चतुर व्यापारी

तेनाली हमारे समाज के चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में सबसे ज्यादा होशियार और तेज दिमाग वाले कौन हैं और किस वर्ण के लोग सबसे सरल हैं ?

महाराज वैश्य वर्ण के लोग अत्यंत चतुर और होशियार होते हैं जबकि ब्राह्मण अत्यंत सरल व सीधे स्वभाव के होते हैं।

तेनालीराम ने जवाब दिया।

तेनालीराम की बात काटते हुए महाराज बोले, यह कैसी बात कह रहे हो तेनाली ?

ब्राह्मण तो इतना पढ़े-लिखे होते हैं, फिर वे होशियार कैसे नहीं होंगे और वैश्य तो अधिकतर अनपढ़ गंवार होते हैं, फिर उन्हें तुम चतुर और होशियार कैसे बता रहे हो ?

तेनालीराम बोला महाराज! मैं अपनी बात साबित कर सकता हूँ।

शर्त यह है कि मैं कुछ भी करूं, आप बीच में नहीं बोलेंगे।

राजा कृष्णदेव राय मान गये।

एक हप्ते बाद, तेनालीराम राजगुरु तथाचार्य के पास गया और आदर से बोला, राजगुरु जी! महाराज ने आपकी छोटी मंगवाई है।

क्या मैं इसे काट कर ले जाऊँ ?

यह बात सुनकर राजगुरु परेशान हो गये।

हिन्दुधर्म में छोटी कटवाने की अनुमति नहीं है। यह उनके धर्म और सदाचार का प्रतीक होती है।

अपनी मोटी लम्बी छोटी को कटवाने के लिए बहुत नाजों से संभाल कर रखी है। मैं इसे कैसे कटवा सकता हूँ।

आप जो चाहें, मैं आपको दूंगा। तेनालीराम ने राजगुरु को लालच दिया।

अब तो राजगुरु सोच ने पड़ गये। हालाँकि वे चोटी कटवाना नहीं चाहते थे, पर लालच बुरी बला है। फिर भी अपनी नाक ऊँची रखने के लिए उन्होंने थोड़ी नानुकुर करते हुए तेनाली से कहा, तेनाली क्योंकि यह राजाज्ञा है, मैं इसे टाल तो नहीं सकता। हालाँकि मैं ऐसा बिल्कुल नहीं चाहता हूँ पर क्या करूं मजबूर हूँ।

तुम ऐसा करो चोटी काट लो, पर मुझे इसके बदले में तुम्हें दस स्वर्णमुद्राएँ देनी होगी।

अवश्य राजगुरु मैं अभी लेकर आता हूँ। तेनाली तुरंत गया और शाही खजाने से दस स्वर्णमुद्राएँ ले आया।

दस स्वर्णमुद्राओं के बदले में राजगुरु ने नाइ से अपनी चोटी कटवा ली। वह छोटी जिसे उन्होंने इतने वर्षों से तेल लगाकर और बेहद प्यार से इतना लम्बा किया था। पल भर में साफ़ हो गयी।

फिर तेनालीराम ने शहर के मशहूर व्यापारी सुकुमार को बुलावा भेजा। उसके सिर पर भी अच्छी लम्बी चोटी थी।

तेनालीराम ने उससे भी वही कहा कि राजा कृष्णदेव राय को उसकी चोटी चाहिए, उसे कोई आपत्ति तो नहीं है ?

सुकुमार ने जवाब दिया, इस साम्राज्य की हर वस्तु महाराज की सम्पत्ति है हमारी चोटी क्या हमारा तो जीवन भी महाराज का ही है।

महाराज जो चाहें वह ले सकते हैं पर भैया याद रहे मैं एक गरीब आदमी हूँ।

चिंता मत करो। तेनाली उसे आश्वासन देते हुए बोला, तुम्हें तुम्हारी चोटी की उचित कीमत मिलेगी।

आपकी बड़ी कृपा है परन्तु। ...... सुकुमार कहते हुए चुप हो गया।

तेनालीराम थोड़ा परेशान-सा होते हुए सुकुमार से बोला परन्तु क्या। ...... साफ़-साफ़ कहो।

ऐसा है, अपनी इस चोटी के ही कारण मुझे अपनी पुत्री के विवाह में दस हजार स्वर्णमुद्राएँ खर्च करनी पड़ी। यह चोटी मेरी इज्जत का प्रतीक है न। गए साल जब मेरे पिता जी का देहांत हुआ था, तो उनके क्रियाकर्म पर पांच हजार का खर्चा हुआ था क्योंकि समाज में इस चोटी का नाम तो रखनी ही था।

तो भाई यह चोटी काफी कीमती है। सुकुमार ने अपनी चोटी पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा। इसका मतलब तुमने इस चोटी के लिए पन्द्रह स्वर्णमुद्राएँ खर्च की हैं।

ठीक है हम तुम्हें शाही खजाने से पन्द्रह हजार स्वर्णमुद्राएँ दिला देते हैं। अब तो तुम अपनी चोटी दे दोगे। तेनालीराम ने पूछा।

जब तेनालीराम ने सुकुमार को पन्द्रह हजार स्वर्णमुद्राएँ दिला देते हैं। अब तो तुम अपनी चोटी दे दोगे तेनालीराम ने पूछा।

जब तेनालीराम ने सुकुमार को पन्द्रह हजार स्वर्णमुद्राएँ की थैली थमा दी, तो वह ख़ुशी-ख़ुशी जाकर नाई के सम्मुख बैठ गया।

नाई ने काटने से पहले सुकुमार के बाल गीले किये।

जैसे ही उसने उस्तरा निकाला, सुकुमार जोर से बोला, ओ नाई! जरा संभाल कर। जानते हो न यह चोटी आज से महाराज की सम्पत्ति है।

इसे इस प्रकार काटना जैसे कि महाराज कृष्णदेव राय की चोटी काट रहे हो।

राजा कृष्णदेव राय निकट ही बैठे यह सब कुछ देख रहे थे।

सुकुमार की बातों से उनका खून खौल उठा। वे जोर से चिल्लाए ले जाओ इस बत्तमीज व्यक्ति को हमारे सामने से। इस व्यापारी को उठाकर बाहर फेंक दो।

सैनिक ने सुकुमार को उठा कर बाहर फेंक दिया। उसे थोड़ी चोट तो लगी पर थैला में खनखनाती पंद्रह हजार स्वर्णमुद्राएँ ने सारा दर्द भुला दिया।

कुछ देर बाद जब महाराज का क्रोध शांत हुआ तो तेनालीराम उनके पास गया और बोला, कहिए महाराज कौन होशियार निकला।

ब्राह्मण राजगुरु, जिन्होंने मात्र दस स्वर्णमुद्राएँ के लिए अपनी चोटी मुड़वा दी या यह वैश्य व्यापारी सुकुमार, जो आपसे पंद्रह हजार भी ले गया और अपनी चोटी भी बचा ली।

अब महाराज के पास तेनालीराम की बात मानने के सिवाय कोई चारा नहीं था।