वीर राजकुमार कुवलयाश्व

परम पराक्रमी राजा शत्रुजित के पास एक दिन महर्षि गालव आये। महर्षि अपने साथ एक दिव्य अश्व भी ले आये थे।

राजा ने महर्षि का विधिवत पूजन किया।

महर्षि ने बताया-'एक दुष्ट राक्षस अपनी मायासे सिंह, व्याघ्र, हाथी आदि वन-पशुओंका रूप धारण करके आश्रम में बार-बार आता है और आश्रम को नष्ट-भ्रष्ट कर जाता है।

यद्यपि उसे क्रोध करके भस्म किया जा सकता है, पर ऎसा करने से तो तपस्या का नाश ही हो जायगा।

हमलोग बड़े कष्ट से जो तप करते हैं, उसके पुण्यको नाश नहीं करना चाहते।

हमारे क्लेश को देखकर इस 'कुवलय' नामक घोड़ेको सूर्यदेवने हमारे पास भेजा है।

यह बिना थके पूरी पृथ्वी की प्रदिक्षणा कर सकता है और आकाश, पाताल एवं जलमें सर्वत्र इसकी गति है।

देवताओं ने यह भी कहा है कि इस अश्वपर बैठकर आपके पुत्र ऋतध्वज उस असुरका वध करेंगे। अतएव आप अपने राजकुमार को हमारे साथ भेज दें।

इस अश्वको पाकर वे कुवलयाश्व नाम से संसार में प्रसिद्ध होंगे।

धर्मात्मा राजा ने मुनि की आज्ञा मानकर राजकुमार को मुनि के साथ जाने की आज्ञा दी।

राजकुमार मुनिके साथ जाकर उनके आश्रममें निवास करने लगे।

एक दिन जब मुनिगण संध्योपासना में लगे हुए थे, तब शूकर का रूप धारण करके वह नीचे दानव मुनियों को सताने वहाँ आ पहुँचा।

उसे देखते ही वहाँ रहनेवाले मुनियों के शिष्य हल्ला करने लगे।

राजकुमार ऋतध्वज शीघ्र ही घोड़े पर सवार होकर उसके पीछे दौड़े।

धनुष को खींचकर एक अर्धचन्द्राकार बाण से उन्होंने असुर को बींध दिया । बाण से घायल होकर असुर प्राण बचानेके लिए भागा। राजकुमार भी उसके पीछे घोड़ेपर लगे रहे। वनों, पर्वतों, झाड़ियोंमें जहा वह गया राजकुमार के घोड़ेने उसका पीछा किया।

अन्तमें बड़े वेग से दौड़ता हुआ वह राक्षस पृथ्वी के एक गड्ढे में कूद पड़ा।

राजकुमार ने भी उस गड्ढे में घोड़ा फॅंदा दिया।

वह पाताल लोकए में पहुँचने का मार्ग था।

उस अन्धकार पूर्ण मार्ग से राजकुमार पाताल पहुँच गये। स्वर्ग के सामान सुन्दर पाताल में पहुँचकर उन्होंने घोड़ेको एक स्थानपर बाँध दिया और वे एक भवन में गये।

यहीं उन्हें विश्वावसु नामक गन्धर्वराज की कन्या मदालसा मिली। दानव व्रजकेतुके दुष्ट पुत्र पातालकेतुने उसे स्वर्ग से हरण किया था और यहाँ लाकर रखे हुए था। वह असुर इससे विवाह करना चाहता था।

जब मदालसा को पता लगा कि उस असुर पाताल केतुको राजकुमार ने अपने बाण से छेद डाला है तब उसने ऋतध्वज को ही अपना पति वरण कर लिया।

राजकुमार ऋतध्वज ने जब मदालसासे विवाह कर लिया तब इस बातका समाचार पाकर पाताल केतु अपने अनुयायी दानवों के साथ क्रोध में भरा वहाँ आया।

असुरो नें राजकुमार पर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा प्रारम्भ कर दी, लेकिन हॅंसते हुए राजकुमार ने उसके सब अस्त्र-शस्त्र अपने बाणों से काट डाले।

त्वाष्ट्र नामके दिव्यास्त्र का प्रयोग करके उन्होंने सभी दानवों को एक क्षण में नष्ट कर दिया।

जैसे महर्षि कपिल की क्रोधाग्नि में सगर के साठ हजार पुत्र भस्म हो गये थे, वैसे ही उस दिव्यास्त्र की ज्वाला में दानव भस्म हो गये।

पत्नी के साथ राजकुमार उस अश्वपर चढकर पाताल से ऊपर आ गये।

अपने विजयी पुत्रको आया देखकर उनके पिताको बड़ा हर्ष हुआ।

समय आनेपर राजकुमार ऋतध्वज कुवलयाश्व नरेश हुए।

उनकी पत्नी मदालसा परम तत्त्वको जाननेवाली थीं। उन्होंने ही अपने पुत्रों को गोद में लोरी देते-देते ही ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया था।