एक लकड़हारा एक नदी के किनारे एक बड़े-से पेड़ को काट रहा था।
पेड़ के मोटे तने पर कुल्हाड़ी मारते ही वह कुल्हाड़ी उसके हाथ से फिसल गई
और नदी में गिर गई । लकड़हारा बैठकर रोने लगा।
थोड़ी ही देर में वरुण देवता वहाँ प्रकट हुए।
उनके हाथ में सोने की एक चमचमाती कुल्हाड़ी थी ।
लकड़हारे ने कहा, “नहीं, महाराज।
यह मेरी कुल्हाड़ी नहीं है।”
वरुण देवता ने फिर उसे चाँदी की कुल्हाड़ी दिखाई।
लकड़हारे ने फिर कहा, “क्षमा करें महाराज।
यह कुल्हाड़ी भी मेरी नहीं है।” वरुण देवता मुस्कराए और उन्होंने एक तीसरी कुल्हाड़ी निकाली।
यह वही कुल्हाड़ी थी, जो लकड़हारे के हाथ से फिसलकर नदी में गिर गई थी।
उस कुल्हाड़ी को देखकर, लकड़हारे की आँखें चमक उठीं।
“हाँ, यही मेरी कुल्हाड़ी है,” वह तुरंत बोल पड़ा।
वरुण देवता लकड़हारे की ईमानदारी से बहुत प्रसन्न हुए ।
उन्होंने उसे तीनों कुल्हाड़ियाँ उपहार में दे दीं।
ईमानदारी का पुरस्कार मिलता ही है।