बनारस के एक प्रसिद्ध गुरु का एक बेहद अनुशासनहीन शिष्य था,
जिसका नाम मित्तावंद था।
पढ़ाई के समय या तो वह कुछ न कुछ खाता रहता या अन्य शिष्यों से लड़ता रहता।
उसका व्यवहार लगातार और बुरा होता जा रहा था।
गुरु ने आखिरकार मित्तावंद को अपने गुरुकुल से निकाल दिया।
मित्तावंद ने वह जगह ही छोड़ देने का निश्चय किया।
वह एक छोटे-से गाँव में गया और वहाँ मज़दूरी करने लगा ।
वहीं पर एक निर्धन महिला से उसने विवाह कर लिया और उसके दो बेटे भी हो गए।
समय बीतता गया और धीरे- धीरे गाँव वालों को पता चल गया कि मित्तावंद उस प्रसिद्ध गुरु का शिष्य रहा है।
अब गाँव वाले जब भी किसी मुसीबत में पड़ते, वे सीधे सलाह लेने के लिए मित्तावंद के पास आने लगे ।
हालाँकि मित्तावंद को इससे परेशानी ही होने लगी।
गाँव वालों को भी लगने लगा कि जब से वे मित्तावंद की सलाह लेने लगे है, तब से उनकी परेशानियाँ और बढ़ गई हैं।
वे समझ गए कि मित्तावंद तो उनके लिए हानिकारक है।
सबने मिलकर उसे गाँव से निकाल दिया ।