में गिर गया ।

डर के मारे उसकी आवाज कांप रही थी , जैसे प्रभु 1 मै तो बहुत अनजाने में उससे बहुत बड़ा अपराध हो गया हो " मुझे क्षमा कर दो बड़ा पापी हूं ।

मैंने आज तक कोई अच्छा काम नहीं किया ।

मैं धन का पुजारी हूं ।

भगवान के नाम पर कुछ भी तो दान नहीं कर सका , यहां तक कि मैंने अपने बीवी , बच्चों को भी अच्छा खाने नहीं दिया ।

" । किन्तु " कोशिया ! एक बात याद रखो , यह मनुष्य सदा से भूल करता आया को जब उसे ठोकर लगती है तो वह अपने किए पर पश्चाताप करता है ।

अपनी भूल महसूस करना उसकी महानता होती है । " " तो क्या आपने मुझे क्षमा कर दिया , भगवान् ।

" कोशिया ने खुश होकर पूछा ।

" जब इन्सान गलती महसूस करता है तो उसकी आत्मा में ज्ञान का प्रकाश पैदा होता है ,

यह ज्ञान उसे महान बनाता है । कोशिया उठो , इस ज्ञान के प्रकाश को दूर - दूर तक फैला दो , जैसे तुमने देखा कि हमारे एक भिक्षु ने जाकर तुम्हें नया मार्ग दिखाया ।

तुम्हें अंधेरे से निकालकर प्रकाश में खड़ा कर दिया , अब तुम अपने हाथों से इन सब

लोगों को यह पूड़े खिलाओ ।

यह सब कई दिन से भूखे हैं ।

" कोशिया अपने स्थान से उठा और पूड़े वाले बर्तन को देखा , फिर सामने बैठे भिक्षुओं की ओर नजर दौड़ाते हुए सोच में पड़ गया ।

यह सब तो हो नहीं सकेगा ।

" क्या सोच रहे हो कोशिया ?

" महात्मा बुद्ध ने कोशिया की ओर देखकर पूछा ।

" महाराज ! यह कैसा मजाक है , यहां सैकड़ों भक्त बैठे हैं और यह थोड़े से पूड़े , कौन इन्हें खाएगा ।

कितनों का पेट भरेगा इनसे नहीं महाराज , यह सब मुझसे नहीं हो सकेगा ।

मैं किसकी दूंगा और किसे छोडूंगा । "

" दिल छोटा न करो कोशिया ! श्रद्धा के आगे तो प्रभु स्वयं झुक जाते हैं ।

तुम इन्हें बांटना तो शुरू करो , जितने भी भूखे प्राणी इनसे अपना पेट भर लेंगे , वही ठीक होगा .... चलो ।

” कोशिया का मन बुझा हुआ था , उसे यह सब अच्छा नहीं लग रहा था ।

वह इन पूड़ों की तरफ देख रहा था , जो केवल एक ही आदमी की ही भूख मिटा सकते थे , मगर उनके सामने कितने ही भिक्षु बैठे थे ।

सबके सब उसकी ओर देख रहे थे , शायद वे सबके सब भूखे थे , मगर .... ' बांटो कोशिया बांटो देख क्या रहे हो .... हमारा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है ।

संकोच को मन से निकाल दो - ईश्वर पर भरोसा रखो ।

जिन लोगों को अपने प्रभु पर विश्वास होता है , उनकी हर इच्छा पूरी हो जाती है कोशिया ।

" भगवान बुद्ध ने अपना हाथ उठाकर उसे आशीर्वाद दिया ।

उनकी आंखों से एक विचित्र - सा प्रकाश निकला ।

कोशिया को ऐसा लगा जैसे उसके शरीर में कोई लहर जन्म ले रही है ।

उसका सारा शरीर बदल - सा रहा है ।

हजारों बौद्ध भिक्षुओं की नजरें उसकी ओर लगी हुई थीं ।

कोशिया ने अपनी पत्नी को आवाज दी और उसके कान में कहा- " यह तो हमारे लिए परीक्षा की घड़ी है ।

तुम एक - एक पूड़ा उठाकर इन सबको देती जाओ ।

जितने भी लोगों को मिल जाए , ठीक है ।

शेष से हम दोनों हाथ जोड़कर क्षमा मांग लेंगे । "

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" ठीक है , जो भगवान बुद्ध का आदेश है ।

हमें उसी का पालन करना है ।

" राधा ने भगवान का नाम लेकर पूड़े बांटने आरम्भ कर दिए ।

" अरे , यह क्या ! भागवान ... यह कैसा जादू है तुम पूड़े बांटती जा रही हो , मगर यह पूड़े तो वैसे - के - वैसे ही रखे हैं ।

" धीरे - धीरे सब बौद्ध भिक्षुओं के आगे पूड़े रखे जाने लगे ।

वह बड़े धैर्य से उन्हें खाने लगे । न जाने कितने दिनों से भूखे थे ।

कोशिया और उसकी पत्नी यह देख - देखकर हैरान रह गए कि सब लोगों ने पेट भरकर पूड़े खा लिए हैं ।

किन्तु उस थाल में सारे के सारे पूड़े वैसे ही पड़े हैं ।

" यह सब भगवान बुद्ध की ही कृपा है पतिदेव ।

आज तक आपने तो किसी को खिलाया ही नहीं , लेकिन इन्होंने तुम्हारे हाथों से सबको खिलवा भी दिया और तुम्हारा सारा भोजन भी बचा दिया ।

" राधा ने अपने पति की आंखों में झांकते हुए कहा ।

कोशिया समझ गया कि यह सारा खेल भगवान का ही है ।

आज तक वह अंधेरे में भटकता रहा था ।

आज पहली बार उसे ज्ञान प्राप्त हुआ था ।

वे दोनों पति - पत्नी भगवान बुद्ध के चरणों में झुक गए— " आप महान हैं प्रभु ... आपके चरणों में आकर हमारा जीवन सफल हो गया ।

हम पापी थे , आज आपने हमें ज्ञान दिया ... मैं ही सबसे बड़ा पापी था भगवन् मैं ... अब मैं कभी भी जीवन में ऐसा पाप नहीं करूंगा ।

मैं सबको खिलाया करूंगा . ... और फिर स्वयं खाऊंगा ।

” कोशिया हाथ जोड़े भगवान बुद्ध के सामने खड़ा था ।

" जाओ , कोशिया , जाओ ... इस ज्ञान के प्रकाश को सारे संसार में फैलाओ ।

यही मेरी सबसे बड़ी पूजा है ...।

" महात्मा बुद्ध का आशीर्वाद लेकर दोनों पति - पत्नी अपने घर लौट रहे थे ।

दोनों के चेहरों पर आत्म - संतुष्टि और सन्तोष के भाव थे ।