रानाडे के पिता कोल्हापुर मेंं थे, उन दिनॊं एक पूर्णिमा को ब्राह्मणॊं को तथा मित्रों को बुलाकर दूध देने का रिवाज था। और पाठशाला के सारे विद्यार्थियों को बुलाकर उस दिन रात को दो बजे तक चौपड़ खेलने की छुट्टी दी जाती थी। एक साल ऎसा हुआ कि उस पूर्णीमा की रात को उनके घर खेलने के लिये उनके पिता के मित्र के घर से कोई लड़का नहीं आया। वे किसी काम से दूसरे गाँव गये हुए थे। उनकी छोटी बहिन भी सो गयी थी। वह अपनी फूआ के पास चौपर माँगने गये। उसने कहा-दुर्गा तो सो गयी है, दूसरा कोई लड़का आया नहीं तू किसके साथ चौपड़ खेलेगा? रानाडेने जवाब दिया-मैं किसीके भी साथ खेलूँगा, तू मुझे चौपड़ दे।'
फुआ ने चौपर दे दिया। चौपड़ लेकर रानाडे दालान में गये और एक खम्भे के सामने बैठकर दाव शुरू किया। एक हाथ अपना, दूसरा हाथ खंभे का मानकर खेलने लगे । जब दो बार खंभेने उनको हरा दिया तो पीछे से फूआ ने हॅंसी करते हुए कहा- 'अरे रे ! आज तो तेरी फजीहत हो गयी, तू एक निर्जिव खम्भे से हार गया ।'
इसपर उस दस वर्षीय बालक रानाडे को क्रोध नहीं आया औड़र उन्होने धीरेसे कहा - 'तो इसमे हुआ क्या ? जो सच, सो सच । खंभे बाला हाथ पड़ा, इसलिए उसकी जीत हुई ; मेरा हाथ ठीक नही पड़ा इससे मेरी हार हुई; इसमे फजीहत किस बात की ? खंभे का दाव मैं दाहिने हाथ से खेलता था और इस हाथ से खेलने की आदत होने के कारण उसका दाव ठीक पड़ा; और अपना दाव मै बाएं हाथ से खेलता था , औ इअस हाथ से खेलने की आदत नही होने के कारण ठीक खेलते नही बना , फिर मन चाहा दाव कैसे पड़ता ?
दूसरा कोई चालाक लड़का होता तो खंभे से नहीं हारता । इस प्रकार राणाडे का बचपन से ही यह स्वभाव बन गया था कि वे किसी भी बात मे कपट नही करते थे , जो बात जैसी जैसी होतॊ थी , वैसी कह देते थे ।