महाबीर पाण्डुनन्दन भीमसेन ने हिडिम्बा राक्षसी से विवाह किया था।
उससे घटोत्कच नामक अतुल पराक्रमी पुत्र उनको हुआ था। घटोत्कचने भगवान श्रीकृष्ण के आदेश से भौमासुर के नगरपाल मुर दानव की परम सुन्दरी कन्या कामकटंकटा से विवाह किया।
घटोत्कच को बर्बरीक नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। राक्षसियों के बालक जन्मते ही युवक और बलवान हो जाते हैं।
बालक बर्बरीक जन्म से ही विनयी, धर्मात्मा एवं वीर था।
उसे साथ लेकर घटोत्कच द्वारका गया और वहाँ उसने भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में पुत्रके साथ प्रणाम किया।
हाथ जोड़कर बर्बरीक ने भगवान से प्रार्थना की-'आदिदेव माधव! मैं मन, बुद्धि और चित्त की एकाग्रता से आपको प्रणाम करता हूँ।
पुरुषोत्तम! संसार में जीवका कल्याण किस प्रकार होता है? कोई धर्मको कल्याणकारी बतलाते हैं, कोई दानको, कॊई तप को, कोई धन को कोई भोगों को तथा कोई मोक्ष को। प्रभो! इन सैकड़ो श्रेयोंमे से एक निश्चित श्रेय जो मेरे कुलके लिये हो, उसको आप मुझे उपदेश करें।
भगवान ने कहा- बेटा! जो जिस कुल में एवं वर्ण में उत्पन्न हुआ है, उसके कल्याण का साध्न उसी के अनुरूप होता है।
ब्राह्मण के लिये तप, इन्द्रिय-संयम तथा स्वाध्याय कल्याण कारी है। क्षत्रिय के लिये प्रथम बल साध्य है; क्योंकि बल के द्वारा दुष्टॊं का दमन एवं साधुओं का रक्षण करने से उसका कल्याण होता है। वैश्य पशु-पालन, कृषि तथा व्यापार से धन एकत्र करके दान करने से कल्याण-भाजन होता है।
शूद्र तीनों वर्णॊंकी सेवा करके श्रेयका भागी वनता है। तुम क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए हो, अतएव पहले तुम अतुलनीय बलकी प्राप्तिका उद्योग करो।
भगवती शक्ति की कृपा से ही बलकी प्राप्ति होती है, अतः तुम्हें शक्तिरूपा देवियों की अराधना करनी चाहिए।बर्बरीक के पूछनेपर भगवान ने उसे महीसागर-संगम तीर्थ में जाकर देवर्षि नारदद्वारा वहाँ लायी गयी नवदुर्गाओं की आराधना का आदेश दिया।
तदनन्तर तीन वर्ष तक अराधना करने पर देवियाँ प्रसन्न हुई। उन्होंने प्रत्यक्ष दर्शन देकर उसे तीनों लोकोमें जो बल किसीमें नहीं, ऎसा दुर्लभ बल प्राप्त करने का वरदान दिया। वरदान देकर देवियों ने कहा-'पुत्र! तुम कुछ समय तक यहीं निवास करो।
यहाँ एक विजय नाम के ब्राह्मण आयेंगे, उनके संगमे तुम्हारा और अधिक कल्याण होगा।
देवियों की आज्ञा मानकर बर्बरीक वहीं रहने लगा। कुछ दिन पीछे मगध देश के विजयनामक ब्राह्मण वहाँ आये।
उन्होंने कुमारेश्वर आदि सात शिवलिङ्गों का पूजन किया और विद्या की सफलता के लिये बहुत दिनोंतक देवियों की आराधना की।
देवियोंने स्वप्न में उन्हें आदेश दिया-'तुम सिद्ध माता के सामने आँगन में सम्पूर्ण विद्याओंकी साधना करो।'हमारा भक्त बर्बरीक तुम्हारी सहायता करेगा।
विजय ने भीम सेन के पौत्र बर्बरीक से प्रातःकाल कहा-'तुम निद्रारहित एवं पवित्र होकर देवी के स्त्रोत का पाठ करते हुए यहीं रहो; जिससे जबतक मैं विद्याओं का साधना करूँ, तबतक कोई विघ्न न हो।'
विजय अपने साधनो में एकाग्रचित से लग गये और बर्बरीक सावधानी से रक्षा करता खड़ा रहा।
विजयकी साधना में विघ्न करनेवाले रेपलेन्द्र नामक महादानव तथा द्रुहद्रुहा नामकी राक्षसी का सहज ही संहार किया। तदनन्तर पाताल में जाकर नागों को पीड़ा देनेवाले 'पलासी' नामक भयानक असुरों को रौंदाकर यमलोक भेज दिया ।
उन असुरोंके मारे जानेपर नागों के राजा वासुकि वहाँ आये। उन्होंने बर्बरीक की प्रशंसा की और प्रसन्न होकर उनसे वरदान माँगने को कहा। बर्बरीक ने वरदानमें केवल यह माँगा-'विजय निर्विघ्न साधन करके सिद्धि प्राप्त करें।'
पाताल से निकलते समय नागकन्याओं ने बर्बरीक के रूप एवं पराक्रम पर मुग्ध होकर प्रार्थना की कि वे उन सबसे विवाह कर लें; किंतु जितेन्द्रिय बर्बरीक ने सदा ब्रह्मचारी रहने का व्रत ले रक्खा था।
जब पाताल से बर्बरीक लौटे, विजयने उनको हृदय से लगा लिया। उन सिद्ध पुरुष ने कहा-'वीरेन्द्र! मैंने तुम्हारी कृपासे ही सिद्धि प्राप्त की है। मेरे हवनकुण्ड में सिंदूर के रंगकी परम पवित्र भस्म है, उसे तुम हाथमे भरकर ले लो। युद्धभूमि में इसे छोड़ देने पर साक्षात मृत्यु भी शत्रु बनकर आ जाय तो उसे भी मरना पड़ेगा। इस प्रकार तुम शत्रुओं पर सरलाता से विजय प्राप्त कर सकोगे।'
बर्बरीक ने कहा-'उत्तम पुरुष वही है, जो निष्काम भाव से किसी का उपकार करता है। जो किसी वस्तुकी इच्छा रखकर उपकार करता है, उसकी सज्जनता में भला क्या गुण है? यह भस्म आप किसी दूसरे को दे दें। मैं तो आपको सफल एवं प्रसन्न देखकर ही प्रसन्न हूँ।
विजय को देवताओं ने सिद्धैश्वर्य प्रदान किया। उनका नाम 'सिद्धसेन' हो गया।
उनके वहाँ से चले जाने के कुछ काल बीत जानेपर पाण्डव लोग जुए में हारकर वनों एवं तीर्थों में घूमते हुए उस तीर्थ में पहुँचे। पाँचों पाण्डव और द्रौपदी बहुत थके थे।
चण्डिका देवी का दर्शन करके वे वहाँ बैठ गये। बर्बरीक भी वहीं थे; किंतु न तो पाण्ड्वों ने बर्बरीक को देखा था और न बर्बरीक ने पाण्डवों को, अतः वे एक दूसरे को पहचान न सके।
प्यास से पीड़ित भीमसेन वहाँ कुण्डमें जल पीने उतरने लगे तो युद्धिष्ठिर ने उनसे कहा-पहले जल लेकर कुण्ड से दूर हाथ-पैर धो लो, तब जल पीना।' लेकिन भीमसेन प्यास से व्याकुल हो रहे थे। युधिष्ठिर की बात बिना सुने ही वे जलमें उतर गये और वही हाथ-पैर धोने लगे।
उन्हें ऎसा करते देखकर बर्बरीक ने डाँटकर कहा-'तुम देवीके कुण्डमें हाथ-पैर धोकर उसे दूषित कर रहे हो, मैं सदा इसी जल से देवी को स्नान कराता हूँ। जब तुममें इतना भी विचार नहीं, तब फिर व्यर्थ क्यों तीर्थों मे घूमते हो?'
भीमसेन ने गरज करके कहा-'जल स्नान के लिए ही है, तीर्थ में स्नान करने की आज्ञा है' आदि कहकर अपने कार्यका समर्थन किया।
बर्बरीक ने बताया-'जिनके जल बहते हैं, ऎसे तीर्थों में ही भीतर जाकर स्नान करने की बिधि है। कूप-सरोवर आदि से जल लेकर बाहर स्नान करना चाहिए, ऎसा शास्त्र का विधान है।
जहाँ से भक्तजन देवताओं को स्नान कराने का जल न लेते हों और जो सरोवर देवस्थान से सौ हाथ से अधिक दूर हो, वहाँ पहले बाहर दोनों पैर धोकर तब जलमें स्नान किया जाता है। जो जल में मल, मूत्र, विष्ठा, कफ, थूक इत्यादि छोड़ते हैं, वे ब्रह्महत्यारे के समान है।
जिसके हाथ-पैर, मन-इन्द्रियाँ अपने वशमें हों, जो संयमी हो, वही तीर्थ का फल पाता है। मनुष्य पुण्यकर्म के द्वारा दो घड़ी भी जीवित रहे तो उत्तम है, परलोक विरोधी पापकर्म करके कल्पपर्यन्त की भी आयु मिलती हो तो उसे स्वीकार न करे। इसलिये तुम झटपट बाहर आ जाओ।
बर्बरीक की शास्त्रसम्मत बातपर जब भीम ने ध्यान नहीं दिया, तब बर्बरीक ने ईटके टुकड़े भीमसेन के मस्तक पर लक्ष्य बनाकर मारने प्रारम्भ किये।
आघात को बचाकर भीम बाहर निकले और बर्बरीक से भिड़ गये। दोनों ही महावली थे, अतः दोनों जमकर मल्लयुद्ध करने लगे।
दो घड़ीमे भीमसेन दुर्बल पड़ने लगे। बर्बरीक उन्हें सिरसे ऊपर उठाकर समुद्रमें फेंकने के लिये चल पड़ा।
समुद्र के किनारे पहुँचने पर आकाश में स्थित होकर भगवान शंकर ने कहा-'राक्षसश्रेष्ठ! इन्हें छोड़ दो। ये भरतकुल के रत्न तुम्हारे पितामह पाण्डुनन्दन भीमसेन हैं। ये तुम्हारे द्वारा सम्मानित होने योग्य हैं।बर्बरीक ने जो यह बात सुनी तो वह भीमसेन को छोड़कर उनके चरणोंपर गिर पड़ा।
वह अपने को धिक्कारने लगा, फूट-फूटकर रोने लगा। उसे अत्यंत व्याकुल होते देख भीमसेन ने छाती से लगा लिया। उसे समझाया-बेटा! तुम्हारा कॊई दोष नहीं है।
भूल हमसे ही हो रही थी। कुमार्गपर चलनेबाला कोई भी हो, क्षत्रिय को उसे दण्ड देना ही चाहिये। मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मेरे पूर्वज धन्य हैं कि जिनके कुल में तुम्हारे-जैसा धर्मात्मा पुत्र उत्पन्न हुआ है। तुम सत्पुरुषों द्वारा प्रशंसनीय हो। तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।
बर्बरीक का इससे शोक नहीं मिटा। वह कहने लगा-पितामह! मैं प्रशंसा के योग्य नहीं हूँ। सब पापोंका प्रायश्चित है, परंतु जो माता-पिता का भक्त नहीं, उसका उद्धार नहीं होता। जिस शरीर से मैंने पूज्य पितामह का अपमान किया है, उसे आज महीसागर-संगम में त्याग दूँगा, जिससे दूसरे जन्मों में मुझ से ऎसा अपराध न हो।'
वह समुद्र के किनारे पहुँचा और कूदने को उद्यत हो गया। उस समय वहाँ सिद्धाम्बिका तथा चारों दिशाओं की देवियाँ भगवान रुद्रके साथ आयीं। उन्होंने बर्बरीक को आत्महत्या करने से रोका। उनके रोकने पर उदास मन से वह लौट आया। पाण्डवों को उसके पराक्रम को देखकर बड़ा आश्चर्य एवं प्रसन्नता हुई। बर्बरीक का उन्होंने सम्मान किया।
जब पाण्डवों के वनवासकी अवधि समाप्त हो गयी और दुरात्मा दुर्योधन ने उनका राज्य लौटाना स्वीकार नहीं किया, तब कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत-युद्ध की तैयारी होने लगी।
युद्ध के प्रारम्भ में महाराज युधिष्ठिर ने अर्जुन से अपने पक्ष के महारथियों की शक्ति के विषय में प्रश्न किया। अर्जुन ने सबके पराक्रम की प्रशंसा करके अन्तमें बताया कि मैं अकेला ही कौरव-सेनाको एक दिनमें नष्ट करने में समर्थ हूँ।
इस बातको सुनकर बर्बरीक से नहीं रहा गया। उसने कहा-मेरे पास ऎसे दिव्य अस्त्र-शस्त्र एवं पदार्थ हैं कि मैं एक मुहूर्त में ही सारी कौरव-सेना को यमलोक भेज सकता हूँ।
भगवान श्रीकृष्ण बर्बरीक की बातका समर्थन किया और फिर कहा-'बेटा! तुम भीष्म, द्रोण आदि से रक्षित कौरव-सेनाको एक मुहुर्त में कैसे मार सकते हो?
भगवान की बात सुनकर अतुल बली बर्बरीक ने अपना भयंकर धनुष चढा दिया और उसपर एक बाण रक्खा।
उस पोले बाणको लाल रंग से भरकर कानतक खींचकर उसने छोड़ दिया। उसके बाण से उड़ी भस्म दोनों सेनाओं के सैनिकों के मर्मस्थल पर जाकर गिरी।
केवल पाण्डवों, कृपाचार्य और अश्वथामा के शरीर पर वह नहीं पड़ी। बर्बरीक ने इतना करके कहा-'आप लोगों ने देख लिया कि मैंने इस क्रिया से मरनेवाले वीरों के मर्मस्थान का निरीक्षण किया है।
अब देवी के दिये तीक्ष्ण बाण उनके उन मर्मस्थानों में मारकर उन्हें सुला दूँगा। आप लोगों को अपने धर्म की शपथ है, कोई शस्त्र न उठावें। मैं दो घड़ीमें ही शत्रुओं को मारे देता हूँ।
बर्बरीक अतुल बली था, धर्मात्मा था और विनयी भी था; किंतु इस समय अहंकारवश उसने धर्मकी मर्यादा तोड़ दी। दोनों सेनाओं में अनेक वीरों को देवताओं से, ऋषियों से वरदान प्राप्त थे। उन सब वरदानों को व्यर्थ करने से देवता, धर्म एवं तप की मर्यादा ही नष्ट हो जाती। धर्मकी मर्यादा के लिये ही अवतार धारण करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक की यह बात सुनकर अपने चक्र से उसका सिर काट दिया।
बर्बरीक के मरने पर सब लोग भौंचक्के रह गये। पाण्डव शोक में डूब गये। घटोत्कच मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। उसी समय वहाँ चौदह देवियाँ आयीं। उन्होंने घटोत्कच तथा पाण्डवों को बताया कि 'बर्बरीक पूर्व जन्म में सूर्यवर्चा नामक यक्ष था। देवता ब्रह्माजीके साथ जब पृथ्वीका भार उतारने के लिये मेरु पर्वतपर भगवान नारायण की स्तुति कर रहे थे, तब अहंकार वश उस यक्ष ने कहा-'पृथ्वीका भार तो मैं ही दूर कर दूँगा। उसके गर्व के कारण रुष्ट होकर ब्रह्माजी ने शाप दे दिया कि 'भूमिका भार दूर करते समय भगवान उसका वध करेंगे।' ब्रह्माजी के उस शाप को सत्य करने के लिए ही भगवान श्रीकृष्ण बर्बरीक को मारा है।
भगवान के आदेश से देवियों ने बर्बरीक के सिर को अमृत से खींचकर राहु के सिर के समान अजर-अमर बना दिया। उस सिरने युद्ध देखने की इच्छा प्रकट की, इसलिए भगवान ने उसे एक पर्वत पर स्थापित कर दिया और जगत् में पूजित होनेका वरदान दिया।
महाभारत-युद्ध के अन्त में धर्मराज युधिष्ठिर भगवान के बार-बार कृतज्ञ हो रहे थे कि उन वासुदेव के अनुग्रह से ही हमें विजय प्राप्त हुई है। भीम ने सोचा कि 'धृतराष्ट्र के पुत्रों को तो मैंने मारा है, फिर श्रीकृष्ण इतनी प्रशंसा धर्मराज क्यों कर रहे हैं? भीम ने जब यह बात कही तब अर्जुन ने उन्हें समझाना चाहा-'मेरे-आपके द्वारा ये भीष्म, द्रौण आदि त्रिलोकविजयी शूर नही मारे गये। हमलोग तो निमित्त मात्र हैं। युद्ध में विजय तो किसी अज्ञात पुरुष के द्वारा हुई, जिसे मैं सदा अपने आगे-आगे चलता देखता था।
भीमसेन अर्जुन की बात सुनकर हॅंस पड़े। उन्हें लगा कि अर्जुन को भ्रम हो गया है। ठीक निर्णय कराने के लिये वे अर्जुन और श्रीकृष्ण के साथ पर्वत पर गये और बर्बरीक के सिर से पूछा-'बेटा! तुमने पूरा युद्ध देखा है, बताओ कि युद्ध में कौरवों को किसने मारा है?
बर्बरीक ने कहा-मैंने तो शत्रुओं के साथ केवल एक पुरुष को युद्ध करते देखा है, उसके बायीं ओर पाँच मुख थे और दस हाथ थे, जिनमें त्रिशूल आदि वह धारण किये था। दाहिनीं ओर एक मुख और चार भुजाएं थीं, जिसमें चक्र आदि अस्त्र-शस्त्र थे। बायीं ओर उसके जटाऍं थी और ललाट पर चन्द्रमा शोभित हो रहे थे, अंग में भस्म लगी थी। दाहिनी ओर मस्तक पर मुकुट झलमला रहा था, अंगों में चन्दन लगा था और कण्ठ में कौस्तुभ मणी शोभा दे रहा था। उस पुरुष को छोड़कर कौरव-सेना का नाश करने वाले दूसरे किसी पुरुष को मैंने नहीं देखा।
बर्बरीक के ऎसा कहने पर आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी। भीम लज्जित होकर भगवान से क्षमा माँगने लगे। भगवान तो क्षमाके समुद्र हैं। उन्होंने हॅंसकर भीमसेन को गले लगा लिया।
भगवान ने बर्बरीक के सिर के पास जाकर कहा-'तुमको इस क्षेत्र का त्याग नहीं करना चाहिये।'