वीर बालक भरत
ऋषभदेव के पुत्र भरतजी योगी त्यागी ज्ञानी ।
पर राजा दुष्यन्त-पुत्र थे भरत शूर बल-खानी ॥
अपना देश नाम से दोनो के "भारत" कहलाता ।
त्याग ज्ञन ओ बल पौरुष की है महिमा बतलाता ॥
ऋषभपुत्र राजर्षि भरत की पढना कभी कहानी ।
भरत दूसरे के बचपन की है वीरता बतानी ॥
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जन्म हुआ था ऋषि आश्रम मे माता ने था पाला ।
नन्हेपन से ही निर्भय था वह शकुन्तला लाला ॥
घुटनो चलने लगे भरत तब रेंग निकल जाते थे ।
बाघ सिंह के पास पहुंँच मुख उनका थपकाते थे ॥
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जब वे चलने लगे पकड़ लाते सिंहनी के बच्चे ।
गुर्राने से धमकाते थे, नहीं तनिक थे कच्चे ॥
'रह मैं तेरे दाँत गिनूँगा' बड़े सिंह से कहते ।
उसके मुँह मे हाथ डालकर सचमुच गिनते रहते ॥
चार बरष के भरत खींचते कान बाघ का जाकर ।
हँसते बैठ पीठपर उसकी ताली बजा-बजाकर ॥
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छड़ी दिखाते सिंह-रीछ को 'बैठ ! नही मारुँगा ।
लड़ ले कुश्ती पकड़ पटक दूँ, क्या तुझसे हारुंगा॥
पूँछ हिलाते बाघ-सिंह थे अपना प्यार दिखाकर ।
हाथी-रीछ खिलाते उनको मीठे फल ला लाकर ॥
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ऎसे निर्भय वीर पुत्र से माता खुश रहती थी ।
'मेरा पुत्र देश का पालन कर लेगा ' कहती थी ॥
होकर बड़े भरत धर्मात्मा राजा हुए महान ।
अबतक वीर किया करते हैं उनका गौरव गान ॥
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