महाभारत का युद्ध चल रहा था।
भीष्मपितामह शरशय्यापर गिर पड़े थे और द्रोणाचार्य कौरव पक्ष के सेनापति हो गये थे।
दुर्योधन बार-बार आचार्य से कहता था- 'आप पाण्डवों का पक्षपात करते हैं।
आप ऎसा न करें तो आपके लिए पाण्डवों को जीत लेना बहुत ही सरल है।
आचार्य ने उत्तेजित होकर कहा-'अर्जुन के रहते पाण्डव पक्ष को देवता भी नहीं जीत सकते।
तुम यदि अर्जुन को कहीं दूर हटा सको तो मैं शेष सभी को हरा दूँगा। दुर्योधन के उकसाने पर संशप्तक नामक वीरों ने अर्जुन को युद्ध के लिये चुनौती दी और उन्हें संग्राम की मुख्य भूमि से दूर करने के लिए वे ले गये।
यहा द्रोणाचार्य ने अपनी सेना के द्वारा चक्रव्यूह नामक व्यूह बनवाया। जब युधिष्ठिर जी को इस बात का पता लगा, तब वे बहुत निराश एवं दुखी हो गये।
पाण्डव-पक्षमें एक मात्र अर्जुन ही चक्रव्युह तोड़ने का रहस्य जानते थे। अर्जुन के न होने से पराजय स्पष्ट दिखायी पड़ती थी।
अपने पक्ष के लोगों को हताश होते देख अर्जुन के पंद्रह वर्षीय पुत्र सुभद्रा कुमार अभिमन्यु ने कहा-'महाराज! आप चिन्ता क्यों करते हैं? मैं कल अकेला ही व्यूह में प्रवेश करके शत्रुओंका गर्व दूर कर दूँगा।
युधिष्ठिर ने पूछा-बेटा! तुम चक्रव्यूह का रहस्य कैसे जानते हो?
अभिमन्यु ने बताया-'मैं माता के गर्भ में था, तब एक दिन पिताजी ने मेरी मातासे चक्रव्यूह का वर्णन किया था।
पिताजी ने चक्रव्यूह के छः द्वार तोड़ने की बात बतायी, इतने में मेरी माता को नींद आ गयी। पिताजी ने उसके आगे का वर्णन नहीं किया।
अतः मैं चक्रव्यूह में प्रवेश करके उसके छः द्वार तो सकता हूँ; किंतु उसका सातवाँ द्वार तोड़कर निकल आने की विद्या मुझे नहीं आती।
उत्साह में भरकर भीमसेन ने कहा-'सातवाँ द्वार तो मैं अपनी गदा से तोड़ दूंगा।
धर्मराज युधिष्ठिर यद्यपि नही चाहते थे कि बालक अभिमन्यु को व्यूह में भेजा जाय, परंतु दूसरा कोई उपाय नहीं था।
अभिमन्यु अतिरथी योद्धा थे और नित्य के युद्ध में सम्मिलित होते थे।
उनका आग्रह भी था इस विकट युद्ध में स्वयं प्रवेश करने का। दूसरे दिन प्रातःकाल युद्ध प्रारम्भ हुआ।
द्रोणाचार्य ने व्यूह के मुख्य द्वार की रक्षा का भार दुर्योधन के बहनोई जयद्रथ को दिया था।
जयद्रथ ने कठोर तपस्या करके यह वरदान भगवान शंकर से प्राप्त कर लिया था कि अर्जुन को छोड़कर शेष पाण्डवों को वह जीत सकेगा।
अभिमन्यु ने अपनी बाण-वर्षा से जयद्रथ को विचलित कर दिया और वे व्यूह के भीतर चले गये; किंतु शीघ्र ही जयद्रथ सावधान होकर फिर द्वार रोककर खड़ा हो गया।
पूरे दिन भर शक्ति भर उद्योग करने पर भी भीमसेन या कोई भी योद्धा व्यूह में नहीं जा सका। अकेले जयद्रथ ने वरदान के प्रभाव से सबको रोक रक्खा।
पंद्रह वर्ष के बालक अभिमन्यु अपने रथपर बैठे शत्रुओं के व्यूह में घूस गये थे।
चारों ओर से उनपर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा हो रही थी; किंतु इससे वे तनिक भी डरे नहीं।
उन्होंने अपने धनुष से पानी की झड़ी के समान चारों ओर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। कौरवों की सेनाके हाथी, घोड़े और सैनिक कट-कटकर गिरने लगे। रथ चूर- चूर होने लगे।
चारों ओर हाहाकार मच गया। सैनिक इधर-उधर भागने लगे। द्रोणाचार्य, कर्ण, अश्वथामा, शल्य आदि बड़े-बड़े महारथी सामने आये; किंतु बालक अभिमन्यु की गति को कोई भी रोक नहीं सका।
वे दिव्यास्त्रों को दिव्यास्त्रों से काट देते थे। उनकी मारके आगे आचार्य द्रोण और कर्ण तक को बार-बार पीछे हटना पड़ा।
एक-पर-एक व्यूह के द्वार को तोड़ते, द्वाररक्षक महारथी को परास्त करते हुए वे आगे बढते ही गये। उन्होंने छः द्वार पार कर लिया।
अभिमन्यु अकेले थे और उन्हें बारम्बार युद्ध करना पड़ रहा था।
जिन महारथियों को उन्होंने पराजित करके पीछे छोड़ दिया था, वे भी उन्हें घेरकर युद्ध करने आ पहुँचे थे।
इस सातवें द्वारका मर्मस्थल कहाँ है, यह वे जानते नहीं थे।
इतने पर भी उनमें न तो थकान दीखती थी और न उनका वेग ही रुकता था।
दूसरी ओर कौरव-पक्ष के बड़े-बड़े सभी महारथी अभिमन्यु के बाणॊं से घायल हो गये थे।
द्रोणाचार्य ने स्पष्ट कह दिया-'जबतक इस बालक के हाथ में धनुष है, इसे जीतने की आशा नहीं करनी चाहिये।
कर्ण आदि छः महारथियों ने एक साथ अन्यायपूर्वक अभिमन्युपर आक्रमण कर दिया।
उनमें से एक-एक ने उनके रथ के एक-एक घोड़े मार दिये। एक ने सारथि को मार दिया और कर्ण ने उनका धनुष काट दिया।
इतने पर भी अभिमन्यु रथ पर से कूदकर उन शत्त्रुओं पर प्रहार करने लगे और उनकी मार से एक बार फिर चारों ओर भगदड़ मच गयी।
क्रूर शत्रुओं ने अन्याय करते हुए उनको घेर रखा था। सब उन पर शस्र-वर्षा कर रहे थे।
उनका कवच कटकर गिर गया था। शरीर बाणॊं के लगने से घायल हो गया था और उससे रक्त की धाराऍं गिर रही थीं।
जब उनके पास से अस्त्र-शस्त्र कट गये, तब उन्होंने रथ का चक्का उठाकर ही मारना प्रारम्भ किया।
इस अवस्थामें भी कोई उन्हें सम्मुख आकर हरा नहीं सका। शत्रुओं ने पीछे से उनके सिरपर गदा मारी।
उस गदा के लगने से अभिमन्यु सदा के लिए रणभूमि में गिर पड़े। इस प्रकार संग्राम में शूरता पूर्वक उन्होंने वीरगति प्राप्त की।
इसीसे भगवान श्रीकृष्ण ने बहिन सुभद्रा को धैर्य बॅंधाते हुए अभिमन्यु की-जैसी मृत्यु को अपनेसहित सबके लिये वाञ्छनीय बतलाया था।