मालकिन को उसका हार सौंपनेवाला बालक

एक खलासी था।

वह उसकी पत्नी और एक लड़का सब मिलकर तीन आदमी थे।

खलासी के मर जाने के बाद उसकी स्त्री और लड़का निराधार हो गये। लड़के ने निश्चय किया कि अब तो उसे अपना और माँ का भरण-पोषण खुद ही करना पड़ेगा।

इसके बाद वह अपनी माँ की आज्ञा लेकर नौकरी की तलाश में गया।

सौभाग्य से उसे एक नौकरी मिल गयी और वह अपनी माँ के पास आकर बोला-'मुझको नौकरी मिल गयी है।

अमुक दिन मेरा जहाज खुलेगा और वह जब लौटेगा, तब मैं तुमसे भेंट करूंगा। इतना कहकर वह जहाजपर गया।

विभिन्न जगहों पर रुकता हुआ वह जहाज एक बड़े बंदरगाह पर जाकर खड़ा हुआ। लड़के के ऊपर कप्तान की बड़ी दया थी और वह उसे बहुत मानता था; क्योंकि लड़का सदा ही सच बोलता था।

वह नियम से ईश्वर की प्रार्थना करता था। और भी अच्छे गुण उसमें थे। जहाज के खलासी भी उसको चाहते थे। एक दिन कुछ खलासियों के साथ वह लड़का शहर देखने जा रहा था।

इतने में एक गाड़ी में से कोई अधिकारी और उसकी स्त्री उतरी। उतरते समय स्त्री का हीरे का हार नीचे गिर गया।

उस हार को दूसरे किसी ने न देखा, पर उस लड़के ने देखा और देखते ही तुरंट उसे उठा लिया।

इस बात को जब उसके साथियों ने सुना, तब उन्होंने कहा-'इस कीमती हार को बेच दिया जाय तो बहुत रुपए मिलेंगे और फिर नौकरी-चाकरी करने की जरुरत ही न रहे।'

यह सुनकर उस लड़के ने कहा-'यह हार तो दूसरे का है। हम यदि इसे ले लेंगे तो चोर बन जायेंगे।

चोरी करना महापाप है। मेरी माँ कहती है कि मनुष्य की आखँ को तो धोखा दिया जा सकता है, पर ईश्वर की आँख को कोई धोखा नहीं दे सकता; क्योंकि ईश्वर सब जगह है।

इसलिए मैं तो जिसका हार है, उसी को वापस दूँगा।

साथियों ने उसे बहुतेरा समझाया, पर उसने उनकी एक न मानी। वह हार जिस स्त्री का था, उसे वापस दे दिया। उस स्त्री को हार मिलने से बहुत ही आनन्द हुआ और उसने उस लड़के को योग्य इनाम दिया। कप्तान को जब यह खबर मिली, तब वह भी उस लड़के पर बहुत अधिक प्रेम करने लगा। सत्य से प्रेम कौन नहीं करता?