तेनाली का इनाम

एक बार तेनालीराम से प्रसन्न होकर राजा कृष्णदेव राय ने उसे ढेर साड़ी स्वर्णमुद्राएँ इनाम में दी।

मुद्राओं का वजन इतना ज्यादा था कि तेनाली के लिए उन्हें उठाकर चलना मुश्किल था।

बहरहाल, किसी तरह तेनाली ने कुछ मुद्राएँ अपनी जेबों में भर लीं, और बची हुई मुद्राएं अपनी पगड़ी में भर ली! सभी दरबारी बड़े ध्यान से तेनालीराम को अपना इनाम समेटते हुए देख रहे थे और मुस्कुरा रहे थे।

सभी मुद्राएं यहां-वहां भरकर जब तेनालीराम जाते समय महाराज को सिजदा करने के लिए झुका, तो उसकी ऊपर तक भरी जेबों में से सोने के सिक्के छन-छन करते हुए फर्श पर बिखर गये और चारों ओर फ़ैल गये।

पूरा दरबार हंसी से गूंज उठा।

दरबारियों को हँसते देखकर भी तेनालीराम पर कोई असर नहीं हुआ और वह एक-एक कर नीचे गिरी हुई स्वर्णमुद्राएँ समेटने में लग गया।

कुर्सियों कालीन, सिंहासन, मेज आदि हर कोने से वह सिक्के समेटने लगा।

तेनालीराम को इस प्रकार जमीन पर बैठकर सिक्के समेटते देखकर दरबारी आपस में खुसर-पुसर करने लगे।

कितना लालची इंसान है, तेनाली कितना कंजूस है...... हर ओर से यही फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी।

इसके बावजूद तेनाली पर कोई असर नहीं हुआ, वह चुपचाप हर कोने से सिक्के समेटने में लगा रहा।

राजा कृष्णदेव राय, जो बहुत देर से दरबार में चल रहे इस तमाशे को देख रहे थे, अब स्वयं को रोक न सके।

तेनाली! अब बस करो। यह कैसी बेवकूफी भरी हरकत है तुम हमारे दरबारी विदूषक हो, अष्टदिग्ग्जों में से एक हो। अपने रुतबे का कुछ तो ख्याल करो। ऐसी घटिया हरकत तुम्हें शोभा नहीं देती। महाराज ने तेनालीराम को डांटा।

महाराज! सिक्के ढूंढने में न तो मेरा लालच है, न कंजूसी।

मैं तो आपकी इज्जत बरकरार रखने के लिए ऐसा कर रहा हूँ। महाराज! यह तो आप भी जानते है कि हर सिक्के पर आपका नाम और आपका चेहरा छपा हुआ है।

मैं नहीं चाहता कि कोई उसपर पैर रखे या उन सिक्कों को कोई झाड़ू से समेत कर आपका निरादर करे।

इसलिए मैं अपने हाथों से, नीचे झुकार, एक-एक सिक्का स्वयं उठा रहा हूँ।

तेनाली ने सिर झुकाकर महाराज से कहा। तेनाली के जवाब ने दरबारियों को ही नहीं, राजा कृष्णदेव राय को भी निरुत्तर कर दिया।

तेनाली मजे में अपने सिक्के ढूंढने में लगा रहा और सभी दरबारी मुंह सीए बैठे रहे।