ऋषभदेव के पुत्र भरतजी योगी त्यागी ज्ञानी । पर राजा दुष्यन्त-पुत्र थे भरत शूर बल-खानी ॥ अपना देश नाम से दोनो के "भारत" कहलाता । त्याग ज्ञन ओ बल पौरुष की है महिमा बतलाता ॥ ऋषभपुत्र राजर्षि भरत की पढना कभी कहानी । भरत दूसरे के बचपन की है वीरता बतानी ॥ + + + + जन्म हुआ था ऋषि आश्रम मे माता ने था पाला । नन्हेपन से ही निर्भय था वह शकुन्तला लाला ॥ घुटनो चलने लगे भरत तब रेंग निकल जाते थे । बाघ सिंह के पास पहुंँच मुख उनका थपकाते थे ॥ + + + + जब वे चलने लगे पकड़ लाते सिंहनी के बच्चे । गुर्राने से धमकाते थे, नहीं तनिक थे कच्चे ॥ 'रह मैं तेरे दाँत गिनूँगा' बड़े सिंह से कहते । उसके मुँह मे हाथ डालकर सचमुच गिनते रहते ॥ चार बरष के भरत खींचते कान बाघ का जाकर । हँसते बैठ पीठपर उसकी ताली बजा-बजाकर ॥ + + + + छड़ी दिखाते सिंह-रीछ को 'बैठ ! नही मारुँगा । लड़ ले कुश्ती पकड़ पटक दूँ, क्या तुझसे हारुंगा॥ पूँछ हिलाते बाघ-सिंह थे अपना प्यार दिखाकर । हाथी-रीछ खिलाते उनको मीठे फल ला लाकर ॥ + + + + ऎसे निर्भय वीर पुत्र से माता खुश रहती थी । 'मेरा पुत्र देश का पालन कर लेगा ' कहती थी ॥ होकर बड़े भरत धर्मात्मा राजा हुए महान । अबतक वीर किया करते हैं उनका गौरव गान ॥ + + + +